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55 साल पुराना है औवेसी का वो फॉर्मूला जिससे यूपी में जड़ें जमाने की कोशिश में है AIMIM

ओवैसी मुस्लिमों को लुभाने के लिए सिर्फ योगी-मोदी सरकार और बीजेपी पर ही निशाना नहीं साध रहे हैं बल्कि मुस्लिमों के मुद्दों पर गैर-बीजेपी दलों के रवैए पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं. सूबे की सियासी जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए ओवैसी 55 साल पहले यूपी में आजमाए जा चुके डॉ. फरीदी के मुस्लिम राजनीति फॉर्मूले को लेकर चुनावी रण में उतरे हैं. 

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असदुद्दीन ओवैसी
असदुद्दीन ओवैसी
स्टोरी हाइलाइट्स
  • यूपी में ओवैसी तलाश रहे सियासी जमीन
  • डॉ फरीदी मुस्लिम सियासत के जनक
  • मुस्लिम सियासत अभी तक सफल नहीं रही

उत्तर प्रदेश में सियासी जमीन तलाशने में जुटे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुसलमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की नजर मुस्लिम समुदाय पर है. ओवैसी मुस्लिमों को लुभाने के लिए सिर्फ योगी-मोदी सरकार और बीजेपी पर ही निशाना नहीं साध रहे हैं बल्कि मुस्लिमों के मुद्दों पर गैर-बीजेपी दलों के रवैये पर सवाल खड़े कर रहे हैं. सूबे की सियासी जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए ओवैसी 55 साल पहले यूपी में आजमाए जा चुके डॉ. जलील फरीदी के फॉर्मूले को लेकर चुनावी रण में उतरे हैं. 

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ओवैसी की यूपी के मुस्लिम सीट पर नजर

हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी यूपी की सियासत में नई तुरुप के तौर पर नजर आ रहे हैं. वो इन दिनों मुसलमानों की भावनाओं को जगाकर यूपी में अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे हैं. ओवैसी ने उत्तर प्रदेश की मुस्लिम बहुल 100 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर रखा है और सूबे में घूम-घूमकर अपना माहौल बनाने में जुटे हैं. पश्चिम यूपी से लेकर पूर्वांचल और तराई बेल्ट की मुस्लिम सीटों पर ओवैसी की खास नजर है और इन क्षेत्र में दो मुद्दे ही उठा रहे हैं. पहला विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या में बढ़ोतरी और दूसरा सत्ता में उनकी वाजिब हिस्सेदारी. 

यूपी में मुस्लिम नुमाइंदगी को बना रहे मुद्दा

मुसलमानों की राजनीतिक नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर असदुद्दीन ओवैसी से पहले उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई बार सियासी प्रयोग किए जा चुके हैं. सूबे में 20 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जो करीब 143 विधानसभा सीटों पर खास प्रभाव रखते हैं. इसी सियासी असर को देखते हुए यूपी में मुस्लिम राजनीति के लिए कई बार विकल्प बनने की कोशिशें की गई, लेकिन एक चुनाव के बाद उन्हें दूसरी बार सफलता नहीं मिली. 

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उत्तर प्रदेश में मुस्लिम राजनीति का इतिहास काफी पुराना है. आजादी से पहले और बाद मुस्लिम राजनीति की जड़ें सूबे में हमेशा से रही हैं. सूबे में मुस्लिम राजनीतिक दलों की एक बड़ी फेहरिस्त है. देश के बंटवारे के बाद सूबे में मुस्लिम राजनीति निष्क्रिय हो गई थी. आजादी के कुछ समय के बाद तक मुसलमानों में मायूसी थी, जिससे उबरने में मुस्लिमों को करीब 15 साल का अरसा लग गया. 

मुस्लिम सियासत का यूपी में इतिहास

मुसलमानों को मायूसी से निकालने के लिए और राजनीतिक चेतना जगाने के लिए मौलाना अली मियां की पहल पर मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक, धार्मिक और गैर-राजनीतिक लोगों की बैठक की गई. इसके बाद 1964 में सामाजिक संगठन की शक्ल में मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत बना. सूबे में मशावरत के जलसे और कार्यक्रम के सिलसिले शुरू हुए तो मुसलमानों को हौसला मिला. 

डॉ. अब्दुल जलील फरीदी

अंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित डॉक्टर अब्दुल जलील फरीदी भी मशावरत का हिस्सा बने. जलील फरीदी लखनऊ के मशहूर टीबी के डॉक्टर थे. वो गरीबो के हितैषी थे और वो दलित-मुस्लिम राजनीति को एकजुट करने के मिशन पर काम कर रहे थे. कांग्रेस के धुर विरोधी थे, जिसके लिए गैर-कांग्रेस राजनीति के मुस्लिम चेहरा थे. सूबे में सबसे पहले उन्होंने ही मुस्लिम सियासत को स्थापित करने की कवायद की. 

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डॉ जलील फरीदी ने खड़ी मुस्लिम मजलिस

डॉ. जलील फरीदी की कोशिशों और मशावरत के सहयोग से संयुक्त विधायक दल का गठन किया गया, जिसमें कुछ दलों के विलय भी किये गये. 1967 में डा. अब्दुल जलील फरीदी के नेतृत्व में मुस्लिम मजलिस के नाम से राजनीतिक पार्टी का गठन हुआ, लेकिन चुनाव में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले लोकदल के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था. हालांकि, इस चुनाव में मजलिस के रजिस्ट्रेशन न होने के चलते पार्टी लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़ी, तब उन्हें 12 सीटों पर जीत मिली थी. इसके बाद मुस्लिम मजलिस का रजिस्ट्रेशन 1968 में हुआ, जिसके फरीदी अध्यक्ष बने. 

यूपी में पहली गैर कांग्रेस सरकार 1967 में चौधरी चरण सिंह की अगुवाई में राजनारायण की पार्टी और मुस्लिम मजलिस के समर्थन से बनी, जिसमें अहम भूमिका डॉ. अब्दुल जलील फरीदी की रही. हालांकि, दो साल के बाद यूपी में हुए 1969 में हुए चुनाव में मुस्लिम मजलिस ने विधानसभा का चुनाव लड़ा, जिसमें मजलिस के 6 विधायक जीतने में सफल रहे. लेकिन, इसी के बाद में मुस्लिम मजलिस ताश के पत्तों की तरह बिखरना शुरू हुई तो फिर खत्म ही हो गई. 

मजलिस की जड़ों में मुस्लिम लीग ने डाला मट्ठा

मुस्लिम मजलिस को यूपी से खत्म करने में कांग्रेस की सबसे अहम भूमिका रही. कहा जाता है कि 1969 के चुनाव के बाद ही इंदिरा गांधी ने केरल की मुस्लिम लीग को यूपी में सियासी तौर पर जड़े जमाने का मौका दिया. 1970 में मुस्लिम मजलिस के कानपुर अधिवेशन में डा. बशीर अहमद खां ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का राग अलापना शुरू कर दिया. अधिवेशन के कुछ दिनों के बाद  इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने उत्तर प्रदेश में दस्तक दी और प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर डा. शमीम अहमद खां को मिली और डा. बशीर अहमद खां को महासचिव बनाया गया. 

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1971 के चुनाव में इंडियन मुस्लिम लीग ने यूपी में चुनाव लड़ा और न खुद जीती और न ही मुस्लिम मजलिस जीत सकी. इसके बाद 1974 के यूपी चुनाव में इंडियन मुस्लिम लीग ने 51 सीटों पर अपने कैंडिडेट उतारकर पूरी तरह से मुस्लिम मजलिस को खत्म कर दिया. लीग के उम्मीदवार अय्यूब सिद्दीकी को फिरोजाबाद से जीत मिली और लीग के 10 उम्मीदार दूसरे स्थान पर रहे जिनमें करीब सात को मामूली मतों से हार का मुंह देखना पड़ा. सूबे में मुस्लिम लीग अपनी पैर जमाती, लेकिन उससे पहले केरल की मुस्लिम लीग ईकाई ने कांग्रेस के आपातकाल का समर्थन कर दिया. इससे मुस्लिम समाज में गहरा झटका लगा और मुस्लिम राजनीति खत्म हो गई. 

यूपी में मुस्लिम राजनीतिक पार्टी बनी पर सफल नहीं 

1995 में जब मायावती ने अपनी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे डॉक्टर मसूद को बाहर का रास्ता दिखाया, तो उन्होंने असद खान के साथ मिलकर नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाई. मुस्लिम वोटों को एकजुट करके सूबे की राजनीति में बड़ा उलटफेर करने का मकसद था. कई चुनाव लड़ने के बाद वह महज़ एक सांसद और एक विधायक ही जिता पाए.

इसके बाद 2008 में पीस पार्टी वजूद में आई. 2012 के विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी 4 विधानसभा सीटें जीती और 3 सीटों पर नंबर दो रही. लेकिन, पांच साल के बाद 2017 के चुनाव में पीस पार्टी का खाता भी नहीं खुला.

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उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी भी उन्हीं तौर-तरीक़ों के साथ उतर रहे हैं, जो उनसे पहले डॉक्टर जलील फ़रीदी, डॉक्टर मसूद और डॉक्टर अयूब लेकर उतरे थे. ऐसे में ओवैसी की नजर सपा के मुस्लिम वोटबैंक पर है, जिसे अपने खेमे में लाने के लिए अखिलेश यादव पर सवाल खड़े कर रहे हैं ताकि मुस्लिम वोट छिटककर उनके साथ आए. ऐसे में देखना है कि ओवैसी 2022 के चुनाव में मुस्लिम सियासत के दम पर क्या सियासी गुल खिलाते हैं? 

 

 

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