फर्ज कीजिए चार महीने पहले यानी लोकसभा चुनाव के साथ ये जुड़वां चुनाव होते तो क्या होता. महाराष्ट्र की अंकतालिका होती कुछ इस तरह- बीजेपी 144, शिवसेना 108, एनसीपी 24 और कांग्रेस 12. इसी तरह हरियाणा का स्कोरबोर्ड होता- बीजेपी 63, आइएनएलडी 18 और कांग्रेस 9. आप पूछेंगे क्यों. तो इसका जवाब है कि लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दौरान इन प्रदेशों में सभी पार्टियों ने इसी अनुपात में लोकसभा सीटें जीती थीं. महाराष्ट्र में कांग्रेस को दो और हरियाणा में महज 1 लोकसभा सीट पर कामयाबी से संतोष करना पड़ा था.
लेकिन चार महीने बाद नतीजे बदल गए हैं. बीजेपी 144 नहीं 110 के आसपास है और कांग्रेस 12 नहीं 40-50 के आसपास है. शिसवेना 108 की जगह 50-60 के बीच झूल रही है और शरद पवार की पार्टी का कांटा भी 50 पर टक्कर मार रहा है. महाराष्ट्र में चार महीने में ऐसा क्या बदल गया? कम से कम कांग्रेस ने कोई ऐसा महान काम तो नहीं किया कि चार महीने में उसकी संभावित सीटों में 350 फीसदी का इजाफा हो जाए. और मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह बदनाम हो चुकी एनसीपी 2009 के स्तर से थोड़ी ही नीचे आए.
तो फिर बदला क्या है! बदला है वो जुनून जो लोकसभा चुनाव के समय था. नरेंद्र मोदी की आक्रामक रैलियां, केंद्र की राजनीति में उनकी कुंवारी छवि और एक बेहद आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान. उनके सामने किसी प्रतिद्वंद्वी का न होना. कहने को राहुल गांधी थे, लेकिन वे बस कहने को ही थे. उस चुनाव में जब हम पत्रकार गांवों से गुजरते हुए शहर दर शहर घूमते थे तो मोदी-मोदी की सनसनी हवा में घुली थी. शायद वह सनसनी चार महीने में उतर गई है.
मोदी अब लोकप्रिय नेता हैं. लेकिन लहर, आंधी या सुनामी नहीं हैं. लोकतंत्र के लिए यह अच्छा संकेत है. जरा याद कीजिए पिछला अक्टूबर. तब मोदीजी को हल्दी चढ़ी थी. बीजेपी ने कहा था कि प्रधानमंत्री पद के लिए वही उसके वर हैं. उसके बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनाव में जनता ने विपक्ष को एक-एक सीट के लिए तरसा दिया.
छत्तीसगढ़ में उम्मीद थी कि जीरम घाटी में मरे कांग्रेसी नेताओं की सहानुभूति जैसी कोई लहर होगी लेकिन मोदी लहर के आगे कोई लहर नहीं चली. बीजेपी ने दिल्ली भी फतह कर ही ली थी, वो तो बीच में केजरीवाल का नया प्रयोग सामने खड़ा हो गया. उसके बाद लोकसभा में तो उत्तर भारत के सारे क्षत्रप तिनकों की हैसियत में आ गए. मोदीजी की ऐसी बाढ़ आई जैसी कभी इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की आई थी.
लेकिन जब यह आक्रामक प्रचार अभियान खत्म हुआ तो लोकसभा के बाद हुए सभी उपचुनाव बीजेपी एक के बाद एक हारती चली गई. इसके लिए कम वोटर टर्नआउट को भी एक वजह माना गया. साथ ही यह भी कहा गया कि जनता को लग रहा है कि वह कुछ ज्यादा मोदीमय हो गई है, इसलिए तो सजग रहना जरूरी है.
ऐसे में महाराष्ट्र और हरियाणा का जनादेश स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत है. लोगों ने पार्टी को सिर्फ वोट दिया है, कलेजा निकालकर नहीं रख दिया है. विपक्ष के लिए भी गुंजाइश छोड़ी है. यह बहुत जरूरी है क्योंकि पूरे दुनिया के लोकतंत्र का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि जिसे आप हराते हैं अगले पांच साल तक वही आपका ज्यादा बड़ा हितैषी दिखाई देता है.
संसद में जनता की आवाज कभी सत्ता पक्ष नहीं उठाता, विपक्ष उठाता है. शायद इसी आवाज ने राम मनोहर लोहिया, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और शरद यादव को जनप्रिय नेता बनाया जबकि उस समय जनता बहुमत नेहरू, इंदिरा या राजीव को देती थी. जनता लोकतंत्र की इस उलटबांसी को दिल से लगाए रहेगी लोकतंत्र मजबूत होता रहेगा.