दस वर्षों के बाद सांसद राहुल गांधी वोटिंग के दिन अपने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में हैं. यह लोकतंत्र की बहुत बड़ी जीत है. वो नेता जो मतदाताओं को बहुत हल्के में लेते रहे हैं, अब उन्हें गंभीरता से ले रहे हैं और उन्हें पूरा महत्व दे रहे हैं. वो बड़े नेता जो यह मतदाताओं को अपनी संपत्ति मानते थे, इस बार घर-घर जाकर वोट मांगते दिखे.
उन्हें एक-एक वोट के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है और उन्हें मतदाताओं को आश्वस्त करना पड़ रहा है. इतना सघन और घनघोर किस्म का चुनाव प्रचार अतीत में कभी देखने को नहीं मिला था. बड़े नेताओं ने अपनी पूरी ताकत तो लगाई ही, वे वोटरों के पास खुद गए और उनकी बातें सुनी. यह बात जुदा है कि वे बाद में भले ही अपने चुनाव क्षेत्र में ना दिखें, लेकिन इतना तय है कि इस बार के अनुभव ने उन्हें सिखला दिया होगा कि जनता को हमेशा हल्के में नहीं लिया जा सकता है और अब उन पर आंखें मूंदकर भरोसा भी नहीं किया जा सकता क्योंकि जनता अब जाग चुकी है. वह सवाल पूछने लगी है और जवाब भी मांगने लगी है.
यह लोकतंत्र के परिपक्व होने का सबूत है और यह जताता है कि मतदाता अपने अधिकारों के प्रति सतर्क होने लगे हैं. छह दशकों के लोकतंत्र का हमारा अनुभव हमें आगे की दिशा दे रहा है और यह शुभ संकेत है. हालांकि बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. अभी भी वोटिंग में जाति और धर्म की बड़ी भूमिका है और यह देश के स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है. इन दोनों की जंजीरों में जकड़ा लोकतंत्र आगे नहीं बढ़ सकता है लेकिन राजनीतिज्ञ अपने निजी फायदे के लिए इन्हें बढ़ावा दे रहे हैं.
बहरहाल अब इस चुनाव में कोई भी जीते, एक बात तो पक्की हो चुकी है कि हालात बदल गए हैं और पहले की तरह मतदाताओं को अपना वोट बैंक समझना अब बेवकूफी होगी. राहुल गांधी का इस बार अमेठी में ऐन चुनाव के दिन डेरा डाले रहना इस ओर ही इंगित करता है.