उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियां जाति के बिसात पर अपने-अपने सियासी समीकरण बनाने में जुट गई हैं. बीजेपी और सपा दोनों ही अपने परंपरागत वोटों के साथ बसपा के हार्डकोर जाटव वोटबैंक पर नजर गड़ाए बैठी हैं.
इसी के मद्देनजर बीजेपी मायावती का मुकाबला करने के लिए उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल बेबीरानी मौर्य को जाटव चेहरे के तौर पर स्थापित करने में जुट गई है तो अखिलेश यादव ने बसपा से सपा में आए दलित नेताओं के सहारे सूबे की 45 सुरक्षित सीटों पर जाटव प्रत्याशी उतारने की रणनीति बनाई है.
बेबीरानी मौर्य को बीजेपी जाटव नेता बनाने में जुटी
मायावती के जाटव वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए बीजेपी ने बेबीरानी मौर्य को पूरी ताकत से यूपी के चुनावी मैदान में उतार दिया है. यही वजह है कि बीजेपी बेबीरानी मौर्य को जाटव बताने में जुट गई है. अवध क्षेत्र के बीजेपी अनुसूचित मोर्चा ने बेबी रानी मौर्य के पार्टी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनने के स्वागत में कार्यक्रम रखा था, जिसमें उनके नाम से साथ बकायदा 'जाटव' लिखा गया था जबकि इससे पहले तक सिर्फ बेबीरानी मौर्य लिखा जाता रहा है. इससे साफ जाहिर होता है कि बीजेपी उन्हें दलितों के बीच एक जाटव नेता के तौर पर स्थापित करने में जुट गई है.
बता दें कि बीजेपी हाईकमान ने इसी रणनीति के तहत पिछले दिनों बेबीरानी मौर्य से उत्तराखंड के राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलाकर उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नियुक्त किया. सूबे में 22 फीसदी दलित वोटों में आधे से ज्यादा जाटव वोटर है, जो बसपा का हार्डकोर वोटबैंक माना जाता है. यूपी के ब्रज क्षेत्र और पश्चिम यूपी में जाटव वोट बड़ी संख्या में है और मायावती के साथ मजबूती से जुड़े हुए हैं.
सियासी संदेश देने की कोशिश
वहीं, बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बेबीरानी मौर्य महिला होने के साथ-साथ आगरा से हैं और जाटव समाज से हैं, लेकिन उनके नाम के साथ 'मौर्य' लगा होने के चलते उनकी पहचान कभी जाटव नेता के तौर पर नहीं रही है. इसकी वजह यह है कि यूपी में मौर्य उपनाम ओबीसी के लोग लगाते हैं. बीजेपी के कार्यक्रम में बेबीरानी के नाम के साथ जाटव जोड़ने को सियासी संदेश देने की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है.
बीजेपी ने सूबे में जाटव वोट को साधने के लिए ही बेबीरानी पर दांव खेला है. यूपी के ब्रज, पश्चिम, अवध, कानपुर-बुंदेलखंड, काशी और गोरखपुर क्षेत्र में बेबीरानी की एक-एक बड़ी सभा कराने के साथ सभी 75 जिलों में बेबीरानी की चुनावी सभाएं और सम्मेलन कराए जाने की रणनीति बनाई गई है, जिसका आगाज हो गया है. बीजेपी के यूपी चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान की पहली चुनावी बैठक में बेबीरानी को लेकर योजना बनाई गई थी. बेबीरानी मौर्य की हर क्षेत्र में एक-एक बड़ी सभाएं कराई जाएंगी. इसमें क्षेत्र के सभी जिलों की दलित जातियों के साथ-साथ खासतौर पर जाटव समाज के लोगों को जुटाने का प्लान बनाया गया था.
जेपी नड्डा का जाटव को साधने का प्लान
हालांकि, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पिछले महीने हुए यूपी के दौरे से ही मायावती के हार्डकोर जाटव वोट बैंक में सेंध लगाने की नींव रख दी थी. इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में आयोजित ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों के सम्मेलन में नड्डा का स्वागत चित्रकूट के जिला पंचायत अध्यक्ष अशोक जाटव से कराया गया था.
वहीं, जेपी नड्डा ने सहारनपुर की बलिया खेड़ा की ब्लॉक प्रमुख सोनिया जाटव का स्वागत किया था. उसी दिन शाम को प्रदेश मुख्यालय में हुई बैठक में मायावती के जाटव वोट बैंक में सेंध लगाने की योजना भी बनी थी, जिसके तहत अब बेबीरानी मौर्य के स्वागत कार्यक्रम के बहाने उन्हें जाटव नेता के तौर पर स्थापित करना बीजेपी ने शुरू कर दिया है.
सवर्ण जातियों से लड़ना नहीं है: बेबीरानी
लखनऊ में अपने स्वागत कार्यक्रम में बेबी रानी मौर्य ने कहा कि जितना आप कार्यकर्ता बनकर काम करेंगे उतना पार्टी में आप ऊपर जाएंगे. उन्होंने कहा कि जब मुझसे शीर्ष नेतृत्व ने कहा कि आपको दलित, मजलूम की सेवा करनी है तो मुझे लगा कि राजभवन में रहकर कुछ नहीं मिल रहा है और अब आपके लिए सेवा भाव से काम करूंगी. आपके लिए जिससे भी लड़ना पड़ेगा उससे लड़ूंगी. बेबीरानी ने कहा कि सवर्ण जाति के भाई बहनों से प्यार बढ़ाना है, उनसे लड़ना नहीं है क्योंकि वो आपका हाथ पकड़कर आगे ले जा रहे हैं. साथ ही कहा कि मेरे कंधे को मजबूत करिए क्योंकि पार्टी ने जो जिम्मेदारी दी है वो आपकी मदद के बिना संभव नहीं है.
सपा की नजर भी मायावती के वोटबैंक पर
वहीं, यूपी के 22 फीसदी दलित वोटबैंक पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव इस बार नजर जमाए हुए हैं. बसपा के दलित नेताओं को अखिलेश अपने खेमे में मिलाने के बाद अब 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में 85 दलित आरक्षित सीटों में से करीब 45 सीटों पर जाटव समाज के कैंडिडेट उतारने की तैयारी में हैं. जाटव के बाद सपा दूसरे नंबर पर पासी समुदाय को अहमियत देगी, जिन्हें करीब डेढ़ दर्जन सीटों पर प्रत्याशी बनाया जा सकता है. साथ ही बाकी बची सीटों पर गैर-जाटव दलित जातियों से आने वाले नेताओं को सपा ने टिकट देने की रणनीति बनाई है.
यूपी में ओबीसी समुदाय के बाद दूसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी 22 फीसदी वाले दलित समुदाय की है, जो चुनाव में किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता है. हालांकि, 22 फीसदी दलित वोटबैंक जाटव और गैर-जाटव के बीच बंटा हुआ है. दलित समुदाय में सबसे बड़ी संख्या 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैर-जाटव दलित की है. यूपी में दलितों की कुल 66 उपजातियां हैं, जिनमें 55 ऐसी उपजातियां हैं, जो संख्या में ज्यादा नहीं हैं.
यूपी में जाटव और गैर-जाटव वोटर
दलितों में 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की अन्य जो उपजातियां हैं, उनकी संख्या 46 फीसदी के करीब है. पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक करीब 5 फीसदी हैं. 2012 के बाद से बसपा का सियासी ग्राफ लगातार गिरा है, जिसमें गैर-जाटव दलित भी मायावती से दूर हुआ है.
ऐसे में अब जाटव वोटों पर सपा से लेकर बीजेपी तक की नजर है तो भीम आर्मी के चंद्रशेखर भी इसी जाटव वोट पर नजर रखे हुए हैं. चंद्रशेखर भी पश्चिम यूपी से आते हैं और जाटव समाज से हैं. ऐसे में देखना है कि जाटव समाज 2022 के चुनाव में किसके साथ जाता है.
उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की संख्या 20 फीसदी से अधिक है. सूबे में सबसे ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौर-बाराबंकी में 25-25 फीसदी हैं. इसके अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित समुदाय निर्णायक भूमिका में है. यूपी में 17 लोकसभा और 85 विधानसभा सीटें दलित समुदाय के लिए रिजर्व हैं.