scorecardresearch
 

राजनीति में राष्ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ की जबरदस्त वापसी

साल 2014 का लोकसभा चुनाव देश की राजनीति के लिए कई मायनों में खास है. लेकिन इन सब के बीच जो एक खास बात नजर आ रही है वह है राष्ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ की एक राजनीतिक शक्ति के रूप में वापसी. जबकि विडंबना यह है कि आरएसएस खुद को एक राजनीतिक कलाकार के रूप में नहीं देखता.

Advertisement
X
मोहन भागवत की फाइल फोटो
मोहन भागवत की फाइल फोटो

साल 2014 का लोकसभा चुनाव देश की राजनीति के लिए कई मायनों में खास है. फिर चाहे वह आम आदमी पार्टी का उदय हो या बनते-बिगड़ते रिश्‍तों की बानगी. लेकिन इन सब के बीच जो एक खास बात नजर आ रही है वह है राष्ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ (आरएसएस) की एक राजनीतिक शक्ति के रूप में वापसी. जबकि विडंबना यह है कि आरएसएस खुद को एक राजनीतिक कलाकार के रूप में नहीं देखता. संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन मानता है, जिसका लक्ष्य है राष्ट्रवाद को बढ़ाना और मूल तत्व है हिन्दू धर्म की रक्षा.

Advertisement

मौजूदा दौर में आरएसएस जिस मुकाम पर है यकीनन यह रास्ता आसान नहीं था. यह प्रक्रिया पिछले दशक में अच्छी तरह काम करती रही, खासकर 2004 में पार्टी की हार के बाद से. इस दौरान कुछ ऐसी बातें भी हुईं जो इसमें काफी मददगार रहीं, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी का बिस्तर पकड़ लेना, प्रमोद महाजन की आकस्मिक मृत्‍यु और लाल कृष्ण आडवाणी का जिन्ना की तारीफ करके खुद को मुसीबत में डालना. लेकिन इस ओर असली बदलाव 2009 में आया जब प्रभावहीन केएस सुदर्शन को सरसंघचालक के पद से हटाकर मोहनराव भागवत को संगठन का प्रमुख बनाया गया.

मोहनराव भागवत के अध्‍यक्ष बनने के बाद आरएसएस ने बड़ी योजनाबद्ध तरीके से बीजेपी का नियंत्रण अपने हाथों में लिया और 2009 में पार्टी की असफलता के बाद नितिन गडकरी को पार्टी का अध्यक्ष बनवा दिया. भागवत 2000 से ही आरएसएस के नंबर दो रहे. उन्होंने वाजपेयी काल में बीजेपी को सत्ता के शिखर पर देखा था. उन्हें यह मालूम था कि संघ की वाजपेयी के सामने चलती नहीं थी. वाजपेयी ने संघ के ज्यादातर नेताओं को बट्टे खाते में डाल दिया था. यहां तक कि सुदर्शन की भी उपेक्षा करते थे.

Advertisement

शिष्‍यों ने बढ़ाई भागवत की ताकत
संघ में भागवत की सर्वोच्चता कभी सवालों के घेरे में नहीं रही. लेकिन अपने शिष्यों सुरेश (भय्या जी) जोशी दत्तात्रेय होसाबले और सुरेश सोनी के कारण उनकी ताकत और बढ़ी. होसाबले और सोनी अपने बौद्धिक कार्यों के लिए जाने जाते हैं. वे बेहतरीन आयोजकों और रणनीतिकारों में रहे हैं. वे राजनीतिज्ञों की तरह काम नहीं करते. यही भूमिका आरएसएस की भी है, एक शिक्षक की, न कि राजनीतिक खिलाड़ी की.

इन तीनों ने पहले तो दिल्ली की तिकड़ी लाल कृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और मुरली मनोहर जोशी को किनारे किया. दिल्ली के चौथे बड़े नेता अरुण जेटली को दूसरी बड़ी योजना का हिस्सा बनाया गया. योजना राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाने की थी. इसके साथ ही पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता नरेन्द्र मोदी को अपनी विश्वसनीय टीम में शामिल करना. इन सभी में संघ को जबर्दस्त सफलता मिली. यह इसी योजना का नतीजा था कि आज मोदी के नेतृत्व में बीजेपी इतिहास की सबसे बड़ी सफलता के दरवाजे पर खड़ी है.

मोदी से लाभ भी, समस्‍या भी
दरअसल, इसका मतलब यह भी नहीं कि आरएसएस अजेय है या उसे अपना भाग्य गढ़ने से रोका नहीं जा सकता. समस्या है कि इतिहास यांत्रिक नहीं होता और न ही मनुष्यों द्वारा बनाया जाता है. मार्क्स ने कहा था कि मानव अपना इतिहास तो बनाता है लेकिन वैसा नहीं जैसा वह चाहता है.

Advertisement

अब हमारे सामने नरेन्द्र मोदी हैं. वह पक्के संघी हैं. वह संघ के हिन्दू राष्ट्रवाद के कट्टर समर्थक हैं. लेकिन साथ ही उनकी अपनी इच्छाएं हैं और वह निरंकुश भी हैं जो आरएसएस को कई बार पसंद नहीं आता है. यह सर्वविदित है कि गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उनके पास न तो आरएसएस के लिए और न तो विश्व हिन्‍दू परिषद के लिए समय था.

संघ को यह पता है कि यह चुनाव मोदी के एजेंडे पर लड़ा जा रहा है और इसमें विकास और सुशासन की बात की जा रही है. जाति और धर्म इसमें गौण हैं. लेकिन वह इस पर शिकायत नहीं कर सकती क्योंकि मोदी को अभूतपूर्व ढंग से बीजेपी के वोट मिल रहे हैं और यह वही बीजेपी है जिसके बारे में संघ की सोच है कि वह उसके नियंत्रण में है.

जाहिर है ऐसे में मोदी को तब तक संघ परिवार की जरूरत है जब तक वह प्रधानमंत्री नहीं बन जाते. सरकार जो संभवतः गठबंधन सरकार होगी, की जरूरतों के अनुसार उन्हें काम करना ही होगा. ऐसे में भारत पर राज करने में उन विचारों से उनका टकराव होगा ही जो एक दूसरे तरह के भारत का सपना देखते हैं. यह सबक तब मिल चुका है जब संघ के अन्य प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने थे.

Advertisement
Advertisement