रिचमंड, वर्जीनिया राज्य का सुंदर शहर. वॉशिंगटन डीसी से सड़क के रास्ते महज़ दो घंटे दूर. बीस लाख की आबादी. जिसमें शान से घूमते लगभग बीस हज़ार समृद्ध भारतीय. डॉक्टरी के पेशे से लेकर आईटी की कमान संभाले नौजवान तक. होटल-बिज़नेस से लेकर इंपोर्ट-एक्सपोर्टर भारतीय तक.
यहीं मुलाकात हुई राजस्थान के लोकेश गोलिया से. क़द बमुश्किल साढ़े पांच फ़ीट. उम्र कोई चालीस बरस. मगर हौसला आसमानी. इंटरनेशनल कंपनी में आईटी डिपार्टमेंट के हेड. लेकिन नज़र मौजूदा भारतीय राजनीति के हर उतार-चढ़ाव पर. भ्रष्टाचार पर खौल पड़ते हैं, कहते हैं, 'हमारे देश में सिर्फ़ वही रिश्वत नहीं लेता जिसे किसी ने रिश्वत दी नहीं. हमारी प्रगति में सबसे बड़ी दीमक यही है. अब तो कोफ़्त होने लगी है. चलो, आप खा लो, लेकिन कुछ लगा भी तो दो हमारे विकास के लिए.' लोकेश को सत्ता-परिवर्तन विकल्प दिखता है और मोदी रोशनी. उन्हें लगता है, 'नरेंद्र मोदी ने सोच बदली है. मार्केट में हमारा रेपो-रेट अच्छा हुआ है.'
डॉ. सूर्या प्रकाश धाकर भी राजस्थानी-मारवाड़ी हैं. दिन में तीन-चार घंटे ‘आज तक' देखते हैं. रिचमंड के जाने-माने डेंटल-सर्जन हैं. यहां के माहौल में पूरी तरह रचे-बसे हैं. देखने में किसी अमेरिकन से कम नहीं. लेकिन लखनऊ से बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ जीतेंगे या कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी, उन्हें इससे ख़ासा सरोकार है. वह कहते हैं, 'ये जावेद जाफ़री क्या कर लेंगे राजनीति में? क्या सोचकर आम आदमी पार्टी ने टिकट दिया उन्हें?' डॉ. धाकर को मुलायम सिंह बिलकुल कॉन्फ़िडेंट नहीं लगते. वह कहते हैं, 'मैनपुरी की जनता से उनका भरोसा उठ गया है जो आज़मगढ़ से भी खड़े हो गए? अगर वह प्रधानमंत्री बनते हैं तो क्या उनमें या उनके किसी मंत्री में विदेशों से भारत के संबंधों को लेकर समझ या गंभीरता होगी?'
दरअसल, सारा मामला संबंधों पर टिका है. अमेरिका का नज़रिया सकारात्मक है. वह चाहता है कि हिंदुस्तान से संबंधों की ज़मीन सूखनी नहीं चाहिए. उसकी नज़र हिंदुस्तानी बाज़ार पर है जो कमोवेश बड़ा है. और इधर बहुत बढ़ा है. उसके युवा, टेक्नो-दिमाग़ के ज़रिए यूएस में झंडे गाड़ रहे हैं. अप्रवासी भारतीय बहुत शार्प हैं. वे भारत-अमेरिका के बेहतर रिश्तों पर ख़ासा ज़ोर देते हैं. वे कहते हैं ताली दोनों हाथ से बजती है. वक़्त का तक़ाज़ा है तो दोनों को ताली बजानी होगी.
अमेरिका ने हिंदुस्तानियों के दिलों का रास्ता, हिंदी के दरवाज़े से भी खोला है. यहां के कई विश्वविद्यालयों ने हिंदी को मान दिया है. उसे विषय के रूप में स्वीकारा है. पाठ्यक्रम आरंभ किए हैं. रिचमंड के हिंदू मंदिरों में सप्ताह के आख़िर में हिंदी पढ़ाई जाती है. जहां, भारतीय बच्चों के साथ अमेरिकी और अन्य देशों के बच्चे भी हिंदी सीखने आते हैं.
यहीं मिले गोरखपुर के राज दुबे. कहते हैं, 'अन्ना की उंगली थामे केजरीवाल अच्छे लगते थे. अब भटके लगते हैं. राजनैतिक महत्वकांक्षा से भरे दिखने लगे हैं. सियासी-फलक पर उनकी मंशा भटक साफ़ नज़र नहीं आती है. उन्हें संगठनात्मक स्तर पर मज़बूत होने बहुत ज़रूरत है.'
यहां हिंदुस्तानी सिर्फ हिंदुस्तान की राजनीति में ही रुचि नहीं लेते. अमेरिकी कांग्रेस के लिए भी उनका लगाव पूरे जोशो-ख़म पर रहता है. हिंदी की ज़मीन पर एक साथ खड़े भारतीय अब अमेरिकी राजनीति के बदलाव की बात भी करने लगे हैं. साफ़ है, यहां जितना दबदबा बढ़ेगा. हिंदुस्तान से संबंध उतने सहज होंगे. यही सहजता उन्हें यहां और मज़बूत करेगी. इसीलिए हिंदुस्तानी-राजनीति का रहनुमा कैसा हो. इसमें अमेरिका में बसे भारतीयों की ख़ास दिलचस्पी होती है.
रिचमंड में मशहूर इंडियन रेस्टॉरेंट 'अनोखा' के मालिक जस्सी भारत की राजनैतिक स्थितियों पर बराबर नज़र रखते हैं. राजनैतिक-स्थिरता और अंतर्राष्ट्रीय सरोकारों पर गहरी समझ रखते हैं. उनके पास अच्छी हिंदी नहीं है. लेकिन हिंदुस्तान के राजनैतिक माहौल की समझ पैनी है. दो-दो जगह से टिकट हथियाने की आदत उन्हें रास नहीं आती. वे कहते हैं, 'दो जगह से टिकट हथियाने की नीति ही ग़लत है हमारे देश में. निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया अपनाते वक़्त इस ओर भी ध्यान देना चाहिए.'
(हमारे वरिष्ठ साथी आलोक श्रीवास्तव इन दिनों अमेरिका यात्रा पर हैं और अलग-अलग शहरों में बसे भारतीयों का सियासी रुख परख रहे हैं. वाशिंगटन से रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. )