एनसीपी के नेता शरद पवार भारतीय राजनीति के उन चुनिंदा खिलाड़ियों में हैं जो सत्ता के खेल की बारीकियों को समझते हैं. सत्ता में कैसे बने रहा जाए, भला उनसे बेहतर यह कौन जान सकता है? उन्होंने हमोशा सधी हुई राजनीति की है ताकि राजसत्ता का सुख भोग सकें.
अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए वह कई तरह के काम करते रहते हैं. कई बार अपनी सहयोगी पार्टी को अंधेरे में रखकर शिवसेना और यहां तक कि मनसे के नेताओं से भी मिलते रहे हैं. ऐसा नहीं है कि प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के नेताओं से मिलना या उनसे बातचीत करना कोई गलत बात है, लेकिन उनका अंदाज निराला और कुछ रहस्यमय सा होता था. वह उन बैठकों के जरिये हमेशा कुछ जताने की कोशिश करते रहे हैं. यानी हर कदम पर राजनीति!
पिछले दिनों उन्होंने बीजेपी के प्रति अपना झुकाव प्रदर्शित किया, मोदी के प्रति कुछ नरम से दिखे. ऐसा लगा कि वह कुछ संकेत दे रहे हैं. और शायद इसलिए उद्धव ठाकरे को स्पष्ट रूप से कहना पड़ा कि पवार के लिए एनडीए में कोई जगह नहीं है. अपनी सहयोगी पार्टी पर दबाव बनाकर पवार अब पलट गए हैं. अब वे कांग्रेस के प्रति वफादार हो गए हैं. इसका ही नतीजा है कि वह नरेन्द्र मोदी पर बरस रहे हैं. वह कह रहे हैं कि मोदी का मानसिक चिकित्सालय में इलाज कराना चाहिए. इतना ही नहीं वह बढ़-चढ़कर कांग्रेस की प्रशंसा कर रहे हैं.
वह मोदी को स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के योगदान के बारे में बता रहे हैं. यानी अब वह फिर से अपने पुराने सखा के साथ हो गए हैं. लेकिन सवाल उठता है कि जब कांग्रेस इतनी ही महान पार्टी है तो शरद पवार इसे छोड़कर क्यों चले गए? और उन्होंने अपनी पार्टी क्यों बना ली? दूसरों को इस डेढ़ सौ साल पुरानी पार्टी के बारे में बताना उनके लिए क्यों जरूरी हो गया?
जहां तक किसानों की बात है तो शरद पवार ने उन्हें बचाने के लिए क्या किया? गुजरात में किसानों ने तो आत्महत्या की ही है, लेकिन पवार का गृह राज्य महाराष्ट्र तो इसमें अव्वल है. कृषि मंत्री के रूप में उनका परफॉर्मेंस कैसा रहा, क्या वह बताने का कष्ट करेंगे? मानसून पर टिकी भारतीय कृषि व्यवस्था को आत्म निर्भर बनाने के लिए उनके विभाग ने क्या किया?
मतलब यह है कि पवार के पास अब बोलने के लिए ऐसा कुछ नहीं है जिससे वह कुछ माइलेज ले सकें. इसलिए वह फिर से कांग्रेस के हमलावर काफिले में शामिल हो गए हैं. शालीनता छोड़कर वह भी बेहद हल्की बातें करने लगे हैं. पवार उन तमाम नेताओं की कतार में शामिल हो गए हैं जो हल्की या सस्ती बातें करते हैं. अब यह चुनाव है ही ऐसा कि यहां बड़े-बड़ों की बोली बदल जाती है.