उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं. सूबे के दलित समुदाय के बीच बसपा प्रमुख मायावती के विकल्प के तौर पर भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद खुद को स्थापित करने की हरसंभव कोशिश में हैं. चंद्रशेखर ने नाम लिए बगैर यूपी के बड़े दलों से कहा कि अगर उन्हें आजाद समाज पार्टी से गठबंधन करना है तो बड़ा दिल दिखाना होगा. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर चंद्रशेखर के दिल में क्या है और सूबे बड़े दलों से बड़ी उम्मीद में कहीं सियासी मात न खा जाएं.
'पंचायत आजतक' कार्यक्रम में चंद्रशेखर आजाद से सवाल किया गया था कि आजाद समाज पार्टी खुद को बड़ी पार्टी समझ रही है. लेकिन सपा या कांग्रेस जैसी पार्टियों उनको 6-7 सीटें ही देने का (अगर गठबंधन होता है तो) मन बना रही हैं. इस पर चंद्रशेखर ने कहा कि बीजेपी को रोकने के लिए दलितों ने बांह फैलाई हैं. यूपी में दलितों ने कई बार सरकार बनाई है. उन्होंने दावे के साथ कहा कि यह मान लीजिए कि जिसकी सरकार बनेगी हमारी वजह से बनेगी, जिसकी नहीं बनेगी हमारी वजह से नहीं बनेगी. ऐसे में पार्टियों को साथ आना है तो बड़ा दिल दिखाना होगा. 6-7 सीट से काम नहीं होगा. वह यह भी बोले कि बड़ा दिल लोकतंत्र में नहीं दिखाने से नुकसान होता है.
गठबंधन नहीं तो 403 सीटों पर लड़ेगी चंद्रशेखर की पार्टी
चंद्रशेखर ने कहा कि दलितों को उनकी आबादी के हिसाब से भागीदारी देने वाले राजनीतिक दल से गठबंधन होगा. अगर ऐसा नहीं होता है, तो सूबे की सभी 403 विधानसभा सीटों पर आजाद समाज पार्टी चुनाव लड़ेगी. इससे साफ जाहिर है कि चंद्रशेखर सूबे के बड़े दलों से बड़ा दिल दिखाने के पीछे का मकसद साफ है कि उन्हें 6-7 सीटें नहीं बल्कि अच्छी खासी सीटें चाहिए तभी गठबंधन के लिए राजी होंगे.
उत्तर प्रदेश में दलित समुदाय की आबादी करीब 22 प्रतिशत हिस्सा है और पश्चिमी यूपी की कई सीटों में निर्णायक भूमिका वो निभाते हैं. यूपी की कुल 403 विधानसभा सीटों में से 85 दलितों के लिए आरक्षित हैं. पहले दलित समुदाय का बसपा को एकमुश्त वोट बैंक के रूप में देखा जाता था, लेकिन पिछले दो विधानसभा चुनावों में दलितों के बीच अपना मायावती का ग्राफ डाउन हुआ है.
मायावती और चंद्रशेखर दोनों ही जाटव समुदाय से
बसपा की राजनीतिक जमीन हथियाने और दलित मतों के अपने पाले में लाने के लिए तमाम अन्य दलों में होड़ मची हुई है. ऐसे में दलित अधिकारों पर एक मजबूत आवाज के रूप में उभरे चंद्रशेखर आजाद दलित समाज के युवा मतदाताओं के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाने की कवायद में है. लेकिन, यूपी में दलित समाज जाटव और गैर-जाटव के तौर पर दो हिस्सों में बंटा हुआ है. मायावती और चंद्रशेखर दोनों ही जाटव समुदाय के साथ-साथ पश्चिम यूपी से आते हैं. ऐसे में दोनों का एक ही वोटबैंक हैं.
बीते कुछ सालों में चंद्रशेखर आजाद बड़ी तेजी के साथ दलित नेता के तौर पर उभरे हैं. दिल्ली के बाल्मिकी मंदिर के मामले से लेकर हाथरस सहित देश में होने वाले दलितों के अत्याचार के मामले पर चंद्रशेखर सबसे ज्यादा मुखर नजर आते हैं. इसी का नतीजा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार पंचायत चुनाव में चंद्रशेखर आजाद की पार्टी ने तीन दर्जन जिला पंचायत सदस्य की सीटों पर जीत दर्ज है. इसके बावजूद अभी भी पश्चिम यूपी में दलित समुदाय के बीच मायावती की तरह चंद्रशेखर अपनी लोकप्रियता नहीं बन सके.
अंबेडकर महासभा के अध्यक्ष अशोक भारतीय कहते हैं कि चंद्रशेखर के सामने अवसर तो है, लेकिन अब सिर्फ दलित के नाम पर राजनीति नहीं खड़ी की जा सकती है. अंबेडकर से लेकर काशीराम तक बहुजन समाज की बात करते थे, लेकिन चंद्रशेखर बहुजन समाज के बीच अभी तक अपने आपको स्थापित नहीं कर पाए हैं और सियासत में अभी से वो बड़ी उम्मीदें लगा रहे हैं. यूपी में अभी तक जमीनी स्तर पर उनका संगठन खड़ा नहीं हो सका है. ऐसे में अभी से बार्गिनिंग करना न तो उनके लिए हित में है और न ही दलित समुदाय के लिए.
दलित राजनीति पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक सैय्यद कासिम कहते हैं कि चंद्रशेखर आजाद के साथ पश्चिम यूपी के कुछ युवा खासकर जाटव समुदाय के हैं, लेकिन दलित समाज के गंभीर लोग उनके साथ नहीं है. वो अभी तक जितने मंच इस्तेमाल किए हैं उनमें सभी मुस्लिमों की भीड़ थी. इतने दिनों में दलितों के मुद्दे को उठाया है, लेकिन दलित समाज को एकजुट कर उन्होंने अभी तक अपनी कोई ताकत नहीं दिखाई है.
वो कहते हैं कि चंद्रशेखर ने दलितों के जुड़े हुए जनभावनाओं के मुद्दे के बहाने जरूर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकना चाहते हैं, लेकिन किसी तरह की गंभीर दलित राजनीति को खड़ा नहीं कर पा रहे हैं. यह बात उत्तर प्रदेश के दलित समुदाय के बड़े लोग और सूबे की सभी बड़ी सियासी पार्टियां समझ रही हैं. इसीलिए सपा और कांग्रेस उन्हें चंद सीटें देकर गठबंधन कर दलित वोटों को अपने पक्ष में करना चाहती है, लेकिन हाल में मायावती जिस तरह से सक्रिय हुई हैं. ऐसे में चंद्रशेखर बड़ी डिमांड में अपना सियासी मौका भी गंवा देंगे.
उत्तर प्रदेश अगले साल के शुरू में चुनाव होने हैं, जिसे देखते हुए दलित वोट के लिए एक नई लड़ाई शुरू हो गई है. वेस्ट्रन यूपी में आक्रामक रूप से दलितों को लुभाया जा रहा है. राष्ट्रीय लोक दल ने पश्चिमी यूपी में दलित समर्थन हासिल करने के लिए 'न्याय यात्रा' निकाली है जबकि सपा अंबेडकर वाहिनी का गठन कर रही है. चंद्रशेखर आजाद ने पिछले महीने हीं दलित वोट इकठ्ठा करने के लिए साइकिल यात्रा शुरू की थी जबकि कांग्रेस लगातार दलितों को साधने में जुटी हैं.,
वहीं, बीजेपी भी दलित वोट को आकर्षित करने के लिए लगातार कई प्रयास कर रही है. मोदी सरकार ने यूपी के गैर-जाटव दलित समुदाय के तीन मंत्रियों को कैबिनेट में जगह दी है. कौशल किशोर (जाति से पासी), एसपी बघेल (गडेरिया-धनगर) और भानु प्रताप वर्मा (कोरी)- को शामिल किया था. बीजेपी जाटव दलित नेता कांता कर्दम को यूपी में पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया और अशोक जाटव को योगी कैबिनेट में मंत्री के रूप में जगह दी थी. इतना ही नहीं मायावती के कार्यकाल के दौरान डीजीपी रहे पूर्व आईपीएस अधिकारी बृज लाल को राज्यसभा भेजा था. ऐसे में चंद्रशेखर की बड़े दलों से बड़ा दिल दिखाने में अपना ही सियासी नुकसान न कर बैठें?