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UP Election: क्या है जाटलैंड की सियासत और चौधरी चरण सिंह की विरासत का तिलिस्म?

UP Election में सबसे ज्यादा चर्चा इस बार जाटलैंड (Jat Land) यानी पश्चिमी यूपी के सियासी समीकरणों और चौधरी चरण सिंह की सियासी विरासत की हो रही है. आखिर इसका गणित क्या है और दशकों बाद भी सभी दलों को इसी फॉर्मूले से उम्मीद क्यों है? समझिए जाटलैंड की सियासत का ऐतिहासिक बैकग्राउंड, जमीनी हकीकत और इस वोटबैंक का समीकरण.

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चौधरी चरण सिंह (फाइल फोटो)
चौधरी चरण सिंह (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • पश्चिमी यूपी की 30 सीटों पर जाट वोटबैंक निर्णायक स्थिति में
  • चौधरी चरण सिंह ने यूपी में जाट समुदाय को बनाया था पॉलिटिकल पावर
  • 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने सारे सियासी गणित बदल दिए

UP Election: पश्चिमी यूपी में एक मशहूर कहावत है- जिसके जाट, उसी के ठाठ...आज जब यूपी में सत्ता का सबसे बड़ा संग्राम छिड़ा हुआ है तो ऐसे में सभी दलों की जोर आजमाइश भी चरम पर है. यूपी चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है पश्चिमी यूपी यानी जाटलैंड की सियासत को लेकर जहां पहले ही चरण में वोटिंग होनी है. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद ये इलाका एकतरफा बीजेपी के पाले में चला गया था लेकिन हाल में हुए किसान आंदोलन ने इस इलाके के वोटों के गणित को इतना बदल दिया है कि सभी दल पहले की तरह यहां अपने लिए संभावनाएं तलाशने लगे हैं.

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जाटों और किसानों के दबदबे वाली ये जमीन किस हद तक सियासी रूप से ऊर्वर है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसी वोटबैंक की बदौलत जाटों के सबसे बड़े नेता चौधरी चरण सिंह दो बार यूपी के सीएम, केंद्र में मंत्री, उपप्रधानमंत्री और फिर प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गए थे. चौधरी चरण सिंह अक्सर कहा करते थे- 'यूपी पर जिसका नियंत्रण है, समूचे भारत पर उसी का नियंत्रण होगा'.

क्या है जाटलैंड की ताकत?

वैसे तो जाट समुदाय की आबादी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान समेत कई राज्यों में प्रभावी है लेकिन खासकर यूपी के पश्चिमी जिलों में स्थिति बेहद मजबूत है. यूपी में जाट प्रभाव वाले जिले हैं- मेरठ, मथुरा, अलीगढ़, बुलंदशहर, मुजफ्फरनगर, आगरा, बिजनौर, मुरादाबाद, सहारनपुर, बरेली और बदायूं. भले ही पूरे यूपी में जाट समुदाय की आबादी 4 से 6 फीसदी के बीच हो लेकिन जाटलैंड की इतनी चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि पश्चिमी यूपी के कुल वोटों में करीब 17 फीसदी हिस्सेदारी जाट समुदाय की है. इस इलाके की 120 विधानसभा सीटों और 18 लोकसभा सीटों पर जाट वोट बैंक असर रखता है और इनमें से 30 विधानसभा सीटों पर तो जाट वोटबैंक निर्णायक स्थिति में है. संसदीय चुनाव हो या विधानसभा का चुनाव... जाट बिरादरी के वोट काफी हद तक सत्ता का रुख तय करते हैं. खेती के लिहाज से काफी उपजाऊ इस इलाके को किसान लैंड के साथ-साथ जाटलैंड भी कहा जाता है.

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जाट समुदाय की हिस्ट्री

अगर इतिहास को टटोलें तो जाट समुदाय का सबसे पहला राजनीतिक उभार 17वीं शताब्दी में देखने को मिलता है जब सैन्य राजशाही की स्थापना यूपी में मुरसन, राजस्थान में भरतपुर, पंजाब में पटियाला राज्यों की स्थापना के साथ हुआ. औरंगजेब के शासनकाल में जाट लड़ाकों ने मथुरा में अपनी आवाज प्रभावी तरीके से बुलंद की थी. 18वीं शताब्दी में भरतपुर में उभरे जाट रियासत ने मुगल वंश के खिलाफ प्रतिरोध का मजबूत आधार पेश किया. देश की आजादी के बाद चौधरी चरण सिंह ने जाट बिरादरी को सियासी मैप पर मजबूत जगह दिलाई.

जाट समुदाय को कैसे पॉलिटिकल पावर में बदला?

चरण सिंह के करीबी कहते थे कि चौधरी साहब शुरू से आखिर तक जाट ही जाट हैं. लेकिन चौधरी चरण सिंह की सियासत की कहानी इस दायरे से बहुत आगे तक थी. 1957 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह जातीय गणित के चक्कर में अपने गढ़ छपरौली से कुछ सौ वोटों के अंतर से हारते हारते बचे. ऐसे में सियासी समीकरणों को लेकर उन्होंने अनूठे प्रयोग किए. आजादी के आंदोलन के बाद चौधरी चरण सिंह ने पहले कांग्रेस की सियासत में जगह बनाई, फिर यूपी में मंत्री बने और फिर गैरकांग्रेसी सरकार बनाकर सीएम के पद तक पहुंचे. फिर दो दशकों तक केंद्र की राजनीति कर जाट बिरादरी को पॉलिटिकल मैप पर मजबूत जगह दिलाई.

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जाटलैंड की सियासत का सीक्रेट?

चौधरी चरण सिंह की सियासत के इस सीक्रेट के बारे में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जर्नादन ठाकुर अपनी किताब में लिखते हैं- चौधरी चरण सिंह अच्छी तरह जानते थे कि उनको सियासत में आगे बढ़ने के लिए जैसी राजनीति चाहिए उसके लिए जाट समीकरण काफी नहीं है. चाहे वो कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों. इसलिए उन्होंने अपने सियासी आधार को धीरे-धीरे व्यापक बनाना शुरू किया. जाटों के साथ यादवों-गूजरों-राजपूतों-मुस्लिमों को जोड़कर चरण सिंह ने अपना जनाधार व्यापक बनाया. इसके लिए उन्होंने किसानों की सियासत का नारा भी जोरशोर से बुलंद किया और काफी हद तक इसमें उन्हें सफलता भी मिली.'

जर्नादन ठाकुर अपनी किताब में लिखते हैं- चरण सिंह के अंदर कहीं बहुत गहरे में एक कसक है और एक गांठ पड़ी है कि वह तथाकथित अभिजात वर्ग में नहीं पैदा हुए. यह बात बार-बार जाहिर हो जाती है. दिसंबर 1977 में जब चरण सिंह देश के गृह मंत्री थे तब यूपी के मिरहची में एक सभा में उन्होंने कहा कि मैं एक जाट हूं, एक जाट परिवार में पैदा हुआ हूं. अगर मैं मुसलमान बनना चाहूं तो फौरन बन सकता हूं लेकिन मैं ब्राह्मण नहीं बन सकता, मैं राजपूत नहीं बन सकता. यहां तक कि मैं वैश्य भी नहीं बन सकता. इतना ही नहीं अगर मैं हरिजन भी बनना चाहूं तो ये भी असंभव है क्योंकि संविधान इस बात की इजाजत नहीं देता. अच्छा होगा ऐसी जाति व्यवस्था ध्वस्त हो जाए.

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अमेरिकी राजनीतिक विश्लेषक और लेखक पॉल आर ब्रास अपनी किताब में चौधरी चरण सिंह की सियासत पर लिखते हैं- 'चौधरी चरण सिंह भारत के उन चंद नेताओं में से थे जिनकी सियासत आजादी के पहले के दौर से शुरू होकर 1980 के दशक तक जारी रही. चौधरी चरण सिंह की सियासत की एक और खास बात थी कि उनके पास रूट लेवल की पॉलिटिक्स से लेकर पीएमओ तक का अनुभव था. शहरी और औद्योगिक नीतियों पर फोकस राजनीति से अलग चौधरी चरण सिंह गांव, खेत, खलिहान और किसानों की सियासत करते थे और यही उन्हें बाकी राजनीतिज्ञों से अलग बनाता था. अपनी इन्हीं जमीनी ताकत के बल पर दो बार यूपी के सीएम और फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.'

गैर-कांग्रेसवाद की सियासत की कैसे पड़ी बुनियाद?

पॉल आर ब्रास लिखते हैं कि आजादी के बाद के शुरुआती दो दशक तक चरण सिंह ने भी कांग्रेस की सियासत की और बाद के दो दशक तक लोकदल के जरिए विपक्ष की राजनीति. चौधरी चरण सिंह की सियासी ताकत के समर्थन से ही जनता पार्टी इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता के होते हुए पहली गैरकांग्रेसी सरकार बना पाने में सक्षम हो पाई और बाद में जनता दल परिवार की कई राज्यों में उभरी सियासत भी उन्हीं की विरासत का हिस्सा मानी जानी चाहिए. राम मनोहर लोहिया यूपी में पिछड़े वर्गों की सियासत पर कहा करते थे कि 'पिछड़ा पावे सौ में साठ'. राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आकर चौधरी चरण सिंह ने गैरकांग्रेसवाद की सियासत शुरू की और यूपी में पहली गैरकांग्रेसी सरकार दी. वहीं बाद में केंद्र में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनवाने में भी अहम भूमिका अदा की. बाद में बिहार-यूपी जैसे राज्यों में गैरकांग्रेसवाद की लहर स्थापित करने के पीछे चौधरी चरण सिंह की सियासी लकीर ने बड़ी भूमिका अदा की.

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चौधरी चरण सिंह समझते थे सियासत की जमीनी नब्ज...

कहा जाता है कि सियासत की धारा समाज की नब्ज को पकड़कर बदली जा सकती है और इसके लिए जरूरी है कि नेता जमीन पर उतरें, लोगों की समस्याओं को और भावनाओं को समझे. सियासत में जमीनी पकड़ बनाने का चौधरी चरण सिंह का अनोखा तरीका कैसे लोगों को जोड़े रखता था इसका एक किस्सा मशहूर है सन 1979 का. जब वे प्रधानमंत्री थे और आम किसान के वेष में कुर्ता-धोती पहने अपने बैल की चोरी की रपट लिखाने इटावा के एक थाने में पहुंच गए. पहले पुलिस की ना-नुकूर, फिर दारोगा की ओर से उपेक्षा और फिर एक सिपाही की ओर से खर्चा-पानी के डिमांड तक बात पहुंची. फिर खुलासा हुआ कि पुलिस के पास फरियाद लेकर पहुंचा किसान दरअसल देश का प्रधानमंत्री है. हंगामा मच गया और पुलिसवालों पर एक्शन हुआ. पूरा थाना सस्पेंड कर दिया गया. आज के राजनेताओं के लिए चौधरी चरण के काम करने के अंदाज से काफी कुछ सीखने लायक है.

चौधरी चरण सिंह फाइल फोटो

दिल्ली तक पहुंचाई किसान राजनीति की धमक

1970 के दशक में जब वे यूपी के बाद दिल्ली की सियासत में एक्टिव हुए तब उनकी किसान रैलियों ने दिल्ली के सियासी गलियारे को किसान वोटबैंक की अहमियत से रूबरू कराया. चौधरी चरण सिंह और किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की किसान रैलियों ने दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठानों को पश्चिमी यूपी के किसानों की ताकत का बार-बार एहसास कराया. इमरजेंसी के बाद मोरारजी देसाई की जिस सरकार को चरण सिंह ने समर्थन देकर बनवाया था दो साल बाद उसी सरकार के खिलाफ चरण सिंह उतर गए. 1978 के आखिर तक चरण सिंह ने मोरारजी की सरकार के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया और दिल्ली में किसान रैलियों के नजारे आम हो गए. मोरार जी की सरकार आखिरकार गिर गई और कांग्रेस के समर्थन से चरण सिंह की अपनी सरकार बनी जो 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक करीब 7 महीने चली.

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क्यों दशकों बाद भी कारगर है ये फॉर्मूला?

जातीय वोटबैंक को मजबूत करने के लिए चरण सिंह ने बैकवर्ड जातियों को जोड़ा. पहले यूपी में पिछड़ी जातियों को आरक्षण का प्रस्ताव मंजूर कराकर और फिर केंद्र में जनता पार्टी की सरकार के दौरान मंडल आयोग की सिफारिशों को तैयार कराने में अहम भूमिका निभाई. चरण सिंह हमेशा छोटे और मध्यम स्तर के किसानों की सियासत पर जोर देते थे. चरण सिंह लगातार किसानों के राजनीतिक रिप्रेजेंटेशन के लिए काम करते रहे. इसके लिए चरण सिंह ने पश्चिमी यूपी के सामाजिक ताने-बाने को राजनीतिक पावर का आकार दिया. जाटों के साथ-साथ यादव-मुस्लिम वोटबैंक को जोड़कर चरण सिंह ने एक मजबूत आधार बनाया.

पहले ये वोटबैंक चौधरी चरण सिंह की भारतीय लोकदल का आधार बनी और फिर बाद में बेटे अजीत सिंह की आरएलडी की सियासत का बेस भी यही समीकरण रहा. पश्चिमी यूपी की सियासत में चौधरी चरण सिंह के बाद करीब 3 दशकों तक उनके बेटे अजीत सिंह ने विरासत संभाली और राज्य से लेकर केंद्र की सत्ता तक में हिस्सेदारी पाई और अब उनके पोते जयंत चौधरी दावा पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि, 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद से पश्चिमी यूपी में ये समीकरण टूट सा गया था लेकिन किसान आंदोलन के बाद बदले हुए माहौल में सपा-आरएलडी गठबंधन की उम्मीदें फिर से जगी हैं. अब 2022 के चुनाव में भी सपा और आरएलडी का गठबंधन चौधरी चरण सिंह के इसी फॉर्मूले पर नजर गड़ाए हुए है.

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