पश्चिमी यूपी का मुरादाबाद जिला हस्तशिल्प के लिए मशहूर है. पीतल हो या लकड़ी, यहां बनाए गए हस्तशिल्प के प्रोडक्ट्स को देश-दुनिया के मार्केट में बेचा जाता है. यही वजह है कि मुरादाबाद को पीतल नगरी के नाम से भी जाना जाता है. मुरादाबाद की बिरयानी भी एक अलग रेसिपी है, जो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी काफी मशहूर है. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की ससुराल भी मुरादाबाद ही है.
मुरादाबाद यूपी का सीमाई जिला है. इसकी सीमा उत्तराखंड से जुड़ती है. यहां से नैनीताल काफी करीब है. मुरादाबाद उत्तर रेलवे का मंडल कार्यालय भी है और अब यहां एयरपोर्ट भी आ गया है.
पहले यह शहर चौपला नाम से जाना जाता था. मुगलकाल में शाहजहां के बेटे मुराद के नाम पर इसका नाम मुरादाबाद पड़ गया. 1624 ई. में सम्भल के गर्वनर रुस्तम खान ने मुरादाबाद शहर पर कब्जा कर लिया था लेकिन मुरादाबाद शहर की स्थापना मुगल शासक शाहजहां के पुत्र मुराद बख्श ने की थी.
हिंदू और मुस्लिम आबादी लगभग बराबर
सियासी तौर पर ये जिला काफी अहम है. यूपी के 75 जिलों में ये एकमात्र जिला है जहां हिंदू और मुसलमानों की आबादी लगभग बराबर है. बाकी सिख और ईसाई आबादी नाममात्र की है. लिहाजा, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर हिंदू और मुसलमानों के बीच ही समीकरण साधे जाते हैं.
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मुरादाबाद की आबादी 50 लाख के करीब हुआ करती थी, लेकिन 2011 में इससे सम्भल के रूप में एक नया जिला बना दिया गया. जिसके बाद यहां की आबादी 31 लाख से ज्यादा हो गई. अकेले मुरादाबाद शहर की आबादी करीब दस लाख है. जिले में मतदाताओं की संख्या करीब 22 लाख है. जिसमें पुरुष मतदाता 12 लाख और महिला मतदाता 10 लाख के करीब है.
जिले में 6 विधानसभा सीटें
मुरादाबाद जनपद में 6 विधानसभा आती हैं. इनमें मुरादाबाद नगर, मुरादाबाद देहात, ठाकुरद्वारा, कांठ, बिलारी और कुंदरकी विधानसभा शामिल हैं. मुरादाबाद में सिर्फ एक लोकसभा सीट है जिसमें जनपद बिजनौर की बढ़ापुर विधानसभा को भी शामिल किया गया है.
फिलहाल, जिले की राजनीति में भाजपा के पूर्व सांसद कुंवर सर्वेश सिंह का दबदबा माना जाता है. सर्वेश सिंह की गिनती बाहुबली नेताओं में भी की जाती है. 2014 में वो मुरादाबाद सीट से सांसद बने थे, लेकिन 2019 में बसपा-सपा के गठजोड़ के सामने वो पिछड़ गए और सपा के एस.टी हसन से मात खा गए. हांलाकि, 2014 में कुंवर सर्वेश ने एसटी हसन को हरा दिया था. इससे पहले 2009 में इस सीट पर कांग्रेस पूर्व भारतीय कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन को टिकट दिया था और उन्होंने शानदार जीत दर्ज की थी. हालांकि, वो एक पैराशूट कैंडिडेट के तौर पर यहां आए थे, जिसका नतीजा ये रहा कि कांग्रेस की जड़ें यहां मजबूत नहीं हो सकीं.
अब कांग्रेस की तरफ से शायर और नेता इमरान प्रतापगढ़ी यहां अपनी पकड़ बनाने में लगे हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव वो भले ही यहां से हार गए हों, लेकिन मुरादाबाद पर उनका फोकस कम नहीं हुआ है. अब जबकि कांग्रेस ने उन्हें अपनी पार्टी में अल्पसंख्यक मोर्चे का अध्यक्ष बनाकर बड़ी जिम्मेदारी दे दी है तो उनके लिए यहां खुद को साबित करनी की चुनौती और भी बड़ी है.
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सपा की मजबूती वाला जिला
माना जाता है कि पश्चिमी यूपी में सपा का वर्चस्व कमोबेश कम है. कई जिलों में मुस्लिमों की आबादी 40-50 फीसदी होने के बावजूद सपा के लिए नतीजे उतने प्रभावशाली नहीं रहे हैं. इसकी वजह ये रही, कि बसपा से मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं और मुस्लिम-दलित का गठजोड़ आसानी से चुनाव जीत जाता है. लेकिन इस बार हालात अलग हैं.
लेकिन मुरादाबाद में सपा की मजबूती हमेशा से नजर आती है. 2017 के विधानसभा चुनाव में भी जहां भाजपा लहर के आगे सब दल और समीकरण फीके पड़ गए थे, इस जिले की 6 में से 4 सीटों पर सपा जीती थी. जबकि शेष दो सीटें भाजपा के खाते में गई थीं.
कांठ सीट पर भाजपा के राजेश कुमार सिंह उर्फ़ चुन्नू, ठाकुरद्वारा से समाजवादी पार्टी के नवाबजान, मुरादाबाद देहात से समाजवादी पार्टी के हाजी इकराम कुरैशी, मुरादाबाद नगर से भाजपा के रितेश गुप्ता, कुन्दरकी से समाजवादी पार्टी के हाजी रिजवान और बिलारी से समाजवादी पार्टी से मोहम्मद फहीम विधायक हैं.
ये जिला रामपुर से सटा है. लिहाजा, सपा के कद्दावर नेता आजम खां का यहां गहरा प्रभाव है. माना जाता है कि आजम खां की पसंद के लोगों को ही यहां टिकट भी दिए जाते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी ये देखने को मिला था, जब पार्टी ने इकराम कुरैशी को टिकट दिया था, लेकिन अंत में नाम बदलकर एसटी हसन को उतारना पड़ा था. एसटी हसन आजम खां के बेहद करीबी माने जाते हैं. वो मुरादाबाद के मेयर भी रहे हैं. अब जबकि आजम खां लंबे समय से जेल में हैं तो एसटी हसन ही इलाके से खासकर अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों में आवाज उठाते हैं. कई बार उनके बयान विवाद का केंद्र बन जाते हैं.
(शरद गौतम के इनपुट के साथ)