कहते हैं कि मरा हाथी भी लाख का होता है. मगर यूपी में मोदी लहर में बीएसपी का हाथी ऐसा मरा कि मायावती के हाथ जीरो बटा सन्नाटा लगा. ये उस पार्टी के साथ हुआ है, जो दलितों की चैंपियन और अल्पसंख्यकों की इकलौती हितैषी होने का दावा करती है. जिसके 15वीं लोकसभा में 21 सांसद थे. ये भी चुनावी सियासत की विडंबना है कि देश भर में वोट शेयर के लिहाज से तीसरे नंबर पर रहने वाली बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली है. जिसकी नेता मायावती को 2009 में लेफ्ट फ्रंट के नेता पीएम कैंडिडेट के तौर पर प्रचारित कर रहे थे. जो पार्टी 2007 में अपने दम पर देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आई. ये वही पार्टी है, जिसकी मुखिया मायावती चार चार बार मुख्यमंत्री रहीं और जो बार बार मोदी के रथ को अकेले रोकने का दम भर रही थीं.
क्यों हारी बीएसपी
1- मायावती का कोर दलित वोट बैंक खिसक गया. दलितों ने कहा, मायावती नहीं हैं पीएम की रेस में, इसलिए अबकी बार मोदी सरकार. जब विधानसभा चुनाव आएंगे तब हाथी देखेंगे.
2- अल्पसंख्यकों में भरोसा पैदा नहीं कर पाईं मायावती. वह पहले तीन बार बीजेपी के साथ मिलकर सत्ता संभाल चुकी हैं. इस बार वह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बीजेपी और सपा के खिलाफ आक्रामक रहीं, मगर उन्हें कहीं भी मुस्लिमों का एकमुश्त वोट नहीं मिला.
3- फेल हुआ सर्वजन फॉर्मूला. मायावती ने दर्जनों की संख्या में ठाकुरों और ब्राह्रमणों को टिकट बांटे. उन्हें लगा कि 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह उनकी सोशल इंजीनियरिंग काम कर जाएगी. प्रत्याशी की जाति का वोट प्लस दलित और मुस्लिम एक विनिंग कॉम्बिनेशन बनेंगे. मगर मोदी लहर में सवर्ण बीजेपी से चिपक गए और मायावती की रणनीति ढेर हो गई.
4- मायावती ने आक्रामक ढंग से प्रचार नहीं किया. वह अपनी पार्टी की इकलौती स्टार प्रचारक थीं. पश्चिमी यूपी में तो वह एक आध रैली तक ही सीमित रहीं. आखिरी चरण में पूर्वांचल में सक्रिय हुईं, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
5- सवाल देश को एक राजनीतिक विकल्प और विजन देने का था. अहम मुद्दों पर मायावती घिसी पिटी राजनीतिक लाइन दोहराती दिखीं. मतदाताओं को उनके हाथों देश सुरक्षित नहीं दिखा. बीजेपी ने लोगों को यह यकीन दिलाया कि बीएसपी जीतेगी भी तो सीबीआई के डर से कांग्रेस के साथ हो लेगी.
कहां से कहां पहुंच गई बीएसपी
बहुजन समाज पार्टी की शुरुआत कांशीराम ने 1983 में की थीं. 1987 से इसने चुनावों में हिस्सेदारी शुरू की और 1989 में लोकसभा में दस्तक दे दी. तब यूपी से 2 और पंजाब से एक लोकसभा सांसद हाथी के सिंबल पर सवार हो देश की सबसे बड़ी पंचायत पहुंचा. इन सांसदों में एक बिजनौर से मायावती भी थीं. उसके बाद यूपी में बीएसपी ने लगातार मिशन और कैडर बेस्ड पॉलिटिक्स की. कमंडल के खिलाफ जब मंडल की राजनीति सिरे चढ़ी तो कांशीराम ने समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव के साथ साझेदारी की. 1993 में दोनों दल मिलकर चुनाव लड़े. बीएसपी 164 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ी और 67 पर जीती. मगर जल्द ही मुलायम सिंह यादव की छतरी इसे रास आना बंद हो गई. कांशीराम की राजनीतिक उत्तराधिकारी मायावती को बीजेपी ने सत्ता का मोह दिखाया, तो गठबंधन महज 2 बरस में बिखर गया. बीजेपी के समर्थन से दलित की बेटी जून 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनी.
सत्ता के इस साथ ने बीएसपी को नए सिरे से मजबूत करना शुरू कर दिया. जल्द ही बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया और बीएसपी को 1996 में एक बार फिर मैदान में उतरना पड़ा. इस बार अकेले. सीटों की संख्या 67 पर ही अटकी रही. इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में बीएसपी के 11 सांसद दिल्ली पहुंचे. 1998 में अटल लहर में लोकसभा सांसदों की संख्या घटकर 5 रह गई. मगर यहीं पांच फांस बन गए. जब एआईएडीएमके के समर्थन वापस लेने के बाद बीजेपी इधर उधर भटक रही थी, मायावती ने विश्वास मत से दूर रहने का ऐलान कर उसे कुछ राहत दी. मगर ऐन मौके पर माया की रणनीति बदल गई. उन्होंने एनडीए के विरोध में मत दिया और वाजपेयी सरकार 1 वोट से गिर गई. 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में मायावती को फिर मुनाफा हुआ और बीएसपी के सांसदों की संख्या बढ़कर 14 हो गई. 2004 में बीएसपी के 19 और 2009 में 21 सांसद जीते. हर बार उन्हें सीबीआई के डर से मन मसोसकर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देना पड़ा. तर्क दिया गया सांप्रदायिक शक्तियों को बाहर रखने का.
बीएसपी का चरम आया 2007 में, जब यूपी विधानसभा में इसने अपने दम 206 सीटें जीत सत्ता हासिल की. पांच साल बाद 2012 में पार्टी 80 सीटें ही जीत पाई और सपा ने अखिलेश यादव के नेतृत्व में जीत का परचम फहराया. यूपी विधानसभा में विपक्षी बेंच पर बैठी बीएसपी को उम्मीद थी कि जनादेश खंडित आएगा और उसके दहाई में अंक आखिरकार बेहद महत्वपूर्ण साबित होंगे. बीएसपी को अपनी ताकत पर इतना भरोसा था कि उसने कांग्रेस से गठबंधन की संभावनाओं को टटोलने के बाद खारिज कर दिया और पूरे देश में अकेले चुनाव लड़ी. अब मायावती को नए सिरे से अपने कार्यकर्ताओं के बीच जाना होगा.