अगर अंदर की बात बाहर न आकर अंदर के लोगों तक ही वापस पहुंच जाए, तो न जाने कितनों को बाहर का रास्ता देखना पड़े. ऐसा वक्त-वक्त पर होता भी रहा है, लेकिन राजनीति ठेठ घाघ किस्म के लोगों की बपौती है. अच्छे शब्दों में कहें, तो खांटी राजनीतिज्ञों की जागीर. कमाल की बात यह कि जिस देश में कोस-कोस पर भाषा बदलती है और प्रांत-प्रांत में मौसम, वहां राजनीति के वरदान से हर राज्य में लगभग एक-सा मौसम है- चुनावी मौसम, जिसमें रूठने-मनाने, भागने-भगाने राह ताकने और रास्ता दिखाने का सिलसिला जारी है.
दिल्ली में AAP ने बढ़त ली है अपने उम्मीदवार घोषित करके, सो कांग्रेस-बीजेपी परेशान हैं कि काट क्या हों. चलिए बीजेपी के अंदर की आपको बताए देते हैं. समझने के लिए शब्दावली समझना भी जरूरी है- 'पैराशूट कैंडिडेट'. ये वो कैंडिडेट होते हैं, जिनका चुनाव होने से अगले चुनाव के वक्त तक कार्यकर्ताओं को कोई इल्म भी नहीं होता, और न ही दर्शन. तो बीजेपी कार्यकर्ता नाराज हैं 'पैराशूट कैंडिडेट' पर. इनमें पहला नंबर है सुब्रह्मण्यम स्वामी का, जिन्हें नई दिल्ली लोकसभा सीट से टिकट मिलने की संभावना है. कार्यकर्ता नाराज हैं कि बाहरी उम्मीदवार होगा, तो पार्टी पहले से ही हार तय माने.
दूसरे नंबर पर महेश गिरी हैं, जिनको पूर्वी दिल्ली से संदीप दीक्षित के खिलाफ उतारने का मन नितिन गडकरी लगभग बना ही चुके हैं. लेकिन इनको लेकर भी पूर्वी दिल्ली के कार्यकर्ताओं में नाराजगी इतनी है कि बड़ी ही स्मार्ट भाषा में पार्टी को अपना संदेश एक पोस्टर के जरिए पंहुचा दिया. अब आप मतलब निकालते रहिए. नलिन कोहली की चांदनी चौक से दावेदारी पर भी विरोध है. विजेंद्र गुप्ता भी दावेदारी ठोक रहे हैं.
पत्रकार एमजे अकबर और रविशंकर प्रसाद नॉर्थ ईस्ट के लिए उम्मीदवारी के मुकाबले हैं, लेकिन लाल बिहारी तिवारी इतनी आसानी से अपने इलाके में बाहरी को आने नहीं देना चाहते. हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए दलित नेता उदित राज के नाम पर पार्टी नॉर्थ-वेस्ट दिल्ली सीट के लिए विचार कर रही है. पश्चिमी दिल्ली के लिए पूर्व विदेश सचिव हरदीप पुरी के नाम की वकालत बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी कर रहे हैं.
कुल मिलाकर, इनमें से एक भी नाम बीजेपी कार्यकर्ताओं को ऐसा नहीं लगता, जिसने दिल्ली की राजनीति में बीजेपी नेता के तौर पर अपना नाम रोशन किया हो. सबसे मजे की बात...डॉ. हर्षवर्धन को लेकर चर्चा है कि जब-जब प्रदेश की कमान संभालते हैं, कोइ न कोइ बैन लगा देते हैं या लग जाता है. पिछली दफा पार्षदों के विधानसभा चुनाव लड़ने पर रोक लग गई थी. अब विधायकों को लोकसभा के लिए लड़ने पर बैन है. संयोग देखिए, डॉ. हर्षवर्धन मुख्यमंत्री भी तब ही न बन पाएंगे, जब दिल्ली के विधायक होंगे.