अट्ठाइस राज्यों और विधानसभा युक्त दो केंद्रशासित प्रदेशों वाले देश में यह अचरज ही है कि सिर्फ दो राज्य अपने मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और विधायकों की संपत्ति और देनदारियों का ब्यौरा पा सके. लेकिन सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के तहत हर मुख्यमंत्री कार्यालय और विधानसभा सचिवालय को भेजी गई अर्जी से यही पता चला है.
केंद्रीय मंत्रियों के लिए जो आचार संहिता है, उसके मुताबिक हरेक मंत्री को खुद के और उसके जीवनसाथी, पुत्र-पुत्रियों की संपत्ति और देनदारियों के ब्यौरे देने पड़ते हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा तैयार यह आचार संहिता राज्यों को भी संदर्भित है. बीते अगस्त, 2004 से संसद के दोनों सदनों के सदस्यों को भी ऐसे ब्यौरे देने पड़ते हैं. लेकिन मुख्यमंत्रियों के कार्यालयों और विधानसभाओं में हमें बीते जून से 125 से ज्यादा आवेदन, अपीलें, स्पष्टीकरण और स्मरण पत्र यह जानने के लिए भेजने पड़े कि केंद्र और संसद जैसी व्यवस्था राज्य सरकारों और विधानसभाओं में भी है या नहीं. दिलचस्प है कि सिर्फ गुजरात और केरल के मुख्यमंत्री ही अपने मंत्रियों की संपत्ति और देनदारियों के ब्यौरे हासिल कर सके हैं. हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड के मुख्यमंत्रियों ने अपनी असहायता दर्शाई कि मंत्रियों को बार-बार स्मरण पत्र -कुछ मंत्रियों को 10 तक- भेजने के बावजूद वे ऐसे ब्यौरे नहीं पा सके. चलिए, इन लोगों ने कोशिश तो की, अनेक राज्यों को भेजे गए आरटीआइ आवेदनों का तो कोई जवाब ही नहीं मिला और कुछ राज्य तो अभी तक इससे कन्नी काटते आ रहे हैं.
पारदर्शिता की स्तब्ध कर देने वाली कमी के दौर में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और केरल के मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतनंदन के जवाब सुखद लगे. मोदी ने पिछले साल 30 जनवरी को एक कैबिनेट बैठक में मंत्रियों से ब्यौरा देने को कहा, और उनके कार्यालय द्वारा दिए गए जवाब के मुताबिक हरेक मंत्री ने ब्यौरे दे दिए हैं. अच्युतनंदन के कार्यालय ने भी केरल लोक आयुक्त कानून, 1999 की धारा 22 के तहत मंत्रियों से संपत्तियों-देनदारियों का ब्यौरा हासिल कर लिया है. लेकिन इस तरह के बस ये दो ही राज्य हैं.
हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने पिछले साल 28 जनवरी को अपने मंत्रियों को ब्यौरा देने के निर्देश दिए थे, लेकिन बीते 4 अगस्त- हमारी अर्जी का जवाब देने की तारीख- तक सिर्फ चार मंत्रियों ने ही बात मानी. इसी तरह, उत्तराखंड में मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी के दफ्तर ने बताया गया कि 13 सितंबर, 2007 को जारी उनके निर्देश पर बीते 1 अगस्त तक सिर्फ एक ही मंत्री ने ब्यौरा दिया- राजेंद्र भंडारी ने. हरियाणा में भी मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के प्रयासों के बावजूद पांच मंत्रियों को अभी ब्यौरा देना है. इनमें ऊर्जा मंत्री रणदीप सिंह सुरजेवाला ने तो मुख्यमंत्री कार्यालय से 9 स्मरण पत्रों के बावजूद ब्यौरा नहीं दिया और पूर्व उप-मुख्यमंत्री चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद (जो अब मंत्रिमंडल में नहीं हैं) का भी यही हाल था. एक अन्य मंत्री किरण चौधरी को भी आधा दर्जन स्मरण पत्र दिए जा चुके.
{mospagebreak}महाराष्ट्र में तो एक-दूसरे के पाले में गेंद फेंकने का यह खेल और भी रोचक रहा. मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) ने हमारी अर्जी सामान्य प्रशासन विभाग को भेजी तो उसने यह कहकर वापस कर दी कि जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत मंत्रियों को संपत्ति और देनदारियों का ब्यौरा हर साल मुख्यमंत्री को देना होता है, ''यदि मंत्रियों ने ऐसे ब्यौरे दिए होंगे तो सीएमओ के पास निश्चित रूप से यह जानकारी होगी.'' पर सीएमओ से अंतिम जवाब अभी नहीं मिला.
दरअसल, चुनाव आयोग तो मंत्रियों को चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता से बांधे रख सकता है, दूसरा कोई ताकतवर महकमा नहीं है जो मंत्री के नाते नेताओं से उस आचार संहिता का पालन करवाए जिसके मुताबिक, ''मंत्रियों को प्रधानमंत्री या संबंधित मुख्यमंत्री को अपनी अचल संपत्ति और शेयरों तथा डिबेंचरों का कुल मूल्य, आभूषण, नकदी का ब्यौरा'' देना चाहिए. लेकिन राज्यों के कुल 600 से अधिक मंत्रियों में से अधिकांश से इस पर पालन करवाने की कोई व्यवस्था नहीं है. जबकि अधिकतर केंद्रीय मंत्री इस आशय का ब्यौरा प्रधानमंत्री कार्यालय को येन-केन-प्रकारेण दे ही देते हैं.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले ही मंत्रियों को गांवों की असलियत से रू-ब-रू करा रहे हों, लेकिन उनकी आय और देनदारियों का ब्यौरा लेने की पहल नहीं की. उनके कैबिनेट सचिवालय ने विचित्र-सा जवाब दिया, ''ऐसी जानकारी मुहैया कराना संभव नहीं है.'' वहीं कुछ राज्यों ने चुप्पी में ही भलाई समझी. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के कार्यालय ने पिछले साल 30 जून को अर्जी प्रमुख सचिव, गृह और गोपन विभाग को भेज दी, पर आधा दर्जन स्मरण पत्रों के बावजूद कोई जवाब नहीं मिला और सीएमओ ने कन्नी काट ली. चुप्पी साधने वाले दूसरे सीएमओ हैं आंध्र प्रदेश, गोवा, झारखंड, ओडीसा, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और प. बंगाल.
कई राज्यों ने चुप्पी के बजाए साफगोई बरती कि उनके यहां कोई व्यवस्था नहीं है. मसलन, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के कार्यालय ने साफ कर दिया कि ''मुख्यमंत्री ने मंत्रियों को अपनी संपत्तियों और वित्तीय देनदारियों के बारे में ब्यौरा देने संबंधी कोई निर्देश नहीं दिए हैं.'' पुडुचेरी के मुख्यमंत्री वैद्यलिंगम का कार्यालय तो और भी मुंहफट निकला, ''मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों से संपत्तियों का ब्यौरा देने को कहने के लिए बाध्य नहीं हैं. सो, जानकारी देने का सवाल ही नहीं उठता.'' दिल्ली में शीला दीक्षित के कार्यालय से दो-टूक जवाब मिला, ''ऐसी कोई जानकारी इस कार्यालय में उपलब्ध नहीं है.'' सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग के कार्यालय ने अलग तरीका अपनाया और सलाह दी कि ''मांगे गए ब्यौरे के लिए चुनाव आयोग की वेबसाइट देखें.''
{mospagebreak}चकमा देने के इस खेल में उत्तर-पूर्व के राज्य अपवाद नहीं थे. असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने मंत्रियों को पत्र भेजा, ''मंत्रिमंडल के सदस्यों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा जल्द से जल्द देना है.'' असल में यह पत्र उन्हीं दिनों भेजा गया जब उनके दफ्तर में हमारी आरटीआइ अर्जी पर विचार चल रहा था. उधर त्रिपुरा में माणिक सरकार के सचिवालय का कहना था कि त्रिपुरा विधानसभा ने त्रिपुरा विधायिका (संपत्तियों और वित्तीय देनदारियों की घोषणा) कानून, 2006 के तहत ही जानकारी मांगी है, इस तरह मुख्यमंत्री ने मंत्रियों से उनकी संपत्ति और देनदारियों का अलग से ब्यौरा मांगने की जरूरत नहीं समझी.
कुछ ऐसा ही जवाब अरुणाचल का था. उधर, मिजोरम के मुख्यमंत्री पी. जोरमथंगा के कार्यालय ने बताया कि, ''मुख्यमंत्री ने मंत्रियों से अपनी संपत्ति और देनदारियों का ब्यौरा देने को नहीं कहा.'' नगालैंड का जवाब तो एकदम निराला था. मुख्यमंत्री निफुइयु रियो के कार्यालय का कहना था, ''नगालैंड में अधिकतर आबादी जनजातियों की ही है, लोग आयकर नहीं देते, लिहाजा, वार्षिक आयकर रिटर्न दाखिल करने की जरूरत ही नहीं है. सो, मांगी गई जानकारी उपलब्ध नहीं है.'' मणिपुर और मेघालय में भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.
अब इसके लिए व्यवस्थागत सुस्ती को दोष दीजिए या जानबूझकर मामले की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति को, यह एक कटु सत्य है कि देश का राजनीतिक वर्ग पारदर्शिता के साथ नहीं जीना चाहता, वह भी ऐसे दौर में जब समाज के बड़े हिस्से में उनके प्रति हिकारत का भाव देखा जाता है. क्या केंद्रीय मंत्रियों जैसी आचार संहिता सारे राज्यों के मंत्रियों को नहीं अपनानी चाहिए?