बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का 87 साल की उम्र में चुनाव लड़ना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उनका गुजरात से न लड़ना. पिछले 16 वर्षों से उन्होंने गांधीनगर की सीट अपने नाम कर रखी थी. इस बार भी वह उस बेहद सुरक्षित सीट से लड़ने को इच्छुक थे लेकिन अब हालात बदल गए हैं, उन्हें वह सीट छोड़कर दूसरी सुरक्षित सीट भोपाल की ओर कूच करना पड़ेगा.
गुजरात बीजेपी नेताओं के बुलावे के बावजूद वह वहां से लड़ने को इच्छुक नहीं है. डर है भितरघात का. उस सीट पर उन्हें कांग्रेस से खतरा नहीं है और न ही आम आदमी पार्टी से, डर तो अपनों से है. उन्हें अच्छी तरह पता है कि अगर वह इस चुनाव में हार गए तो उनके राजनीतिक जीवन का अंत हो जाएगा, वह जीवन जो छह दशकों से भी लंबा चल रहा है. आडवाणी को इस पार्टी को आज के रूप में बनाने और संवारने का श्रेय जाता है. उन्होंने इसे एक ठोस आधार दिया और उससे भी बढ़कर उसे गतिशील बनाया. अपनी यात्राओं के बल पर उन्होंने पार्टी की पहुंच बढ़ा दी. लेकिन वक्त भी कितना निर्मम होता है, जिस पार्टी को उन्होंने मजबूत बनाया, सत्ता के करीब पहुंचाया वहां वह अलग-थलग खड़े हैं.
जाहिर है इसके कई कारण हैं. जिन्ना की तारीफ प्रकरण में उन्हें जबर्दस्त धक्का लगा था. उनकी हिन्दूवादी छवि को चोट पहुंची थी और समझा गया कि उन्होंने अपने को सेकुलर दिखाने के लिए वह बयान दिया था. लेकिन इस बार मामला नरेन्द्र मोदी से टकराव का रहा. सभी जानते हैं कि आडवाणी इस बार फिर चाहते थे कि उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाए. लेकिन पार्टी आला कमान और उससे भी ज्यादा आरएसएस को यह मंजूर नहीं था. मोदी का विरोध उन्हें भारी पड़ा जिसकी परिणति उनके चुनाव क्षेत्र में बदलाव के रूप में देखा जा सकता है. मोदी उन्हें चुभते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी तमाम मेहनत का फल मोदी को मिलने जा रहा है.
आडवाणी वही राजनेता हैं जिन्होंने कभी मोदी को आगे बढ़ाया था. लेकिन राजनीति बेरहम होती है और वह किसी को नहीं बख्शती है. आज आडवाणी पार्टी के लिए बहुत मायने नहीं रखते और इसके लिए वह खुद जिम्मेदार हैं, प्रधान मंत्री पद पाने की उनकी लालसा ने उन्हें सच्चाई से दूर कर दिया. वह सिर्फ अपने बारे में सोचते रहे. अब हालत यह है कि उन्हें अपना चुनाव क्षेत्र छोड़कर भोपाल से चुनाव लड़ना पड़ेगा क्योंकि गुजरात में हार का खतरा मंडरा रहा था.