बसपा प्रमुख मायावती करीब ढाई साल के बाद मंगलवार को किसी सार्वजनिक मंच पर नजर आई. मायावती दलित समुदाय के अत्याचार या फिर उनके अधिकारों के लिए नहीं बल्कि ब्राह्मण समाज को साधने के लिए उतरी थीं. सत्ताधारी दल बीजेपी पर निशाना साधते हुए बसपा सुप्रीमो ने ब्राह्मण समुदाय से वादा करते हुए कहा कि सरकार बनने पर 2007 की तरह ही ब्राह्मण समाज की सुरक्षा, सम्मान और तरक्की का ध्यान रखा जाएगा. दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के जरिए मायावती एक बार फिर सत्ता में वापसी की कवायद में जुटी हैं.
मायावती ने बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन के समापन के मौके पर ब्राह्मणों को जोड़ने की भरपूर कोशिश की. उन्होंने कहा कि बीजेपी सरकार में प्रदेश में ब्राह्मणों के उत्पीड़न की कई ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाएं हुईं, जो देश में चर्चा का विषय बनीं. बसपा की सरकार बनने पर बीजेपी सरकार में ब्राह्मण समाज के उत्पीड़न के सभी मामलों की जांच कराकर दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी और सभी निर्दोष लोगों पर दर्ज मुकदमे वापस लिए जाएंगे.
बसपा प्रमुख ने कार्यकर्ताओं से हर विधानसभा क्षेत्र में एक हजार ब्राह्मण कार्यकर्ताओं को जोड़ने का भी टारगेट दिया. खासकर अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 85 सीटों पर पहले एक ब्राह्मण कार्यकर्ता बनाने की बात कही है. साथ ही उन्होंने 2007 की तरह ही 2022 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने युद्धस्तर पर जुटने का आह्वान किया. दलित-ब्राह्मण फॉर्मूले के सहारे 2007 में सत्ता हासिल कर चुकीं मायावती खास तौर पर सोशल इंजीनियरिंग का दांव पूरी ताकत से 2022 के विधानसभा चुनाव में भी चलना चाहती हैं.
बसपा का खिसकता जनाधार
दरअसल, 2012 में सत्ता गंवाने के बाद से अब तक हुए विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बसपा का राजनीतिक जनाधार खिसकता ही रहा. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो पार्टी शून्य पर सिमट गई थी. बीजेपी के बढ़ते सियासी प्रभाव से दलितों का एक तबका खासकर गैर-जाटव बसपा से खिसककर दूसरी पार्टी में चला गया है. बसपा की घटती ताकत का ही नतीजा रहा कि पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती ने अपनी धुर विरोधी सपा तक से गठबंधन करने में गुरेज नहीं किया.
सपा से गठबंधन से बसपा को दस लोकसभा सीटें तो मिल गईं, लेकिन पार्टी की स्थिति सुधरती नहीं दिखी. ऐसे में मायावती ने गठबंधन तोड़ अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया. यूपी विधानसभा चुनाव में महज चार महीने के समय बचा है तो मायावती अपने समीकरण को दुरुस्त करने में जुटी हैं और एक बार फिर से उसी सोशल इंजीनियरिंग ब्राह्मण और दलित समीकरण के जरिए सत्ता हासिल करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं. इसीलिए मंगलवार को ढाई साल के बाद मंच पर नजर आईं तो पूरे सियासी रंग में दिखीं.
बसपा की सियासी मजबूरी ब्राह्मण
उत्तर प्रदेश वरिष्ठ पत्रकार सैय्यद कासिम कहते हैं कि नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से गैर-जाटव दलितों के बीच बीजेपी ने मजबूत पकड़ बनाई है. ऐसे में बसपा के साथ फिलहाल दलित में जाटव ही मजबूती के साथ हैं. अति पिछड़ा वोट भी बसपा के साथ नहीं है. मायावती यह बात बेहतर तरीके से समझ रही हैं कि यूपी में अगर बीजेपी को मात देनी है तो सबसे पहले उसके वोटबैंक को अपने साथ जोड़ना होगा.
कासिम कहते हैं कि यूपी में बीजेपी के वोटबैंक में फिलहाल ब्राह्मण ही सबसे कमजोर कड़ी है, जिसे उसके उम्मीद के मुताबिक बीजेपी के सत्ता में आने पर हिस्सेदारी नहीं मिली. ऐसे में ब्राह्मण की बीजेपी से नाराजगी का फायदा उठाने के लिए मायावती ने अपने ब्राह्मण चेहरे सतीश मिश्रा को आगे किया है, लेकिन 2007 में और 2022 में काफी वक्त गुजर चुका और सियासत भी बदल चुकी है. हालांकि, मायावती ने खुल ब्राह्मण कार्ड खुलकर खेल रही हैं और उन्होंने सरकार में आने पर ब्राह्मणों को सम्मान देने का वादा कर रही हैं.
हालांकि, तीन दशक में सूबे की राजनीति में बड़े बदलाव हो गए हैं. 2002 से हाशिए पर रही बीजेपी 2014 के लोकसभा चुनाव में ब्राह्मण सहित पिछड़े व दलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब रही, जिससे बीजेपी का ग्राफ लगातार बढ़ता ही रहा. पिछले विधानसभा चुनाव में तो बीजेपी अपने सहयोगियों के साथ रिकॉर्ड 325 सीटें जीतने में कामयाब रही तो 2019 में सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन के बाद भी बीजेपी ने क्लीन स्वीप किया.
यूपी में ब्राह्मणों की भूमिका
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाता बसपा के जाटव और सपा के यादवों के बाद चुनाव का एक महत्वपूर्ण कारक हैं. एक अन्य कारण ब्राह्मण समुदाय का मजबूत सामाजिक-राजनीतिक इतिहास है जो चुनाव अभियान के दौरान विशेष रूप से अवध और उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में किसी भी पार्टी को चुनाव में बढ़त दिलाने में मदद करता है. हालांकि, मंदिर की राजनीति के बाद से ब्राह्मणों को बीजेपी के समर्थक के तौर पर देखा जाता है जो बड़े पैमाने पर भाजपा को वोट देते रहे हैं.
यूपी में बीजेपी और ब्राह्मण
उत्तर प्रदेश में भले ही ब्राह्मण सिर्फ 10 से 12 फीसदी वोट तक सिमटा हो, लेकिन ब्राह्मणों का प्रभाव समाज में इससे कहीं अधिक है. ब्राह्मण समाज राजनीतिक हवा बनाने में सक्षम है. 1990 से पहले तक सत्ता की कमान ज्यादातर ब्राह्मण समुदाय के हाथों रही है. कांग्रेस के राज में ज्यादातर मुख्यमंत्री ब्राह्मण समुदाय के बने, लेकिन बीजेपी के उदय के साथ ही ब्राह्मण समुदाय का कांग्रेस से मोहभंग हुआ. यूपी में जिस भी पार्टी ने पिछले तीन दशक में ब्राह्मण कार्ड खेला, उसे सियासी तौर पर बड़ा फायदा हुआ है.
यूपी में पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ब्राह्मण ही थे. एनडी तिवारी, जो 1989 में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे, वे भी ब्राह्मण थे. 'मंडल और कमंडल' की राजनीति से पहले ब्राह्मण यूपी में कांग्रेस के प्रति वफादार थे, लेकिन राम जन्मभूमि आंदोलन से कांग्रेस कमजोर होती गई और बीजेपी का ग्राफ मजबूत होता गया. हालांकि, बीच में जरूर थोड़ा बहुत दूसरे दल के साथ गया, लेकिन मुख्य रूप से बीजेपी के साथ जुड़ा रहा.
पिछले कुछ समय से उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण समाज के बीजेपी से नाराज होने की चर्चा से समाज के वोट बैंक पर बसपा और सपा की नजर है. वैसे तो बीजेपी ब्राह्मण समाज की नाराजगी दूर करने के लिए तमाम जतन कर रही है, लेकिन 2017 की तरह उसे ब्राह्मणों का साथ मिलता नहीं दिख रहा है. ऐसे में मायावती ब्राह्मण समाज में अपनी पैठ बनाने के लिए सम्मेलनों के साथ ही उनके लिए तमाम वादे करती दिख रही हैं.
ब्राह्मणों का सियासी असर
उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण समाज का सदैव वर्चस्व रहा है. सूबे की कुल आबादी में 10 से 12 फीसद ब्राह्मण समाज है, जो राज्य की 403 विधानसभा सीटों में से 90 पर ब्राह्मणों का प्रभाव माना जाता है. इनमें भी 45 सीटें तो ऐसी हैं, जिन पर 25 फीसद से भी ज्यादा ब्राह्मण वोट है. भदोही, जौनपुर, मीरजापुर, प्रयागराज, अंबेडकरनगर, गोंडा, बलरामपुर, महराजगंज, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, संत कबीरनगर, लखनऊ, वाराणसी, चंदौली, बहराइच, रायबरेली, अमेठी, उन्नाव, शाहजहांपुर, सीतापुर, कानपुर, सुलतानपुर, श्रावस्ती आदि जिलों की ज्यादातर सीटें ब्राह्मण बहुल हैं.
बसपा में ब्राह्मणों का ग्राफ
1993 में बसपा से महज एक ब्राह्मण विधायक था, लेकिन चुनाव दर चुनाव यह आंकड़ा बढ़ता गया. बसपा से साल 2007 में 41 ब्राह्मण विधायक जीतकर आए. बीजेपी से 2017 के चुनाव में सबसे ज्यादा 58 ब्राह्मण विधायक बने, इससे पहले बीजेपी से जीते ब्राह्मणों की संख्या 20 से ज्यादा नहीं बढ़ी थी. 2002 से लेकर 2012 तक तो बीजेपी से जीतने वाले ब्राह्मणों की संख्या दहाई का अंक भी नहीं छू पाई थी. वही, सपा से सबसे ज्यादा 21 ब्राह्मण 2012 के चुनाव में जीतकर आए थे जबकि इससे पहले यह आंकड़ा 11 तक ही सिमटा रहा है.