उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के शुरुआती दो चरणों में वोटिंग जाटलैंड कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होगी. पश्चिमी यूपी में जैसे-जैसे वोटिंग का दिन करीब आ रहा है, वैसे-वैसे यहां की सियासी तपिश बढ़ती जा रही है. साथ ही ध्रुवीकरण की कवायद भी तेज हो रही है. बीजेपी और उसके तमाम दिग्गज नेता 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों और कैराना से हिंदुओं के पलायन को मुद्दा बनाते हुए तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार को निशाना बना रहे हैं.
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से लेकर सीएम योगी आदित्यनाथ तक अपने भाषणों के जरिए लोगों से मुजफ्फरनगर दंगों को न भूलने की बात कह रहे हैं. कैराना का पलायन भी उनके भाषणों का मुख्य मुद्दा हैं. सवाल उठता है कि आखिर पश्चिमी यूपी में बीजेपी क्यों वोटरों को मुजफ्फरनगर दंगे याद दिला रही है? बीजेपी इसके पीछे तर्क ये दे रही है कि योगी राज के पिछले पांच साल में राज्य में एक भी दंगा नहीं हुआ है इसलिए ये चुनावी मुद्दा है. हालांकि पार्टी की इस कवायद के पीछे पश्चिमी यूपी के जातीय-धार्मिक समीकरण भी हैं.
यूपी चुनाव के पहले चरण में 10 फरवरी को 11 जिलों की 58 सीटों पर मतदान होना है तो दूसरे चरण में 14 फरवरी को 9 जिलों की 55 विधानसभा सीटों पर मतदान होगा. दोनों चरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही ज्यादातर इलाकों में चुनाव होंगे, जहां जाट और मुस्लिम वोटर काफी अहम माने जाते हैं. इस बार चुनाव में सपा और आरएलडी मिलकर किस्मत आजमा रही हैं और जाट-मुस्लिम एकता का नारा लगा रही हैं. बीजेपी के लिए यही चिंता का सबब है.
पश्चिमी यूपी में मुजफ्फरनगर दंगे का जिक्र
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जब चुनाव प्रचार के लिए मुजफ्फरनगर पहुंचे तो उन्होंने कहा कि याद है कि कैसे उस समय की अखिलेश यादव सरकार ने दंगा पीड़ितों को आरोपी बना दिया था और जो आरोपी थे उन्हें पीड़ित बना दिया. केवल बीजेपी ही थी, जो दंगा पीड़ितों के साथ चट्टान की तरह खड़ी रही थी.
अमित शाह ने यहां तक कहा कि वह मुजफ्फरनगर और पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता से पूछने आए हैं कि क्या जनता 2013 के दंगों को भूल गई है. अगर नहीं भूली है तो वोट देने में गलती मत करना. वरना फिर से वही दंगे कराने वाले लोग लखनऊ की गद्दी पर बैठ जाएंगे. वहीं, बागपत में सीएम योगी ने कहा कि समाजवादी पार्टी की लाल टोपी मुजफ्फरनगर में मारे गए हिंदुओं और अयोध्या में मारे गए राम भक्तों के खून से रंगी हुई है.
मुजफ्फरनगर दंगे से बीजेपी को फायदा
दरअसल, पश्चिम यूपी में जाट और मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं. जाट भावनात्मक रूप से पूर्व पीएम चौधरी चरण सिंह से जुड़ने की वजह से आरएलडी के ज्यादा करीब रहा है, लेकिन 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों से पश्चिमी यूपी के समीकरण बदल गए. जाट और मुस्लिमों के बीच आई दूरी का सियासी फायदा बीजेपी को मिला. 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में जाटों ने बीजेपी को एकमुश्त वोट किया और बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में विरोधी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया. जाटों की पार्टी मानी जाने वाली राष्ट्रीय लोकदल का खाता भी नहीं खुल सका था. चौधरी अजित सिंह से लेकर जयंत चौधरी तक को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था.
किसान आंदोलन से रालोद को मिली संजीवनी
हालांकि, किसान आंदोलन के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति बदली है. पूर्व केंद्रीय मंत्री चौ. अजित सिंह के निधन से सहानुभूति और किसान आंदोलन की लहर पर सवार होकर आरएलडी ने पंचायत चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया. इससे जयंत सिंह की राजनीति को भी नई ऑक्सीजन मिली. उन्होंने सपा के साथ गठबंधन कर पश्चिम की जाट बहुल कई सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं, जिसकी घेरेबंदी में अब भाजपा ने मोर्चा खोल दिया है.
जाट समुदाय की नाराजगी पश्चिमी यूपी में बीजेपी के लिए चिंता का सबब है. यही कारण है कि वह डैमेज कंट्रोल मोड में है. इसकी कमान खुद गृह मंत्री अमित शाह ने संभाल ली है. पश्चिमी यूपी के इलाके में चुनावी प्रचार अभियान के उतरने से पहले अमित शाह ने दिल्ली में जाट समाज के नेताओं के साथ पार्टी सांसद प्रवेश वर्मा के घर पर मीटिंग की, और अब वे सियासी रण में उतरकर मुजफ्फरनगर दंगे और कैराना पलायन की याद दिला रहे हैं.
जाट पर बीजेपी की पकड़ ढीली हुई
राजनीतिक विश्लेषक सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि बीजेपी की 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों की याद ताजा कर पश्चिमी यूपी के चुनाव को ध्रुवीकरण की ओर ले जाने की कवायद है. ये किसान आंदोलन खत्म होने के बावजूद नाराज माने जा रहे जाटों को बीजेपी के पक्ष में लामबंद करने की कोशिश भी है. 2014 के चुनाव से पहले तक पश्चिमी यूपी में बीजेपी का कोई सियासी आधार नहीं था. मुजफ्फरनगर दंगे से बीजेपी ने जिस तरह पश्चिमी यूपी में जाट समाज में अपनी पकड़ बनाई, वो कहीं न कहीं अब ढीली पड़ गई है.
सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि पश्चिमी यूपी में गंगा एक्सप्रेस-वे सहित तमाम विकास कार्यों के बावजूद बीजेपी को मुजफ्फरनगर दंगे और कैराना के पलायन को मुद्दा बनाना पड़ रहा है तो इसका मतलब साफ है कि सपा और आरएलडी का गठबंधन मजबूत है और बीजेपी का सियासी समीकरण गड़बड़ा गया है. केंद्र सरकार कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद भी जाटों के बीच नाराजगी दूर नहीं कर सकी.
चुनावी पंडित मानते हैं कि अमित शाह इस हलचल को कई माह पहले भांप चुके थे. इसीलिए 29 अक्टूबर को उन्होंने लखनऊ में कैराना पलायन का मुद्दा उठाकर चुनावी एजेंडा सेट करने की कोशिश कथी. इसके बाद आठ नवंबर 2021 को सीएम योगी और 22 जनवरी 2022 को अमित शाह ने कैराना पहुंचकर पलायन पीड़ितों से मुलाकात की. इसके जरिए बीजेपी ने किसानों के इर्द-गिर्द घूमती पश्चिम उत्तर प्रदेश की राजनीति को कैराना के रूप में नया ध्रुव दिया तो मुजफ्फरनगर दंगे के बहाने एक बार फिर से 2017 के नतीजे दोहराने की पार्टी की कोशिश है.