वाराणसी में बीजेपी के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को रैली की अनुमति नहीं मिलने पर जिस तरह की हाय तौबा मची, उसकी कोई तारीफ नहीं की जा सकती. यह महज प्रशासनिक फैसला था जिसका जमकर राजनीतिकरण किया गया. धरना-सत्याग्रह जैसे कदम भी उठाए गए. इसके साथ ही जबर्दस्त बयानबाजी भी की गई. बीजेपी के तमाम नेता एक सुर में आलोचना करने लगे. लोकतंत्र में यह सब जायज है लेकिन यह सब शालीनता और सद्भाव के दायरे से बाहर हैं और इनकी कोई जरूरत नहीं थी.
एक बयान मात्र से भी काम चल सकता था. लेकिन शायद बीजेपी के नेता इस बहाने शक्ति प्रदर्शन करना चाहते थे. उन्होंने यह किया भी. लेकिन इससे शायद ही उन्हें कुछ मिला होगा. इस तरह के अतिवादी और भावुकता पूर्ण कदम माहौल को बिगाड़ते हैं.
वाराणसी एक विशिष्ट धार्मिक नगर है और यहां का वातावरण कभी भी तनाव पूर्ण नहीं होता, ऐसे में इस करह के कदमों से क्या संदेश गया?
जेपी के नेताओं ने इससे आखिर क्या साबित किया?
इस तरह के कदमों से क्या पार्टी के पीएम कैंडिडेट नरेन्द्र मोदी की छवि पर असर नहीं पड़ता?
अगर पार्टी उन्हें प्रधान मंत्री के पद पर देखना चाहती है तो अभी से उनकी छवि बनाने की बजाय उसे धूमिल करने का प्रयास क्यों कर रही है?
नरेन्द्र मोदी का कद काफी बड़ा है और वह देश के सबसे बड़े राजनीतिक नेताओं की सूची में शुमार हो चुके हैं तो फिर इस तरह की कवायद की क्या जरूरत है?
ऐसा लगता है कि पार्टी कहीं न कहीं से भ्रमित है. आखिर लोकतंत्र और भीड़तंत्र में फर्क तो है ही.
अब जबकि चुनाव का लंबा दौर समाप्ति की ओर है, इस तरह के विवादों और अनावश्यक हठ से कुछ नहीं मिलेगा. अब तो जरूरत है सामाजिक सद्भाव की, जो इस चुनाव में देखने को नहीं मिला. चुनाव तो खत्म हो जाएंगे लेकिन बिगड़ा हुआ माहौल ठीक होने में महीनों या शायद वर्षों लग जाएं. इसलिए जरूरी है कि इस तरह के जज्बाती कदम उठाने की बजाय पार्टी माहौल बनाने का काम करे. अगर उसने चुनाव जीता तो यह उनके ही काम आएगा. किसी चीज को बिगाड़ना तो आसान है, बनाने में बहुत वक्त लगता है, खास कर मानवीय रिश्ते.