
Hardoi sadar assembly Seat: उत्तर प्रदेश का हरदोई सदर विधानसभा सीट प्रदेश की उन चंद सीटों में से है जहां चुनाव में सपा, बसपा, कांग्रेस और निर्दलीय तक को जीत मिली लेकिन जनसंघ या भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सफलता से बेहद दूर रही. यहां की राजनीतिक क्षेत्र में नरेश अग्रवाल और सत्ता के लिए दल बदलने का जो इतिहास है वह ही यहां की पहचान है.
2012 में परिसीमन में तीन विधानसभा क्षेत्र हरदोई-सुरसा, बावन-हरियावां और अहिरोरी विकास खंड का भूगोल बदलकर नए विधानसभा क्षेत्र के रूप में हरदोई सदर सीट की सीमांकन हुआ. भले ही इस सीट की सीमाओं को बदल दिया गया, लेकिन इतिहास अभी भी कायम है. जहां एक परिवार के बीच हरदोई सदर की राजनीति सिमट गई. वहीं भाजपा को इस सीट से अब तक जीत हासिल नहीं हो सकी.
सामजिक तानाबाना
2019 के आंकड़ों के अनुसार हरदोई सदर विधानसभा सीट पर कुल 401532 मतदाता है जिनमें 216198 पुरुष और 185318 महिला मतदाता हैं. अगर जातीय समीकरण के हिसाब से देखें तो अनुसूचित जाति के मतदाताओं की संख्या लगभग 1,10000 जिनमें पासी मतदाता 60 हजार से अधिक, इसके बाद करीब 40 हजार ब्राह्मण और 35 हजार ठाकुर मतदाता, 30 हजार मुस्लिम और करीब 28 हजार वैश्य मतदाता हैं.
इसके अलावा कुशवाहा और पाल समाज के भी करीब 40 हजार मतदाता इस विधानसभा सीट का हिस्सा हैं. इसके अतिरिक्त कहार और तेली मतदाता भी इस सीट पर काफी संख्या में हैं.
इसे भी क्लिक करें --- Dibai Assembly Seat: दानवीर कर्ण की धरती पर इस बार किसका चलेगा सिक्का?
राजनीतिक पृष्ठभूमि
हरदोई की राजनीतिक राजधानी लखनऊ और औद्योगिक राजधानी कानपुर की गोद में बसें हरदोई जिले में आठ विधानसभा सीट है. इसमें हरदोई सदर सीट प्रमुख है. लखनऊ से 110 किलोमीटर और कानपुर से 140 किलोमीटर दूर हरदोई सदर रेलमार्ग से लेकर सड़क मार्ग से अच्छे से जुड़ा हुआ है.
आजादी के बाद से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के इतिहास पर नजर डालें तो 1951 में हरदोई (पूर्वी) नाम से पहचान वाली यह सीट आरक्षित श्रेणी में थी और सबसे पहले चुनाव में बाबू किंदर लाल जीत हासिल कर विधायक बने थे. लेकिन इसी साल वह सांसद भी चुने गए और इसके बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस के चंद्रहास (27160 मत) विजयी हुए.
वर्ष 1957 में बाबू बुलाकी राम कांग्रेस से 42530 मत हासिल कर विधानसभा पहुंचे. 1962 में कांग्रेस ने महेश सिंह को मैदान में उतारा और वह 13510 मत हासिल कर निर्वाचित हुए. 1967 में हरदोई के दिग्गज नेता धर्मगज सिंह निर्दलीय लड़े और जीत गए. इस चुनाव में कांग्रेस के राधाकृष्ण अग्रवाल दूसरे स्थान पर रहे थे. 1969 में धर्मगज सिंह की पत्नी आशा कांग्रेस के टिकट पर उतरीं और 19392 मत पाकर जीत के साथ विधानसभा पहुंचीं.
1974 के चुनाव में कांग्रेस ने श्रीश चंद्र अग्रवाल को लड़ाया और वह 16663 मत लेकर विजयी हुए. आपातकाल के बाद 1977 की विरोधी लहर में धर्मगज सिंह ने 27117 मतों के साथ सीट कांग्रेस की झोली में डाल दी. 1980 में सदर सीट से कांग्रेस ने बाबू श्रीशचंद्र अग्रवाल के पुत्र नरेश अग्रवाल को मैदान में उतारा और 28597 मत हासिल कर विधानसभा में कदम रखा था. तब भाजपा के दिग्गज नेता और जनसंघ के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गंगाभक्त सिंह 14295 मत पाकर दूसरे स्थान पर रहे थे.
1985 में कांग्रेस ने अपने ही विधायक नरेश अग्रवाल की जगह उमा त्रिपाठी को टिकट दिया और वह 24039 मत पाकर निर्वाचित हुई थी. साल 1989 में कांग्रेस ने फिर उमा त्रिपाठी को ही टिकट दिया. नरेश अग्रवाल को दूसरे जिले भेजने की बात कही गई लेकिन उन्होंने कांग्रेस छोड़कर निर्दलीय चुनाव लड़ा और 36402 मत हासिल कर विजयी हुए. कांग्रेस की उमा त्रिपाठी 26207 वोट के साथ रनर रहीं.
1991 की रामलहर में कांग्रेस ने फिर से नरेश अग्रवाल को प्रत्याशी बनाया. इस चुनाव में काफी करीबी मुकाबला हुआ लेकिन जीत नरेश अग्रवाल के हिस्से में आई. 1993 के चुनाव में सपा व बसपा ने गठबंधन से चुनाव लड़ा लेकिन कांग्रेस के नरेश अग्रवाल 41605 मत हासिल कर जीत हासिल की. 1996 के चुनाव के बाद नरेश अग्रवाल ने राजनीतिक दिशा को मोड़ दिया और कांग्रेस-बसपा के गठबंधन में वह 56744 मत लेकर जीते.
बाद में प्रदेश में लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाकर भाजपा की कल्याण सिंह सरकार को समर्थन देकर ऊर्जा मंत्री बने. बाद में प्रदेश सरकार ने उन्हें मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया तो नरेश अग्रवाल सामजवादी पार्टी से जुड़ गए और 2002 में वह पहली बार समाजवादी पार्टी की साइकिल से चुनाव लड़े और 63825 मत हासिल कर विजय पायी तो बसपा के शिवप्रसाद 37242 वोट मिले थे.
सपा सरकार में पर्यटन और परिवहन महकमे के मंत्री रहे 2007 में नरेश अग्रवाल फिर समाजवादी पार्टी से लड़े और 67317 वोट हासिल कर जीते. मई 2008 में नरेश अग्रवाल विधानसभा की सदस्यता और सपा छोड़ बसपा में चले गए और हरदोई सदर की सीट अपने पुत्र नितिन अग्रवाल को सौंप दी. उपचुनाव में बसपा से नितिन अग्रवाल 65533 वोट लेकर निर्वाचित हुए.
नए विधानसभा के परिसीमन के बाद 2012 के विधानसभा चुनाव से पूर्व दिसंबर 2011 में नरेश अग्रवाल फिर सपा में आ गए और 2012 में नितिन अग्रवाल को सपा ने उम्मीदवार बनाया तो उन्होंने 110063 मत हासिल कर रिकार्ड जीत हासिल की थी. वर्ष 2017 में समाजवादी पार्टी ने फिर नितिन अग्रवाल को प्रत्याशी बनाया और बीजेपी के राजबक्श सिंह से उन्हें करीबी मुकाबले में पांच हजार से कुछ अधिक मतों से जीत हासिल हुई. सपा के सत्ता से बाहर होते ही सत्ता संग रहने वाले नरेश अग्रवाल और उनके विधायक बेटे नितिन अग्रवाल ने सपा छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया.
2017 का जनादेश
2017 के हुए विधानसभा चुनाव में हरदोई सीट पर 14 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे और मुकाबला सपा और बीजेपी के बीच हुआ. 393551 मतदाता वाली इस सीट पर 230361 लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. यहां पर कुल 58.33 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया.
पारंपरिक रूप से नरेश अग्रवाल के परिवार के खाते में जाने वाली इस सीट पर नरेश अग्रवाल के बेटे नितिन अग्रवाल तीसरी बार सपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे थे. प्रदेश सरकार में स्वास्थ्य राज्यमंत्री नितिन अग्रवाल का मुकाबला मोदी लहर में बीजेपी के राजा बक्श सिंह से हुआ.
सपा उम्मीदवार नितिन अग्रवाल को 97735 मत जबकि उनके प्रतिद्वंदी बीजेपी के राजा बक्श सिंह को 92626 मत मिले जबकि बसपा के धर्मवीर सिंह पन्ने को 30628 मत मिले. इस तरह से नितिन अग्रवाल करीबी मुकाबले में पांच हजार से अधिक मतों से जीतकर इस पुश्तैनी सीट को बचाने में कामयाब रहे.
रिपोर्ट कार्ड
हरदोई सदर से विधायक नितिन अग्रवाल का जन्म 9 अगस्त 1981 को हुआ. नितिन अग्रवाल के पिता का नाम नरेश अग्रवाल हैं जो राजनीतिक दलबदल के मामले में यूपी के सर्वाधिक चर्चित नेताओ में से एक हैं. इस सीट पर नरेश अग्रवाल खुद सात बार विधायक चुने गए. जबकि उनके बाबा श्रीश चंद्र अग्रवाल भी एक बार विधायक रहे.
नितिन अग्रवाल की शुरुआती शिक्षा हरदोई में हुई. उसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक के बाद पुणे के सिम्बोसिस कालेज से एमबीए की डिग्री हासिल की. एमबीए करके गुरुग्राम में नौकरी करने वाले नितिन अग्रवाल को उनके पिता नरेश अग्रवाल सक्रीय राजनीति में लेकर आए.
2007 में नरेश अग्रवाल के सपा से इस्तीफा देने के बाद 2008 उपचुनाव में नितिन अग्रवाल बसपा से उनकी सीट पर चुनाव लड़े और पहली बार विधानसभा पहुंचे. उसके बाद अपने पिता की तरह उनका भी बसपा से मोहभंग हो गया और अपने पिता के साथ सपा में शामिल हो गए और 2012 का चुनाव सपा से लड़कर दोबारा विधायक बने. सपा सरकार में उन्हें स्वास्थ्य राज्यमंत्री और बाद में लघु उद्योग विकास में स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री बनाया गया. 2017 का चुनाव भी नितिन सपा के टिकट से लड़े और करीबी मुकाबले में जीत हासिल की. प्रदेश में सरकार परिवर्तन के बाद नितिन के पिता नरेश अग्रवाल का सपा से राज्यसभा का टिकट नहीं मिलने के कारण मोहभंग हुआ और 2018 में पिता-पुत्र दोनों बीजेपी में शामिल हो गए.
नितिन अग्रवाल को राजनीति विरासत में मिली है. इस सीट पर वह पिता और परिवार के कारण राजनीतिक पकड़ बनाए हुए हैं. बिना किसी जातीय समीकरण के पक्ष के बाद भी दूसरी जाति की लामबंदी करके अग्रवाल परिवार का इस सीट पर दबदबा बना रहा. नरेश अग्रवाल के अपने कार्यकाल में बिजली के पावर स्टेशन, रोडवेज बसअड्डा जैसे बड़े कार्यों के अलावा नितिन अग्रवाल ने सौ बेड अस्पताल, महिला अस्पताल अपने सपा के कार्यकाल में बनवाया. इस कार्यकाल में उनके नाम बावन स्वास्थ्य केंद्र पर आक्सीजन प्लांट लगवाने जैसी उपलब्धि है.