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गंगा तय करती है पीएम का नाम

उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति के पापियों के पाप धोने वाली पवित्र गंगा 120 सांसदों को लोकसभा में भेजकर इस क्षेत्र को देश की राजनीति की 'वीटो ग्राउंड' कहलाती है. चुनाव कार्यक्रम । शख्सियत । विश्‍लेषण । अन्‍य वीडियो । चुनाव पर विस्‍तृत कवरेज

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उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति के पापियों के पाप धोने वाली पवित्र गंगा 1615 किमी का लंबा सफर तय करते हुए 120 सांसदों को लोकसभा में भेजकर इस क्षेत्र को देश की राजनीति की 'वीटो ग्राउंड' कहलाती है. यानी गंगा क्षेत्र तय करता है कि प्रधानमंत्री कौन होगा? दो दशक पहले तक इस क्षेत्र पर कांग्रेस का राज था. पर धीरे-धीरे गैर-कांग्रेसवाद ने जोर पकड़ा, क्षेत्रीय पार्टियां-सपा, बसपा, राजद और लोजपा-एक ताकत बनकर सामने आई और बाढ़ के पानी की तरह कांग्रेस की जमीन निगल गईं. इनके साथ-साथ भाजपा भी उभरी और गंगा की लहरों में बहने लगी. फिर पांच साल पहले अपनी संख्या के बल पर ये पार्टियां कांग्रेस से मिलकर देश पर राज करने लगीं और चुनाव आया तो हंसते हुए कहने लगीं कि तुम्हारी हैसियत क्या है. इसीलिए कांग्रेस को एहसास हुआ कि क्षेत्रीय दोस्तों के बजाए क्यों न वह खुद अपने पैरों पर 120 चुनाव क्षेत्रों में खड़े होने की कोशिश करे. जीत भले न हो, पर हर बूथ पर उसका 'पंजा' दिखेगा तो. और इसका एहसास होते ही आपस में पंजा लड़ाने वाले तीन नेताओं मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान ने हाथ मिला लिए.

दरअसल, इस विशाल क्षेत्र में कांग्रेस का रास्ता रोके कई दिग्गज नेता खड़े हैं, जिन्हें कांग्रेस से नफरत घुट्टी में मिली है. उत्तर प्रदेश में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह और अमर सिंह हैं तो बिहार में लालू और पासवान ने कांग्रेस का 'हाथ' झटक दिया है. बात यूपीए के आपस में मिलकर चुनाव लड़ने की थी. लालू की राजद और पासवान की लोजपा पांच साल तक यूपीए के न केवल अहम स्तंभ रहीं बल्कि ये दोनों नेता रेलवे और इस्पात जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी चलाते रहे. दलित नेता पासवान महत्वाकांक्षी जरूर हैं, पर उनके सिल्क के कुर्ते पर कोई दाग नहीं था. फिर भी लालू और उनके साथी मंत्रियों को सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री झेलते रहे और 'दागी मंत्रियों' को लेकर विपक्ष के निशाने पर रहे. लालू को आज बस यह याद है कि अकेले उन्होंने 'विदेशी' के मुद्दे पर सोनिया का बचाव किया था और 22 सांसदों के साथ यूपीए को मजबूत किया था. मुलायम और अमर सिंह ने तो बिन मांगे बाहर से मनमोहन सरकार को समर्थन दिया था और दोस्ती-दुश्मनी की जंग में जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर वामपंथी दोस्तों ने साथ छोड़ दिया और यूपीए की जान पर बन आई तो सपा ने अपने 39 सांसदों के साथ सरकार बचा ली.

कांग्रेसी नेताओं के अनुसार, इसी एहसान के बदले उत्तर प्रदेश में सपा और बिहार में राजद तथा लोजपा उसे कुछ सीटें ही 'दान' के तौर पर देना चाहते थे. उत्तर प्रदेश में 2004 में कांग्रेस ने 9 सीटें जीतीं थीं और 6 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही थी. कांग्रेस कम-से-कम 25 सीटें चाहती थी, मगर सपा 17 से ऊपर देने को तैयार नहीं हुई. बात फंस गई. पार्टी सूत्र मानते हैं कि लोगों खासकर मुसलमानों का झुकाव कांग्रेस की ओर है क्योंकि कल्याण सिंह के मुद्दे पर मुसलमान सपा से नाराज हैं और कांग्रेस की ओर देख रहे हैं तथा बसपा का स्वाभाविक झुकाव भाजपा की ओर ही होता रहा है. यदि सपा-कांग्रेस में गठबंधन होता तो मुसलमान इस सेकुलर गठबंधन को ही वोट देते.

{mospagebreak}अमर सिंह कहते हैं, ''कांग्रेस संबंध निभाना नहीं जानती और समझौता न होने के लिए कांग्रेसी नेता जिम्मेदार हैं,'' पर सूत्रों का कहना है कि पार्टी में छिपे बसपा के हमदर्द भी कांग्रेस-सपा में समझौता नहीं चाहते थे क्योंकि उससे बसपा को नुक्सान होता. ऐसा न हो सका तो कांग्रेस ने अपने बूते 50-60 सीटों पर लड़ने की सोच ली. कांग्रेसी नेताओं को भरोसा है तो केवल सोनिया और राहुल गांधी पर, जो चुनावों के समय रोड शो करते हैं और साल भर अमेठी और रायबरेली की सुनते हैं. 1999 में अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया प्रदेश कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने एक बार कांग्रेस मुख्यालय में आई थीं और 12 नवंबर, 2007 को राहुल आए थे. एक नेता ने कहा भी, ''जब हमारे ह्ढेरणा स्त्रोत सोनिया और राहुल खुद पार्टी मुख्यालय नहीं आना चाहते तो जनता क्यों कांग्रेस से जुड़े.'' हालत यह है कि 1984 में 50 प्रतिशत वोट पाने के बाद यह पार्टी 12-14 प्रतिशत वोट और 5 से 9 सीटों पर अटक गई. फिर भी राहुल अब उत्तर प्रदेश और बिहार में पार्टी का भविष्य उज्‍द्गवल देख रहे हैं, ''मैं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को लेकर आशावादी हूं. लोगों को लगता है कि जिस विकल्प का उन्होंने प्रयास किया वह कारगर नहीं रहा है इससे नई राजनीति जन्म लेगी. समझौता वार्ता इसलिए टूट गई क्योंकि सपा ने कांग्रेस के कद की अनदेखी की.''

मगर कथनी और करनी में बहुत अंतर है. आज कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश और बिहार में करिश्माई नेता है ही नहीं अथवा किसी को स्थानीय तौर पर शक्तिशाली नेता बनने ही नहीं दिया गया और मंडल तथा कमंडल आंदोलन ने कांग्रेस के जनाधार पर झडू फेर दिया और भाजपा की ओर से कल्याण सिंह शक्ति बनकर उभरे थे तो मुलायम और फिर कांशीराम मायावती ने अपना झंडा लहरा दिया और बिहार में लालू, नीतीश कुमार, सुशील मोदी और पासवान सहित कई ताकतवर नेता उभरकर छा गए.

कांग्रेस की बुरी हालत बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी है. यदि उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से कांग्रेस ने 9 पाईं तो 2004 में लालू ने उसे 40 में से 4 सीटें दी थी और वह तीन जीत पाई थी. इस बार भी उसे तीन सीट देने की सोची गई. गुस्से में कांग्रेस ने 37 सीट लड़ने की घोषणा कर दी. लालू का कहना था, ''कांग्रेस का बिहार में कोई जनाधार नहीं. हम हारने के लिए उन्हें सीट नहीं दे सकते.'' उधर, पासवान ने कहा कांग्रेस ने बिहार में जहर खा लिया है. बिहार में यूपीए का मतलब राजद-लोजपा है.'' इसके जवाब में कांग्रेस के सचिव और बिहार के प्रभारी इकलाब सिंह ने कहा, ''राजद-लोजपा से कोई रिश्ता नहीं रहा. चुनावों के बाद भी नहीं.''

{mospagebreak}मगर क्या फर्क पड़ता है? लालू के विवादास्पद साले साधु यादव ने बगावत करने के बाद कांग्रेस में जाकर 8 टिकट मांग लिए. कांग्रेस महासमिति के सदस्य ह्ढेम चंद मिश्र ने कहा, ''इससे प्रदेश भर में कांग्रेसियों के खिलाफ गलत सिगनल चला गया. हो सकता है, आगे चलकर यह भारी गलती साबित हो.'' यही नहीं, कांग्रेस रमई राम और हिंद केसरी यादव जैसे दिग्गजों को भी टिकट देने लगी है.

फिर भी कांग्रेस की रणनीति ने विश्लेषकों को चौंका दिया है. एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एडीआर) के डॉ. सैबल दास गुप्ता कहते हैं, समझौता वार्ता टूटने के बाद पहली बार कांग्रेस अपना एजेंडा लेकर जनता में जा रही है और वोट-बैंक के पुनर्निर्माण में कुछ ऐसे तत्वों को शामिल कर रही है जो कभी उसके करीब भी नहीं थे. उसने साधु यादव के सहारे राजद के दलबदलुओं को मैदान में उतारकर लालू की नींद उड़ा दी है. इसके अलावा पहली बार कांग्रेस ने लालू को परेशान करने के लिए मुसलमानों और पिछड़ों को भी मैदान में उतार दिया है. इससे कांग्रेस को फायदा भले ही न हो, मगर लालू का नुक्सान जरूर होगा.

मगर कांग्रेस की रणनीति पर पानी फेरने के लिए मुलायम सिंह और अमर सिंह ने तुरंत लालू और पासवान से दोस्ती कर ली क्योंकि गठबंधन टूटने से जितना खतरा कांग्रेस को है उससे कम सपा और राजद-लोजपा को नहीं है. इसलिए सोनिया गांधी कहती हैं, ''यह निश्चय ही यूपीए का खात्मा नहीं है...हम राजद और सपा से समझौता नहीं कर पाए इसीलिए अपने बूते लड़ने का फैसला किया.''

अब कांग्रेस अपने कमजोर पैरों से उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा की तपती रेत पर कितनी दूर चल सकती है, यह देखने की बात है.

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