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JK में दल-बदल की इजाजत नहीं देता कानून

किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में अन्य राज्यों में दल बदल होना आम बात है, लेकिन जम्मू-कश्मीर का मामला अलग है. हाल ही हुए चुनाव में जम्मू कश्मीर विधानसभा को मिले खंडित जनादेश के बाद यहां पार्टियों के लिए अपनी ताकत बढ़ाने का कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में दल-बदल की कोई गुंजाइश ही नहीं होती.

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किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में अन्य राज्यों में दल बदल होना आम बात है, लेकिन जम्मू-कश्मीर का मामला अलग है. हाल में हुए चुनाव में जम्मू-कश्मीर विधानसभा को मिले खंडित जनादेश के बाद यहां पार्टियों के लिए अपनी ताकत बढ़ाने का कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में दल-बदल की कोई गुंजाइश ही नहीं होती.

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दरअसल, जम्मू-कश्मीर का अपना खुद का दल बदल रोधी कानून है, जो राष्ट्रीय कानून से अलग है. यह निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को अपनी पार्टी के व्हिप की अवज्ञा करने से रोकता है.

शेष देश में लागू दल बदल रोधी कानून के मुताबिक यदि किसी पार्टी के एक तिहाई से कम निर्वाचित जन प्रतिनिधि पार्टी व्हिप को नहीं मानते हैं या उसकी अवज्ञा करते हैं तो वे सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य हो जाते हैं. लेकिन इस राज्य का कानून इससे कहीं ज्यादा सख्त है.

राज्य के पूर्व महाधिवक्ता अलताफ नाइक ने बताया, ‘राज्य के दल बदल रोधी कानून के मुताबिक यदि किसी पार्टी के सारे विधायक भी पार्टी व्हिप की अवज्ञा करते हुए दल बदल कर लेते हैं तो भी उनकी सदस्यता चली जाएगी.’ एक अन्य स्थिति में राष्ट्रीय कानून के तहत ऐसी प्रक्रिया को दल-बदल नहीं माना जाता है, जब किसी पार्टी के एक निर्वाचित सदस्य या एक से अधिक सदस्य दो पार्टियों के बीच विलय को स्वीकार नहीं करते हैं और ऐसे विलय के समय से एक अलग समूह के रूप में काम करने का विकल्प चुनते हैं.

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हालांकि, राज्य का कानून इन आधार पर कोई भेद नहीं करता है. नाइक ने कहा कि किसी भी पार्टी के किसी भी संख्या में निर्वाचित सदस्य सदन की सदस्यता से अयोग्य करार दिए जा सकते हैं बशर्ते कि वे पार्टी व्हिप की अवज्ञा करें.

गुलाम नबी आजाद के मुख्यमंत्री रहने के दौरान वर्ष 2006 में लागू हुए जम्मू-कश्मीर संविधान के 13 वें संशोधन ने विधायी पार्टियों में टूट के प्रावधान को मिटा दिया. पिछली विधानसभा में बीजेपी ने दल बदल रोधी कानून का उस वक्त उपयोग किया जब इसने स्पीकर के समक्ष एक अर्जी देकर अपने उन सात विधायकों की सदस्यता खत्म करने की मांग की जिन्होंने अप्रैल 2011 में हुए विधान परिषद के चुनाव में अपने पार्टी के उम्मीदवारों के खिलाफ मतदान किया था.

हालांकि इस विषय पर कानून बहुत स्पष्ट होने के बावजूद बीजेपी के सातों बागी विधायक विधानसभा के सदस्य बने रहे, क्योंकि सदन के स्पीकर मोहम्मद अकबर लोन और उनके बाद मुबारक गुल ने इस साल अगस्त में हुए आखिरी सत्र तक इस विषय पर अपना आदेश नहीं दिया.

गौरतलब है कि बीजेपी विधायकों पर तत्कालीन सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवारों के पक्ष में तीन साल पहले मतदान करने का आरोप था.

- इनपुट IANS से

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