टिकट बंटवारे की शुरुआत होते ही उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी दो फाड़ हो गई है. एक तरफ पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह और उनके भाई तथा प्रदेशाध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव हैं तो दूसरी तरफ खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव. दोनों खेमे अगले कुछ हफ्ते में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपने-अपने उम्मीदवारों की लिस्ट लेकर मैदान में हैं. प्रदेश की जनता मूकदर्शक है तो विपक्षी दल इस घमासान में अपने फायदे-नुकसान का गुणा-भाग करने में जुटे हैं. सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर सपा की अंतर्कलह का फायदा किसे होगा. हाल ही में हुए कुछ सर्वे तो इस उठापटक को बीजेपी के लिए एक बड़े मौके के तौर पर देख रहे हैं. लेकिन बिना सीएम कैंडीडेट के क्या बीजेपी देश के इस सबसे बड़े सूबे की सत्ता की सीढ़ी चढ़ पाएगी?
15 साल से यूपी की सत्ता से वनवास झेल रही है बीजेपी
बीजेपी यूपी में लंबे समय से सत्ता से बाहर है. पिछले 20 सालों में हुए तीन विधानसभा चुनावों में वो सत्ता पक्ष तो क्या मुख्य विपक्षी दल तक बनने लायक सीट नहीं जुटा पाई है. 2002 में उसे जहां महज 88 सीटें हासिल हुई थीं, वहीं 2007 में 51 और 2012 में 47 सीट ही उसके खाते में गईं. इसके बावजूद अगर उसे इस बार बड़ी ताकत माना जा रहा है तो इसकी ठोस वजह हैं. मई 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यूपी में अपने प्रदर्शन से सबको हैरान कर दिया था. पार्टी ने 80 सीटों वाले इस सबसे बड़े प्रदेश में 71 सीटें हासिल कीं जबकि दो सीटें उसकी सहयोगी अपना दल को मिलीं. जो सात सीटें उसके हाथ नहीं आईं उनमें सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव, डिंपल यादव की अतिसुरक्षित सीट थीं. मायावती की बहुजन समाज पार्टी तो बीजेपी के इस ऐतिहासिक प्रदर्शन के चलते अपना खाता तक नहीं खोल पाई.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने किया था सूपड़ा साफ
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 42.63 फीसदी वोट मिले थे जबकि राज्य की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी महज 22.35 तो मुख्य विपक्षी दल बीएसपी 19.77 फीसदी वोट बटोर पाई थी. कांग्रेस को दो सीट के साथ कुल 7.53 प्रतिशत वोट मिले. यही नहीं लोकसभा चुनाव के बाद जिन-जिन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हुए हैं उनमें बिहार और दिल्ली को छोड़कर बीजेपी हर उस प्रदेश में जीत हासिल करने में सफल रही है, जहां वो मजबूत ताकत रही है. फिर चाहे वो महाराष्ट्र हो, हरियाणा हो, झारखंड, जम्मू कश्मीर हो या फिर असम ही क्यों न हो. ऐसे में यूपी से पार्टी को सबसे ज्यादा उम्मीदें हैं.
सर्वे में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी बीजेपी
दो महीने पहले ही इंडिया टुडे ग्रुप के लिए 'एक्सिस-माई-इंडिया' ने यूपी में जो सर्वे किया था उसके मुताबिक भी बीजेपी को 403 सदस्यीय विधानसभा में 170 से 183 सीटों पर विजय मिल रही थी. इसी ओपिनियन पोल के मुताबिक मायावती की बहुजन समाज पार्टी 115-124 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर तो सपा 94 से 103 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर रहने वाली थी. कांग्रेस को महज 8 से 12 सीटों पर ही जीत मिलती दिखाई दे रही थी.
इस ओपीनियन पोल के मुताबिक बीजेपी की इस बढ़त के पीछे उसे राज्य में अन्य पिछड़ी जातियों का समर्थन है. क्योंकि राज्य की 44 फीसदी गैर यादव ओबीसी का कहना था कि वो कमल पर बटन दबाएंगे. उत्तर प्रदेश में अगड़ी जातियां (सवर्ण) भी बीजेपी के साथ खड़ी दिखाई दीं क्योंकि इनमें से 61 फीसदी ने अपनी पहली पसंद कमल को बताया था.
अखिलेश-शिवपाल अंतर्कलह का फायदा बीजेपी को
गौरतलब है कि ये सर्वे उस वक्त कराया गया था जब समाजवादी पार्टी के अंदर की कलह खुलकर सामने नहीं आई थी और न ही तब इस बात का अंदेशा था कि सपा टिकट बंटवारे को लेकर इस तरह दो फाड़ हो जाएगी. लेकिन नवंबर में जब ये बात सामने आई कि अखिलेश यादव अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने की सोच रहे हैं तब हुए एक त्वरित सर्वे में जब लोगों से ये पूछा गया कि सपा के इस अंदरूनी दंगल का फायदा किसे होगा तो 39% लोगों ने कहा कि इससे बीजेपी को फायदा होगा जबकि इससे ठीक 10 फीसदी कम यानी 29% लोगों ने इसका फायदा बीएसपी को मिलने की बात कही. साफ है कि सपा में होने वाले किसी भी संभावित बंटवारे का नुकसान खुद सपा और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को होने वाला है जबकि फायदे में बीजेपी रह सकती है.
बीजेपी की बढ़त में भी है एक बड़ा पेंच
यूपी में वोटर बीजेपी को पसंद तो कर रहे हैं लेकिन बिना नेतृत्व के चुनाव लड़ने का खामियाजा उसे यहां भी भुगतना पड़ सकता है. इंडिया टुडे के जिस सर्वे में वोटरों ने बीजेपी को अपनी पहली पसंद बताया था उसी सर्वे में मायावती मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी पहली पसंद थीं. माया को इस मामले में 31 फीसदी वोट मिले जबकि अखिलेश यादव दूसरे नंबर पर रहे. उन्हें 27 फीसदी लोगों ने सीएम के तौर पर पसंद बताया. देश के गृह मंत्री और यूपी के पूर्व सीएम राजनाथ सिंह को 18 फीसदी वोटर यूपी का मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते थे. जाहिर है बीजेपी को यूपी में एक करिश्माई चेहरे की दरकार है. हाल ही में हुए कुछ विधानसभा चुनावों को देखें तो जनता ने उस पार्टी पर ज्यादा भरोसा जताया है जिसका सीएम कैंडीडेट पहले से घोषित है. दिल्ली में कुछ ही महीने के भीतर हुए दो चुनावों में बीजेपी का 28 से घटकर महज तीन सीटों तक सिमट जाने की बड़ी वजह ये भी बताई गई कि बीजेपी ने पहला चुनाव डॉक्टर हर्षवर्धन के नेतृत्व में लड़ा जबकि दूसरे चुनाव में उसने अंतिम क्षणों में किरण बेदी को पैराशूट कैंडीडेट बनाया.
दरअसल सपा के परंपरागत वोटर यादव और मुस्लिम माने जाते हैं. अगर एसपी दो फाड़ होती है तो मुस्लिम वोट छिटककर मायावती की बहुजन समाज पार्टी को मिल सकते हैं जबकि सपा से निराश यादव वोट लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी पर भरोसा जता सकता है. अगर ऐसा हुआ तो दलित और मुस्लिम गठजोड़ की सीढ़ियां मायावती को 2007 की तरह सत्ता दिला सकती है और बीजेपी हाथ मलती रह सकती है.