scorecardresearch
 

संपत्ति का ब्‍योरा देने में विधानसभा पीछे

हमारे देश में सिर्फ केरल, कर्नाटक, उत्तराखंड और त्रिपुरा में संपत्तियों और वित्तीय देनदारियों का ब्यौरा विधानसभा अध्यक्षों को देने की व्यवस्था है.

Advertisement
X

संपत्ति और देनदारियों के खुलासे के मामले में विधानसभाएं संसद जैसी नहीं हैं. देश भर की 29 विधानसभाओं (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) में कुल विधायकों की संख्या 4,033 है. इनमें से सिर्फ केरल, कर्नाटक, उत्तराखंड और त्रिपुरा में संपत्तियों और वित्तीय देनदारियों का ब्यौरा विधानसभा अध्यक्षों को देने की व्यवस्था है. जिन राज्‍यों में विधानपरिषदें हैं, उनकी जानकारी इसमें शामिल नहीं है.

हैरत की बात नहीं कि ज्‍यादातर विधानसभा सचिवालयों ने हमारी आरटीआइ अर्जी पर चुप्पी साधे रखी या उसे इधर से उधर अग्रसारित करते रहे. कर्नाटक लोकायुक्त कानून, 1984- जो 15 जनवरी, 1986 को लागू हुआ- की धारा 22 के मुताबिक, विधायक को हर साल 30 जून से पहले ऐसा विवरण देना होता है. प्रक्रिया का ब्यौरा देते हुए कर्नाटक विधानसभा सचिवालय का कहना था, ''अधिकतर सदस्य ब्यौरा दे रहे हैं. कोई डिफॉल्टर नहीं है.'' केरल विधानसभा का जवाब था, ''केरल लोक आयुक्त कानून और केरल लोक आयुक्त (संपत्ति का ब्यौरा देना) नियम, 1999 के मुताबिक, विधानसभा सदस्यों के लिए अपनी संपत्ति और वित्तीय देनदारियों का ब्यौरा देना जरूरी है. यह कानून 4 मार्च, 1999 को लागू हुआ. केरल राजभवन का कहना था कि सिर्फ तीन विधायकों ने संपत्ति का ब्यौरा नहीं दिया है. उत्तराखंड में भी ऐसे नियम हैं, पर  70 में से 61 तो डिफॉल्टर ही हैं.

वैसे, ओडीसा विधानसभा ने अपने 147 विधायकों के लिए आचार संहिता पारित की है, पर उसने साफ किया है कि सिर्फ एक विधायक ने इस पर अमल किया. साफ है कि ज्‍यादातर विधानसभाओं में संसद की तरह सदस्यों की संपत्ति-देनदारियों का खुलासा करने को बाध्य करने वाला कोई कानून नहीं है. यह तथ्य तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार, गोवा, पुडुचेरी, गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तर-पूर्वी राज्‍यों (सिवा त्रिपुरा के, जिसने राज्‍य विधायिका-संपत्ति और देनदारियों की घोषणा-कानून, 2006 के तहत अनिवार्य जानकारी मांगी है) की विधानसभाओं के सचिवालयों में भेजी गई हमारी अर्जी के जवाबों से साफ है. वहीं, आंध्र प्रदेश विधानसभा ने अभी कोई जवाब नहीं दिया. तो पंजाब विधानसभा सचिवालय ने आवेदन को संसदीय मामलों के विभाग को भेज दिया, जिसका जवाब आया है कि उसके पास ऐसी जानकारी नहीं है.

यानी, आरटीआइ का प्रयोग कर रहे जिज्ञासुओं के लिए यह तो 'एप्लाई विद नो रिप्लाइ' (आवेदन लेकिन जवाब नहीं) का मामला है. साथ ही, कई राज्‍यों की चुप्पी और गुमराह करने वाले जवाबों से यह भी पता चलता है कि उनमें आरटीआइ कानून के प्रावधानों की फिक्र भी किसी को नहीं है. पर असली सवाल यह है कि माननीय विधायक लोग चुने जाने के  बाद जो कुछ अर्जित करते हैं, उसका ब्यौरा लोगों को कैसे पता चलेगा?

Advertisement
Advertisement