जब परिवार बड़ा हो जाता है तो वह कुनबा बन जाता है और उसमें आपसी प्रेम घटता जाता है. एक दूसरे के पीछे खड़े होने का जज़्बा कम हो जाता है. हर कोई अपना अधिकार मांगने लग जाता है. ऐसा ही कुछ बीजेपी के साथ हो रहा है. पार्टी जो अपने को परिवार कहलवाना पसंद करती है अब वैसा नहीं दिखती और न ही उसके वैसे तौर-तरीके रह गए हैं.
बंद कमरों में उम्मीदवारों का फैसला, दल बदलुओं का स्वागत, कर्मठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, वरिष्ठ सदस्यों पर दबाव डालकर अपनी बात मनवाना, मौकापरस्ती वगैरह वह सब कुछ है जो पहले कम दिखता था. एक समय था कि बीजेपी के उम्मीदवारों को काफी समय पहले पता रहता था कि उन्हें कहां से चुनाव लड़ना है, लेकिन इस बार तो अंतिम समय तक तस्वीर स्पष्ट नहीं है. पार्टी कांग्रेस को दल बदलुओं को अपने पाले में लाने पर खिंचाई करती थी, लेकिन आज दलबदलुओं की कतार लगी हुई है
सीट जीतने के लिए वरिष्ठ नेताओं की मौकापरस्ती अपना चुनाव क्षेत्र छोड़कर सुरक्षित जगह जाने में साफ दिखाई दे रही है. कई नेताओं का अहंकार तो हिमालय से भी बड़ा होता जा रहा है. पार्टी के कम हैसियत के नेता हाशिये पर हैं. उनकी कोई सुनवाई नहीं है. मतलब यह है कि पार्टी का पुराना स्वरूप बदल गया है. अब बीजेपी वह पार्टी नहीं रही जो कभी अपनी आदर्श भरी बातों और व्यवहार के लिए जानी जाती थी. ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लोभ में पार्टी ने अपना चरित्र ही बदल दिया है. इसमें इतने बदलाव हो रहे हैं कि लगता है यह कुछ दिनों में पुरानी कांग्रेस जैसी हो जाएगी जिसका एकमात्र उद्देश्य किसी भी हालत में सत्ता पाना होता था और उसके लिए जोड़-तोड़ सामान्य सी बात थी.
आप कह सकते हैं कि बदलते वक्त के साथ बदलना मनुष्य की फितरत है और कोई भी पार्टी आखिर इससे कब तक बची रह सकती है. बीजेपी भी बदल गई है. जब देश का चरित्र बदलता है तो पार्टियां कैसे वैसी की वैसी रह सकती हैं ? अपनी तमाम आदर्शवादी बातों के बावजूद बीजेपी आज वहां खड़ी है जहां उसे नहीं होना चाहिए था, लेकिन सत्ता का आकर्षण बड़ा घातक होता है. इससे बचना मुश्किल है, सो पार्टी भी बदल गई है और उसी रास्ते पर चलने लगी है जिस पर इतने सालों से कांग्रेस चल रही है. आगे क्या होगा, कहना मुश्किल है. लेकिन इतना तय है कि यह रास्ता बहुत लंबा नहीं जाता.