हाशिए से हस्तक्षेप कर बिहार विधानसभा चुनावों के नतीजों के साथ ही किंगमेकर बने आरजेडी चीफ लालू प्रसाद यादव ने एक बार फिर जता दिया कि सियासी दांवपेंच में उनका कोई जोड़ नहीं है.
लगातार चुनावों में मिली पराजय
पन्द्रह साल तक बिहार पर राज करने वाले लालू को 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में उस वक्त जबरदस्त झटका लगा जब कभी अजेय मानी जा रही उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को हार का मुंह देखना पड़ा. इसके बाद 2010 के चुनावों में उस वक्त उन्हें बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक मान लिया गया जब 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में उनकी पार्टी महज 22 सीटों पर ही सिमट गई.
महागठबंधन के निर्माण में बड़ी भूमिका
इस बार के चुनाव के दौरान लालू ने एक नए सियासी सफर की शुरुआत की जब पिछड़ों के नेता माने जाने वाले लालू ने महागठबंधन के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई. बिहार का यह राजनीतिक समीकरण एनडीए पर भारी पड़ा और इसने महाबंधन के पक्ष में वोटों की बरसात करा दी.
छात्र राजनीति से की थी शुरुआत
छात्र राजनीति से अपना सियासी सफर शुरू करने वाले 67 वर्षीय लालू 1970 के दशक की शुरूआत में पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के महासचिव बने. इसके बाद वह छात्र संघ के अध्यक्ष बने. वर्ष 1974 में बिहार और गुजरात में तात्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ जोरदार आंदोलन हुए. इन आंदोलनों ने लालू का कद बहुत बढ़ा दिया.
जेपी के आंदोलन के सूत्रधार थे लालू
यह बात व्यापक रूप से मानी जाती है कि लालू ने ही उस वक्त राजनीतिक संन्यास का जीवन बिता रहे समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण को छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के आंदोलन का मार्गदर्शन करने के लिए राजी कराया था. छात्रों के आंदोलन ने जोर पकड़ा और 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू होने के बाद यह देश के विभिन्न कोनों में फैल गया.
कम उम्र में ही बन गए थे सांसद
आंदोलन की परिणति 1977 में केन्द्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार के निर्माण के रूप में हुई. उस वक्त लालू सिर्फ 29 साल के थे. उन्होंने पहली बार 1977 में लोकसभा चुनाव जीता. बहरहाल, दो साल बाद 1979 में कांग्रेस की जबरदस्त वापसी की आंधी में वह भी चुनाव हार गए. 1980 और 1985 में वह बिहार विधानसभा के लिए चुने गए. 1989 में लालू ने दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीता. तब बोफोर्स घोटाले के खिलाफ देश भर में कांग्रेस विरोधी लहर थी और वीपी सिंह ने नेशनल फ्रंट की सरकार बनाई थी.
बिहार के सीएम बनने के बाद आगे ही बढ़ते गए लालू
1990 में जब बिहार विधानसभा चुनावों में जनता दल को जीत मिली, तब वीपी सिंह ने मुख्यमंत्री के पद के लिए रामसुंदर दास का पक्ष लिया था जबकि चंद्रशेखर रघुनाथ झा के पक्ष में थे. ऐसे में लालू ने हरियाणा के तात्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल को इस पद के लिए आंतरिक चुनाव कराने पर रजामंद कराया. कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद विपक्ष के नेता बने लालू खुद को इस पद का स्वाभाविक दावेदार मान रहे थे, और आंतरिक चुनावों में भी उन्हें ही जीत मिली जिसके बाद उन्होंने बिहार की कमान संभाली. बिहार का सीएम बनने के बाद लालू ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा वो आगे ही बढ़ते रहे.
मंडल आयोग की रिपोर्ट का भी फायदा मिला
इसी बीच भाजपा के बाहरी समर्थन से गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट पेश कर दी जिसमें अन्य पिछडे वर्ग के लिए 27 प्रतिशत के आरक्षण की घोषणा कर दी. जानकारों की मानें तो यह जनता दल के पक्ष में ओबीसी वोटों को मजबूत करने और हिंदुओं के बीच भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने की एक कोशिश थी. इसी के साथ ‘मंडल बनाम कमंडल’ की राजनीति की शुरूआत भी हुई.
आडवाणी की गिरफ्तारी ने दिलाया मुस्लिमों का समर्थन
1990 में जब राममंदिर निर्माण के मुद्दे पर बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली तो लालू ने बिहार के समस्तीपुर में उनका रथ रोका और आडवाणी को गिरफ्तार किया. लालू के इस मास्टरस्ट्रोक ने उन्हें 1989 के भागलपुर दंगों से स्तब्ध मुसलमानों का व्यापक समर्थन दिला दिया. अब कांग्रेस का मुसलमानों और ओबीसी वाला विशाल जनाधार लालू के साथ था और उन्होंने किसी जागीरदार की तरह बिहार पर राज किया.
लालू पर लगे जंगलराज के आरोप
विरोधियों ने उनपर अपराध और अराजकता को बढ़ावा देने के आरोप लगाए. यहां तक कि उन पर ‘जंगल राज’ के आरोप भी लगे, लेकिन लालू ने मोहम्मद शहाबुद्दीन और पप्पू यादव जैसे लोगों की खुली हिमायत की. लालू के राजनैतिक करियर में एक बड़ा मोड़ उस वक्त आया जब 1996 में उन्हें चारा घोटाले के मामलों का सामना करना पड़ा. अगले साल जब सीबीआई उनका गिरफ्तारी वारंट लाई तो उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. उनके हटने पर उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं. राबड़ी देवी ने ही अगले आठ साल तक बिहार का शासन संभाला.
नीतीश ने खत्म की थी लालू की बादशाहत
बीजेपी के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ रही जेडीयू के नेता नीतीश कुमार ने सन् 2005 में उन्हें सत्ता से हटाया. बहरहाल, बिहार की सत्ता हाथ से निकलने के बावजूद लालू ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी क्योंकि 2004 लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी आरजेडी ने बिहार की 40 में से 22 सीटों पर अपना कब्जा जमाया और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग-1 सरकार में हिस्सा लिया. आरजेडी इस गठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी.
सफल रेलमंत्री रह चुके हैं लालू
लालू उस सरकार में रेलमंत्री बने, उन्होंने रेलमंत्री के रूप में अपने पूरे कार्यकाल में यात्री भाड़े में कोई भी इजाफा नहीं किया. लालू ने घाटे में चल रहे सार्वजनिक क्षेत्र के इस उपक्रम की कायापलट कर डाली और उसे मुनाफे में ला दिया. ये अलग बात है कि उनके बाद रेलमंत्री बनीं ममता बनर्जी के साथ ही कैग ने भी उनपर रेलवे के वित्त की ‘भ्रामक’ तस्वीर पेश करने का आरोप लगाया. हालांकि भारतीय रेल के इस कायापलट के लिए उन्हें आइवी लीग के अनेक स्कूलों में लेक्चर देने के लिए बुलाया गया. जहां उन्होंने हिंदी में अपने जाने-माने अंदाज में अपनी बात रखी.
बिहार के साथ ही आम चुनावों में भी मिली थी मात
2009 के लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी महज चार सीट ही जीत पाई. इसके बाद 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनावों ने उनका कद और भी छोटा कर दिया. आरजेडी को महज 22 सीटें मिलीं जो उसका अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था. लोगों को लगा कि इस कद्दावर नेता के खराब दिन आ गए. एक के बाद एक उनकी परेशानियां बढ़ती जा रही थीं, 2013 में चारा घोटाला मामले में दोषसिद्धि के बाद कोर्ट ने उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिया.
मोदी लहर बनी लालू के लिए वरदान
परेशानियों से जूझ रहे लालू के लिए साल 2014 में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान चली मोदी लहर एक तरह से वरदान साबित हुई. लालू की पार्टी आरजेडी को इस चुनाव में सिर्फ चार नीतीश की जेडीयू को दो सीटें ही मिलीं. इस करारी पराजय ने नीतीश और लालू को एक साथ लाने में बड़ी भूमिका निभाई. अब जब नीतीश के पास सत्ता की कमान है तो जाहिर सी बात है कि बिहार की सरकार में लालू का दखल होगा, लेकिन उतना नहीं जितना राबड़ी सरकार में था.