किसी भी चुनाव से पहले अक्सर मुसलमानों के वोटों को लेकर काफी चर्चा होती है. उसके बाद उनके प्रतिनिधियों की संख्या गिनी जाती है, जो देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होने के साथ ही घटती-बढ़ती रहती हैं. इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में मात्र चार मुस्लिम विधायक चुने गए हैं, जो पिछली बार के मुकाबले एक कम है. दिल्ली में 12 फीसदी आबादी वाले समुदाय के विधायकों की संख्या कम होने पर सवाल उठना लाजमी है.
कहा जाता है कि लोकतंत्र में जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी. फिर ऐसा क्यों हुआ? अव्वल, आप ने पांच मुसलमानों को ही प्रत्याशी बनाया था, जिनमें चार जीत गए. दूसरा, मुसलमानों को एहसास हो गया था कि बीजेपी को सिर्फ आप ही हरा सकती है. तीसरा, समुदाय ने हमेशा ‘सेकुलर’ पार्टियों और इंसाफ पसंद नेताओं को तरजीह दी है, नेता का मुस्लिम या सजातीय होना कभी उसकी प्राथमिकता नहीं रही. चौथा, मुसलमानों ने कभी भी एकतरफा वोट नहीं दिया, हालांकि दूसरे समुदायों की तरह इसमें भी सियासी वजूद बचाए रखने की चाहत है. यही चाहत मतदान के ऐन पहले समुदाय के ज्यादातर लोगों को किसी एक पार्टी को समर्थन देने के लिए मजबूर करती है.
इसके अलावा, बीजेपी या संघ समर्थित पार्टियों को छोड़कर मुसलमानों ने विभिन्न पार्टियों को उसी तरह वोट दिया है, जैसे बहुसंख्यक समुदाय के लोगों ने समर्थन किया है. इस बार कांग्रेस को बहुसंख्यकों ने किनारे लगा दिया, ऐसा ही मुसलमानों ने भी किया. यही हाल बीएसपी का था. बहुसंख्यकवादी बीजेपी ने मानो ऐसी नीति अपना रखी है कि उसे ‘घर वापसी’ कराकर और ‘मस्जिदों में मूर्तियां’ लगाकर ही दम लेना है, लिहाजा मुस्लिम समुदाय में उसके प्रति इकतरफा प्यार नहीं है.
ऐसे में इस समुदाय के पास दिल्ली में आप से बेहतर विकल्प न था. उन्हें मालूम था कि अरविंद केजरीवाल ही बीजेपी के विजय रथ को रोक सकते हैं. केजरीवाल धर्म-जाति की राजनीति नहीं करते. उनका जेहाद भ्रष्टाचार के खिलाफ है. वे गरीबों और वंचितों की बात करते हैं. दिल्ली में स्कूल-कॉलेजों और अस्पतालों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं. सबसे ज्यादा स्वरोजगार करने वाले समुदाय के ज्यादातर लोगों को आप का विकल्प कांग्रेस से बेहतर लगा. इससे उन कांग्रेसियों को राहत जरूर मिलेगी जो यह कह रहे थे कि पार्टी की छवि अल्पसंख्यकवादी हो गई है, हालांकि केंद्र में उनके कार्यकाल के दौरान मुसलमानों की हैसियत भारत के ‘नए दलित’ की हो गई. और हां, मुसलमानों का समर्थन कम होने से पार्टी दिल्ली विधानसभा से गायब हो गई.
दिल्ली में 10 विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमानों की संख्या 20 फीसदी से ज्यादा है. इनमें से पांच में वे 30 फीसदी से ज्यादा हैं. इतने से वे न तो सरकार बना सकते हैं न गिरा सकते हैं. फिर, विधायक किसी भी समुदाय का हो वह पार्टीलाइन से हटकर बात नहीं कर सकता. अगर पार्टीलाइन इस समुदाय की जरूरतों के अनुरूप हो तो मुस्लिम विधायकों की संख्या बहुत महत्व नहीं रखती. ऐसे में यह समुदाय टैक्टिकल वोटिंग के जरिए अपने सियासी वजूद को बचाए रखती है. मुसलमानों ने फोर्स मल्टीप्लायर की भूमिका निभाकर फिर अपने सियासी वजूद का एहसास करा दिया.