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Opinion: थम गया कोलाहल, मुक्ति मिली शोरशराबे से

आखिरकार कोलाहल और अभूतपूर्व शोरशराबे से देश को मुक्ति मिल गई. चुनाव प्रचार खत्म हो गए हैं. 7 अप्रैल से शुरू हुए नौ चरणों वाले इस लंबे चुनाव का प्रचार भी घनघोर था. चुनाव की अवधि लंबी थी तो जाहिर है प्रचार भी लंबे समय तक और जमकर हुआ. हैरानी की बात यह रही कि इतने सारे मुद्दे रहते हुए भी चुनाव प्रचार शोरगुल और हंगामे की बलि ही चढ़ता रहा.

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नरेंद्र मोदी
नरेंद्र मोदी

आखिरकार कोलाहल और अभूतपूर्व शोरशराबे से देश को मुक्ति मिल गई. चुनाव प्रचार खत्म हो गए हैं. 7 अप्रैल से शुरू हुए नौ चरणों वाले इस लंबे चुनाव का प्रचार भी घनघोर था. चुनाव की अवधि लंबी थी तो जाहिर है प्रचार भी लंबे समय तक और जमकर हुआ. हैरानी की बात यह रही कि इतने सारे मुद्दे रहते हुए भी चुनाव प्रचार शोरगुल और हंगामे की बलि ही चढ़ता रहा. काम की बातें इतनी कम हुई कि हैरानी होती रही कि क्या हमारे नेताओं के पास मुद्दों की कमी है.

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देश पर लगभग छह दशक तक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस अपना लेखा-जोखा बताने की बजाय अनावश्यक आलोचना में लगी रही तो बीजेपी ने भी यही रुख अख्तियार किया. आम आदमी पार्टी जिसका अभी हाल में ही जन्म हुआ है, उसने भी कोई कसर नहीं छोड़ी. क्षेत्रीय दलों जैसे सपा, राजद, तृणमूल, बसपा वगैरह ने भी कम शोर नहीं मचाया. सबने ऐसे-एसे शब्द इस्तेमाल किए, विरोधी पार्टी के नेताओं को ऐसी-ऐसी उपमाएं दी कि शर्म से सिर झुक गया. लगा नहीं कि हम एक पढ़े-लिखे देश के नागरिक हैं और यहां लोकतंत्र छह दशकों से भी ज्यादा समय से जड़ें जमाए बैठा है. लेकिन इस चुनाव के प्रचार के दौरान तो उसकी चूलें हिलाने की पूरी कोशिश हुई.

भारत के इतिहास में किसी चुनाव के प्रचार के दौरान इतना शोरगुल कभी नहीं हुआ और सभी दलों ने जमकर शोर मचाया. चुनाव आयोग के नियमों की धज्जियां उड़ाने में किसी ने देर नहीं लगाई. राक्षस, हत्यारा, खूनी, खून का प्यासा, लुटेरा, गधा जैसी शर्मनाक उपमाएं देने से नेता बाज नहीं आए. यह शोक और दुख का विषय है और हमारे लोकतंत्र के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगाता है. हमारे नेताओं और राजनीतिक दलों ने जितना विष वमन किया उतना तो समुद्र मंथन से भी नहीं निकला होगा. सारी दुनिया ने उनकी छिछोरी बातें भी सुनीं और अपनी राय भी बनाई होगी.

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खैर, चुनाव प्रचार का अंत हो चुका है. सभी नेता अपने-अपने घोंसलों की ओर रवाना हो गए हैं. अब उनकी आवाज कुछ दिनों तक सुनने को नहीं मिलेगी. देश में एक शांति फैलेगी जो निहायत ही जरूरी है. लेकिन क्या कोई नेता या दल आत्म मंथन करेगा कि उसने क्या और कहां गलत बातें कही? चुनाव प्रचार में बढ़ा चढ़ाकर बातें करना कोई नई बात नहीं है लेकिन इस तरह से गिरकर बातें करना वाकई शर्मिंदा करता है. बहरहाल उम्मीद यही की जानी चाहिए कि इस भयानक शोर-शराबे से निकले स्वरों का असर मतदाताओं पर नहीं पड़ा होगा. वे स्वतंत्र होकर आरोप-प्रत्यारोपों से दूर एक बेहतर भविष्य के लिए सही उम्मीदवारों को वोट देने का फैसला कर चुके होंगे. इसी में लोकतंत्र की जीत है. लेकिन यह सवाल बना रहेगा कि नेताओं को शिष्टाचार कौन सिखाएगा?

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