बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण गठबंधन है जेडीयू-बीजेपी गठबंधन. वर्तमान में सत्ता की बागडोर इसी गठबंधन के हाथ में है. हालांकि गठबंधन के नेता और वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नजर आते हैं लेकिन उन्हें कहीं न कहीं लालू-पासवान के गठबंधन से चिंता भी है.
देखा जाए तो दोनों ही पार्टियां अपनी-अपनी सुविधा के लिए ही एक साथ हैं. पिछले दिनों पटना में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पोस्टरों से मचे बवाल के बाद तो ऐसा लग रहा था कि जैसे नीतीशा भाजपा से दूरी बना लेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. दोनों ही दलों को पता है कि अगर वो अलग हुए तो दोनों को ही मुंह की खानी पड़ेगी.
एक ओर जहां नीतीश के पास मुसलमानों का समर्थन है तो दूसरी ओर बीजेपी के पास कट्टर हिंदूवादियों और व्यावसायी वर्ग का समर्थन है. इस तरह ये दोनों दल एक दूसरे के पूरक की भूमिका निभाते हैं. इस गठबंधन में जहां तक समझौते का सवाल है तो इसमें भाजपा ही ज़्यादा समझौते करती रही है क्योंकि उसके पास नीतीश जैसा वोट बैंक या कहें कि जातिगत आधार नहीं है. {mospagebreak}
दूसरे, नीतीश का राजनीतिक व्यक्तित्व बहुत बड़ा है और बिहार में भाजपा के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो उसकी बराबरी कर सके. हालांकि नीतीश अपनी जीत का दावा तो कर रहे हैं लेकिन वो पक्के तौर पर यह नहीं कह सकते कि उनका गठबंधन जीतेगा ही.
वैसे भी टिकट पाने के लिए दल बदलने वाले नेताओं से राज्य के सभी दलों को दो चार होना पड़ा है. इसलिए यह सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है कि ऊंट किस करवट बैठेगा. इस गठबंधन को राजद-लोजपा गठबंधन से अच्छी खासी चुनौती मिल सकती है क्योंकि 2009 में 18 सीटों पर हुए उपचुनाव में इस गठबंधन ने नीतीश को सोचने पर मजबूर कर दिया.