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UP Election first phase seat: जहां यूपी में सबसे पहले पड़ेंगे वोट, क्या कहता है पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी गणित?

उत्तर प्रदेश चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western UP election date) में ही फिर बिगुल बजेगा जहां तमाम राज्यों से पहले 10 फरवरी को पहले चरण का चुनाव शुरू हो जाएगा. तो क्या जो शुरुआत में बढ़त हासिल करेगा  उसे आखिरी दौर तक एक एडवांटेज रहेगा या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश बाकी इलाकों से बिल्कुल अलग है.

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UP Elections
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स्टोरी हाइलाइट्स
  • किसान आंदोलन जरूर बनेगा बड़ा मुद्दा
  • कांग्रेस ने खेला महिला कल्याण कार्ड

UP Chunav Phase 1 Voting: चुनाव आयोग ने पांच राज्यों में चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है. बिगुल इस बार फिर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही बजेगा, जहां तमाम राज्यों से पहले 10 फरवरी को पहले चरण का चुनाव शुरू हो जाएगा. तो क्या जो शुरुआत में बढ़त हासिल करेगा, उसे आखिरी दौर तक एक एडवांटेज रहेगा या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश बाकी इलाकों से बिल्कुल अलग है. वहां की सियासत क्या उत्तर प्रदेश के बाकी इलाकों में भी असर लाएगी या फिर इसका कोई राजनीतिक महत्व नहीं होगा?

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इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सियासी हवा किस ओर बह रही है? क्या 2017 के परिणामों को दोहराया जाएगा या फिर इस बार यह इलाका एक नई इबारत लिखेगा? यह सवाल हर किसी के जेहन में है और इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने की हम कोशिश करेंगे कि आखिरकार पहले दौर में पहला फायदा किसे मिल सकता है और किन मुद्दों के आधार पर.

आखिरी परिणामों पर भी दिखता है पश्चिमी UP में पहले वोट का असर

ऐतिहासिक तौर पर देखें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले वोट डाले जाते रहे हैं और इसका असर आखिरी परिणामों पर भी दिखता रहा है. 5 साल पहले यानी 2017 के चुनाव की बात करें तो बीजेपी की सुनामी ने इस पूरे इलाके को समेट लिया था. इस इलाके में भारतीय जनता पार्टी ने 76 सीटों में से 66 सीटों पर जीत हासिल की थी और यह तब हुआ था जब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था. सपा को महज 4 सीटें ही मिल पाई थीं और कांग्रेस को 2 सीटें.

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बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी को भी इस इलाके में काफी मजबूत माना जाता है क्योंकि एक तो मायावती इसी इलाके से आती हैं और दूसरा इस इलाके में अनुसूचित जाति वोटों की तादाद काफी अधिक है. लेकिन इन सबके बावजूद मायावती की पार्टी ने पिछली बार 76 में से सिर्फ 3 सीटों पर जीत हासिल की थी. जाट बहुल इलाके में चौधरी चरण सिंह और उनके परिवार की भूमिका हमेशा काफी महत्वपूर्ण रही है. 2017 में राष्ट्रीय लोक दल ने चौधरी अजीत सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और सिर्फ एक सीट जीत पाई और वह भी बागपत जिले की छपरौली सीट जहां चौधरी चरण सिंह का गांव है. यानी कुल मिलाकर के बीजेपी ने 5 साल पहले अपने दम पर बाकी सभी पार्टियों की हवा पूरी तरह निकाल दी थी.

किसान आंदोलन जरूर बनेगा बड़ा मुद्दा

लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग है और इसकी वजह कई सारी हैं. इन बातों को समझने से पहले थोड़ा हमें यह देखना होगा कि आखिरकार इस बार कौन से मुद्दे ऐसे हैं जो पार्टियों की किस्मत तय करने वाले हैं. खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश यानी हरित प्रदेश में. क्योंकि यह क्षेत्र किसानों और किसानी के मुद्दे के लिए जाना जाता है इसलिए सबसे बड़े मुद्दे में से एक पिछले साल चला किसान आंदोलन जरूर बनेगा.

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पिछले साल नवंबर तक तो हालत यह थी कि इस आंदोलन से इस क्षेत्र का लगभग हर समुदाय जुड़ा हुआ था. हालांकि सरकार इसे एक समुदाय विशेष यानी जाटों का आंदोलन बता रही थी लेकिन जमीनी तौर पर इसका असर हर ओर दिखता था. नवंबर में जब प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की थी कि तीनों कृषि कानून वापस लिए जाएंगे तब बीजेपी की कोशिश यही थी कि इस समुदाय में जो पार्टी और सरकार के लिए नाराजगी है उसको रोका जाए और स्थिति बेहतर की जाए. इसका फायदा गुस्से को सीमित करने में कुछ हद तक तो हुआ है लेकिन कितना इसकी अग्निपरीक्षा भी आने वाले विधानसभा चुनाव में होनी है. लेकिन अब भी कई ऐसे लोकल मुद्दे हैं जिन को लेकर किसान नाराज हैं खासतौर पर प्रदेश की सरकार से. 

यूपी में और कौन- कौन से मुद्दे?

जब हमने जमीनी तौर पर अलग-अलग गांवों में जाकर किसानों से बात करने की कोशिश की तो तीन मुद्दे मुख्य तौर पर दिखे जिन को लेकर किसान खासे तौर पर नाराज नजर आए. सबसे पहला मुद्दा आवारा पशुओं का है जो किसानों की खड़ी फसल को बेहद नुकसान पहुंचा रहे हैं और उनका कोई उपाय न तो सरकार के पास है और ना ही किसानों के पास. इसकी वजह से सबसे ज्यादा फसल हानि छोटे किसानों को हो रही है और उनके लिए पशुओं के खिलाफ पहरा देना सुविधाओं की कमी की वजह से बहुत मुश्किल है. दूसरा मुद्दा गन्ने की कीमत का है. क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तमाम जिले गन्ने की पैदावार के लिए जाने जाते हैं और यहां पर बने चीनी मिल इस गन्ने के महत्वपूर्ण खरीददार हैं. इसलिए गन्ने की कीमत को लेकर के हमेशा किसान चिंतित रहते हैं और साथ ही साथ चीनी मिलो से किए गए भुगतान को लेकर भी.

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पहला मसला सरकार की तरफ से तय की गई गन्ने की कीमत है जो ज्यादातर किसान मानते हैं कि सरकार ने वायदा करने के बावजूद नहीं बढ़ाया. कितनी कीमत है वह कीमत भी शुगर मिल यानी चीनी मिल वाले तय समय यानी 15 दिनों के भीतर नहीं चुकाते हैं और कई मामलों में तो उन्हें साल इंतजार करना पड़ता है. तीसरा मुद्दा कृषि को लेकर बिजली की कीमत का है. आज भी उत्तर प्रदेश में बिजली की कीमत पड़ोसी हरियाणा और पंजाब के मुकाबले कहीं ज्यादा है. किसान कहते हैं कि हरियाणा और पंजाब के किसान ज्यादा संपन्न है फिर भी वहां कि राज्य सरकारें उन्हें ज्यादा रियायत देती हैं लेकिन उत्तर प्रदेश की सरकार बिजली के मामले में किसानों को लूट रही है और बिजली के बिल हजारों में हर महीने आते हैं. तो यह वह मुद्दे हैं जिन्हें लेकर विपक्ष खासतौर पर सरकार के खिलाफ हल्ला बोल रहा है और उन्हें उम्मीद है कि वोट इसी आधार पर उन्हें मिलेंगे.

कानून-व्यवस्था को लेकर BJP का आक्रामक प्रचार

लेकिन किसानी का मुद्दा ही सब कुछ नहीं है. बीजेपी खासतौर पर कानून-व्यवस्था को लेकर काफी आक्रामक तौर पर अपना चुनाव प्रचार कर रही है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत हमेशा चुनाव से जुड़ा हुआ है एक अहम मुद्दा रहा है. बीजेपी ने साफ तौर पर यह संदेश देना शुरू किया है कि अखिलेश राज में जो गुंडागर्दी थी उसे योगी सरकार में कम किया गया है और इसका क्रेडिट एक मजबूत सरकार को जाता है.

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पिछले दिनों जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सहारनपुर के देवबंद में एक रैली की तो वहां उन्होंने एक नया नारा भी दिया, जिसमें यह कहा गया था, "काम भी लगाम भी". मकसद साफ दिखा कि विकास कार्यों की बात तो सरकार करेगी ही लेकिन साथ ही साथ असामाजिक तत्वों पर लगाम लगाने की बात भी बीजेपी महत्वपूर्ण तौर पर इस पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में उठाएगी. इसका एक मकसद ध्रुवीकरण की राजनीति भी है पिछले कुछ चुनाव में वेस्टर्न यूपी में बीजेपी के अच्छे प्रदर्शन की एक बड़ी वजह धार्मिक तौर पर ध्रुवीकरण भी रहा है.

पूरे प्रदेश में वैसे तो मुस्लिम आबादी तकरीबन 19 फ़ीसदी है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की तादाद 26 फीसदी हो जाती है. यानी यहां पर ध्रुवीकरण का कार्ड बीजेपी खेलना चाहती है ताकि मुस्लिमों के खिलाफ हिंदुओं को लामबंद किया जा सके. पिछले कुछ चुनाव में 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर ऐसा करने में बीजेपी कामयाबी रही और उसका सियासी फायदा सीटों में तब्दील होता भी नजर आया. लेकिन इस बार विरोधी भी अपनी रणनीति बना रहे हैं और जैसा कि सितंबर में संयुक्त किसान मोर्चा के मंच से मुजफ्फरनगर में एक नारा दिया गया, जिसमें किसान नेता राकेश टिकैत ने यह नारा लगाया था "हर हर महादेव और अल्लाह हू अकबर". विपक्ष की कोशिश यही है कि इस बार ध्रुवीकरण की बीजेपी की कोशिश को किसी तरीके से कम किया जा सके.

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लेकिन बीजेपी भी इस बार सिर्फ ध्रुवीकरण की राजनीति पर ही ज्यादा फोकस नहीं कर रही है. धार्मिक मुद्दों जैसे राम मंदिर का मुद्दा काशी और मथुरा के मुद्दे के साथ-साथ विकास के मुद्दे पर भी काफी जोरदार तरीके से बीजेपी प्रचार करने में जुटी है. 24 घंटे बिजली देने के साथ-साथ इन इलाकों में सड़कों और बाकी बुनियादी सुविधाओं की बेहतरी के मुद्दे को भी पार्टी की तरफ से ताकत के साथ उठाया जा रहा है. यानी अगर विपक्षियों के पास बीजेपी को घेरने के लिए कई सारे मुद्दे हैं तो बीजेपी भी उनकी काट ढूंढने में लगी हुई है.

क्या सिर्फ मुद्दे ही इस बार तय करेंगे चुनावी गणित?

इस बार सभी पक्षों ने मुद्दों के साथ-साथ जमीनी तौर पर वोट बैंक का भी पूरा ख्याल रखा है. इस इलाके में जाति के साथ-साथ धर्म की राजनीति भी बहुत महत्वपूर्ण रोल अदा करती है. इसलिए पार्टियों का फोकस ना सिर्फ जातिगत समीकरण सही बैठाना है बल्कि धार्मिक तौर पर भी किस तरीके से संदेश दिया जाए वह भी जरूरी दिखाई पड़ता है. पिछले चुनाव में हर जाति से बीजेपी को बड़ा समर्थन हासिल हुआ था और इसी वजह से बीजेपी तकरीबन 85% सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी. जाहिर तौर पर इसकी एक बड़ी वजह ध्रुवीकरण भी रहा था. इस बार बीजेपी के इसी गणित को तोड़ने के लिए विपक्षी पार्टियां अपनी एड़ी चोटी का जोर लगा रही है.

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मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन किया है. हालांकि अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की मीटिंग के बावजूद अभी तक कौन सी पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी इसकी आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है लेकिन दोनों पार्टियों ने अब तक दो साझा रैलियां कर दी है और उससे साफ संदेश दिया है कि चुनाव सामंजस्य के साथ लड़ा जाएगा. मकसद साफ है कि इस बार किसान आंदोलन की वजह से सरकार से नाराज जाट और अन्य समुदाय इस गठबंधन के साथ आकर खड़े हो जाएं. साथी साथ मुस्लिम वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा को साधने में भी यह गठबंधन इस बार पूरी तरह से लगा हुआ है. इसमें एक बात और ध्यान देने की है की किसान आंदोलन के जरिए बड़े नेता बने राकेश टिकैत भी फिलहाल इसी गठबंधन के लिए सीधे-सीधे तो नहीं लेकिन परोक्ष रूप से चुनाव प्रचार करते हुए दिख रहे हैं.

कांग्रेस ने खेला महिला कल्याण कार्ड

मायावती की बहुजन समाज पार्टी ऐतिहासिक तौर पर इस इलाके में बहुत मजबूत रही है. उसके पास अपना एक खास वोट बैंक है जो ऐसा माना जाता है कि मायावती से आमतौर पर छिटकता नहीं है. अनुसूचित जाति और खास तौर पर जाटव वोट बैंक के सहारे मायावती कई सारी सीटों पर अच्छा खासा प्रभाव रखती हैं और अपने दम पर जीतने की हैसियत भी. दिल्ली एनसीआर के इलाकों में भी उनकी पार्टी का अच्छा खासा असर माना जाता रहा है.

हालांकि बीएसपी इस बार पूरी तरीके से चुनाव को लेकर जमीन पर सक्रिय नहीं दिखाई दे रही है फिर भी उसके वोट बैंक का क्या होगा वह भी इस इलाके में चुनावों की दिशा तय कर सकता है. कांग्रेस ने भी इस बार अपना महिला कार्ड खेला है और महिला सशक्तिकरण के नाम पर इस वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने की जुगत में लगी हुई है. मुरादाबाद की एक रैली में प्रियंका गांधी ने पिछले दिनों जमकर अखिलेश और साथ ही साथ योगी आदित्यनाथ पर भी निशाना साधा था और यह तक कहा था कि दोनों सरकारों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भलाई के लिए कुछ भी नहीं किया. 

लेकिन बात सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियों की ही नहीं है बल्केश्वर एक्सफेक्टर के तौर पर इस इलाके में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एम आई एम का रोल भी कम नहीं आंका जा रहा है. ओवैसी पिछले कुछ महीनों से लगातार इस इलाके में काफी सक्रिय रहे हैं और कई सारी बड़ी सफाई की है जिसमें खासतौर पर युवा मुस्लिम मतदाताओं का रुझान साफ देखा गया है. ओवैसी लगातार प्रदेश में मुस्लिम नेतृत्व की बात करते हैं और यही वजह है कि कई सारे वोटर उनकी बातों से सहमत तो है लेकिन क्या वह वोट भी देंगे इस पर अभी सवालिया निशान है. लेकिन अगर ओवैसी मुस्लिम वोट का एक हिस्सा लेने में कामयाब रहते हैं तो वह कईयों का गणित जरूर गड़बड़ा सकते हैं. कुछ ऐसा ही खेल युवा दलित नेता चंद्रशेखर आजाद रावण भी कर रहे हैं. चंद्रशेखर पशु उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से आते हैं और उनका भी युवा वोटरों पर खासा प्रभाव माना जाता है लेकिन वह इस बार किसके साथ चुनाव लड़ेंगे या लड़ेंगे भी या नहीं इस पर अभी उन्होंने कोई घोषणा नहीं की है.

तो क्या पश्चिमी यूपी तय करेगा पूरे प्रदेश की दिशा?

ऐसा कहना थोड़ी जल्दबाजी तो होगी क्योंकि उत्तर प्रदेश में 7 चरणों में चुनाव होने हैं और प्रदेश इतना बड़ा है कि उसमें इलाकों के हिसाब से मुद्दे भी तय होते हैं और पार्टियों का चयन भी उसी हिसाब से किया जाता है. लेकिन एक बात तो तय है कि जो भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छा करेगा उसका मनोबल बाकी चरणों के लिए काफी बढ़ा हुआ होगा. इस लिहाज से शुरुआती चरणों में यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो वोट गणित बनता है उस पर न सिर्फ पार्टियों की निगाह रहेगी बल्कि लोग भी उसे बहुत बारीकी के साथ देखेंगे.

 

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