लोकसभा चुनाव आ चले हैं, उम्मीदवारों की सूची एक के बाद एक जारी हो रही है. सभी पार्टियां जल्दी में हैं और सभाओं-रैलियों की तो लाइन लग गई है. हर शहर में चुनाव की रणभेरी बज रही है. लेकिन यह सवाल अपनी जगह अनुत्तरित खड़ा है कि इस महत्वपूर्ण चुनाव में आखिर मुद्दा क्या है? मतलब इस चुनाव में देश के लिए क्या होगा? इस सवाल का जवाब न तो कांग्रेस दे रही है और न मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी. और तो और भ्रष्टाचार को जड़ से मिटा देने का दावा करने वाले आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल.
अभी तो जो कुछ दिखता है उससे लगता है कि इस चुनाव में दो ही बातें हैं, विरोध या समर्थन. यानी नरेन्द्र मोदी का विरोध या समर्थन या फिर राहुल गांधी का विरोध या समर्थन. ठोस मुद्दे जैसे भ्रष्टाचार, महंगाई, मंदी वगैरह तो कहीं सुने ही नहीं जा रहे हैं. ये मुद्दे समर्थन और विरोध के कोलाहल में दब से गए हैं.
"उसे हराइए, देश को बचाइए", लगता है यही इस बार बड़ा मुद्दा है और देश में कुछ बचा नहीं है. कैसे देश से भ्रष्टाचार दूर होगा, कैसे महंगाई घटेगी और कैसे विकास के पहिए और तेज गति से दौड़ेंगे, इन पर तो खुलकर बातें भी नहीं हो रही है.
अरविंद केजरीवाल विधान सभा चुनाव में इस पर बातें करते थे, बहस करते थे लेकिन इस बार उनके दिलो दिमाग में बस नरेन्द्र मोदी है. वे बस उन्हें हराना चाहते हैं जैसे कि उससे ही देश की तमाम समस्याएं खत्म हो जाएंगी. उधर नरेन्द्र मोदी हैं कि उन्हें कांग्रेस और राहुल से आगे नहीं सूझ रहा है, उनका भी यही ख्याल है कि इससे ही देश में खुशहाली छा जाएगी. कैसे देश से भ्रष्टाचार को दूर किया जा सकेगा, कैसे महंगाई मिटाई जाएगी और कैसे अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आएगी, इस पर विस्तार से वह क्यों नहीं चर्चा करते? कांग्रेस है कि अपने घिसे-पिटे जनलोकपाल विधेयक की बात उठाकर ही खुश है. क्षेत्रीय पार्टियों का तो बुरा हाल है, वे तो अपनी स्शिति मजबूत करने में लगी हुई हैं ताकि चुनाव के बाद सौदा करने में आसानी हो.
कुल मिलाकर लोकतंत्र के लिए यह शुभ चिन्ह नहीं है. एक जीवंत और प्रगतिशील लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है कि मुख्य मुद्दों पर हर दल हर वक्त चर्चा करे. दूसरों की बुराई करके वे देश का भला नहीं कर सकते. वे कह सकते हैं कि उनके घोषणा पत्र में ये बातें हैं. लेकिन घोषणा पत्र में तो बहुत सी बातें होती हैं और उनका हवाला देकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता. असल में हर पार्टी के बड़े नेता को हर सभा में उन बड़े मुद्दों पर बात करनी चाहिए और जनता को यह भी बताना चाहिए कि कैसे उनसे पार पाया जा सकेगा. यही एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है, दूसरों की आलोचना-प्रशंसा तो होती रहेंगी.