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EXCLUSIVE वॉशिंगटन से: मोदी, केजरीवाल या राहुल, किसका है जोर?

भारत में चल रहे लोकसभा चुनावों को लेकर अमेरिका में बसे भारतीयों का क्या रुख है? क्या वे इसे उम्मीदों का चुनाव मानते हैं या इसे लेकर नीरस हैं? वह किसी का समर्थन कर रहे हैं तो क्यों कर रहे हैं और उनके विरोध की दलीलें क्या हैं? अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान हमारे वरिष्ठ साथी आलोक श्रीवास्तव इन्हीं मुद्दों की पड़ताल कर रहे हैं.

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Aalok Shrivastav LIVE from USA
Aalok Shrivastav LIVE from USA

भारत में चल रहे लोकसभा चुनावों को लेकर अमेरिका में बसे भारतीयों का क्या रुख है? क्या वे इसे उम्मीदों का चुनाव मानते हैं या इसे लेकर नीरस हैं? वह किसी का समर्थन कर रहे हैं तो क्यों कर रहे हैं और उनके विरोध की दलीलें क्या हैं? आने वाले समय में भारत को वह किस दिशा में बढ़ते देखना चाहते हैं? अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान हमारे वरिष्ठ साथी आलोक श्रीवास्तव इन्हीं मुद्दों की पड़ताल कर रहे हैं. इस सीरीज में वह अमेरिका के अलग-अलग शहरों से ग्राउंड रिपोर्ट भेजेंगे. पेश है पहली कड़ी, व्हाइट हाउस के शहर वाशिंगटन से.

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सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.

ये दुष्यंत कुमार के शब्द हैं. जो इन दिनों दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की ज़िद बने हुए हैं. हिंदुस्तान में आम चुनाव चल रहे हैं. राजनीतिक-हलचल है. बदलाव की सुगबुगाहट है. जोड़-तोड़ का ज़ोर है. हज़ारों मील दूर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में भी सबकी आंखें भारत पर टिकी हैं. यहां भी मोदी ही मुद्दा हैं. राहुल का भी राग है. और केजरीवाल का करिश्मा चर्चा में है.

AAP ने भारत को मुखर बनाया है?
वॉशिंगटन का मौसम सर्द है. हवा में ठंडक है. तापमान नर्म है, लेकिन यहां बसे हिंदुस्तानियों के दिलों में भारतीय-सियासत की तपिश है. जिससे माहौल में गर्मी है. अप्रवासियों में आने वाले चुनाव परिणामों की जिज्ञासा है. साथ में शामिल है अपने मन-माफिक परिणामों की अभिलाषा.

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साठ के दशक में अमेरिका आए सतीश मिश्र फूड एंड ड्रग्स डिपार्टमेंट में एक्सपर्ट साइंटिस्ट हैं. केजरीवाल और ‘आप’ के लिए कहते हैं, 'भारत इतना मुखर नहीं था, जितना अब है. ये मुखरता, मीडिया के जरिए केजरीवाल और ‘आप' पार्टी की देन है. मुखरता बुरी बात नहीं, लेकिन ‘न्यूसेंस‘ की हद तक जाने वाली मुखरता, मूर्खता है. इससे बचना होगा. भारत को संयमित और भ्रष्टाचार मुक्त सत्ता की ज़रूरत है. ‘आप’ वो दे सकती है, बशर्ते वो संयमित हो.'

'काश मोदी बेदाग होते!'
दीपन पटेल आईटी फील्ड में हैं. दिल्ली से वॉशिंगटन की फ़्लाइट में मिले. गुजरात से हैं. साल 2000 में पढ़ाई के बाद यूएस आए थे. काम का अनुभव लेने. लेकिन यहां का लिया अनुभव, अपने देश नहीं ले गए. यहीं बस गए. चालीस हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर उन्होंने स्वीकारा कि वो मोदी के फ़ैन हैं. पहले नहीं थे. अब हैं. कहते हैं, 'उस वक़्त अगर मोदी विकास पुरुष के रूप में उभर गए होते तो शायद लौट जाता. मौक़ा मुश्किल से मिलता है. यहां मिल गया तो लपक लिया. लेकिन अब गुजरात में सब कुछ पहले जैसा नहीं है. गुजरात बदला है, देश भी बदलेगा. मोदी को आना चाहिए.' लेकिन सुलझे हुए प्रोग्रेसिव लोगों की तरह वो भी अपनी बात इसी जुमले से ख़त्म करते हैं कि, 'काश मोदी बेदाग़ होते !'

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बदलाव की बयार की उम्मीद
रजनीश श्रीवास्तव पिछले दस बरस से वॉशिंगटन में हैं. वे यहां एक फाइनेंशियल फ़र्म में सीनियर एसोसिएट हैं. आम-चुनाव और उसके परिणामों पर पूछे जाने पर रजनीश एक गहरी सांस लेते हैं. और कहते हैं, 'पड़ोसी मुल्कों से रिश्ते सुधरने चाहिए. दूसरे मुल्कों से कारोबार और रोज़गार में आसानियां होनी चाहिए. राहुल गांधी युवा-सोच और जोश से भरे हैं इस दिशा में वही अच्छा सोच और कर सकते हैं. फिर कांग्रेस का अपना अनुभव है. उनका सत्ता में आना कांग्रेस के लिए जीर्णोद्धार से कम नहीं होगा.'

बदलाव की बयार को महसूस कर रहे भारतीय यहां भी तीन हिस्सों में बंटे नज़र आते हैं. एक वो जो राष्ट्रवाद का झंडा उठाए मोदी के साथ चलना चाहते हैं. दूसरे वो जिन्हें सिर्फ़ राहुल में ही प्रगतिशील सोच का राजनेता दिखाई दे रहा है. और तीसरे वो जो व्यवस्था की ज़मीन से भ्रष्टाचार की धूल साफ करने के लिए केजरीवाल के हाथ में झाड़ू थमाना चाहते हैं.

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