प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बुधवार को कुशीनगर में जिस समय इंटरनेशनल एयरपोर्ट की सौगात देकर सीएम योगी के लिए सत्ता में वापसी के लिए चुनावी एजेंडा सेट कर रहे थे, उसी दौरान लखनऊ में सपा प्रमुख अखिलेश यादव और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर बैठक कर पूर्वांचल में बीजेपी के मजूबत किले को भेदने के लिए तानाबाना बुन रहे थे. राजभर और अखिलेश के हाथ मिलाने से पूर्वांचल में बीजेपी के लिए 2017 जैसे चुनावी नतीजे दोहराना आसान नहीं होगा?
दरअसल, देश की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है तो यूपी को जीतने के लिए पूर्वांचल को जीतना जरूरी माना जाता है. बीजेपी ने इसी फॉर्मूले के तहत 2017 के विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल के इलाके में बड़ी जीत दर्ज की थी. इस जीत में ओमप्रकाश राजभर के साथ-साथ छोटी-छोटी जातियों की अहम भूमिका थी, लेकिन 2022 के चुनाव में समीकरण बदल गए हैं.
बीजेपी की तर्ज पर अखिलेश का फॉर्मूला
बीजेपी के सियासी फॉर्मूले को सपा ने अपनाकर उसी के खिलाफ इस्तेमाल करने का दांव चला है. पूर्वांचल में अपने सियासी समीकरण दुरुस्त करने के लिए अखिलेश यादव ने ओमप्रकाश राजभर और संजय चौहान जैसे नेताओं के साथ हाथ मिलाया है. दोनों ही नेताओं का सियासी आधार पूर्वांचल में है.
यूपी में राजभर समुदाय भले ही 3 फीसदी के बीच है, लेकिन पूर्वांचल के जिलों में राजभर मतदाताओं की संख्या 12 से 22 फीसदी है. ऐसे ही संजय चौहान की नोनिया समाज की आबादी 1.26 फीसदी है, लेकिन पूर्वाचल में 10 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका में है. ऐसे में सपा के यादव-मुस्लिम के साथ अगर राजभर और नोनिया समाज एकजुट करने में अखिलेश सफल रहे तो बीजेपी के लिए सत्ता में वापसी की राह मुश्किल हो जाएगी.
यूपी की एक तिहाई सीटें पूर्वांचल में हैं
उत्तर प्रदेश की कुल 403 सीटों में से 162 विधानसभा सीटें पूर्वांचल इलाके में आती है, जो 33 फीसदी होती हैं. पूर्वांचल के इलाके में 28 जिले आते हैं, जो सूबे की राजनीतिक दशा और दिशा तय करते हैं. इनमें वाराणसी, जौनपुर, भदोही, मिर्जापुर, सोनभद्र, प्रयागराज, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, महाराजगंज, संतकबीरनगर, बस्ती, आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, बलिया, सिद्धार्थनगर, चंदौली, अयोध्या, श्रावस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, अंबेडकरनगर, गोंडा, बलरामपुर, अमेठी, प्रतापगढ़, कौशांबी, जिले शामिल हैं.
2017 के चुनाव में पूर्वांचल की 164 में से बीजेपी ने 115 सीट पर कब्जा जमाया था जबकि सपा ने 17, बसपा ने 14, कांग्रेस को 2 और अन्य को 16 सीटें मिली थीं. हालांकि, पिछले तीन दशक में पूर्वांचल का मतदाता कभी किसी एक पार्टी के साथ नहीं रहा. एक चुनाव के बाद दूसरे चुनाव में एक का साथ छोड़कर दूसरे का साथ पकड़ता रहा है. सपा 2012 और बसपा 2007 में पूर्वांचल में बढ़िया प्रदर्शन करने के बाद भी अपनी पकड़ मजबूत बनाए नहीं रख सकी थी.
पूर्वांचल में बीजेपी कहां कमजोर?
2017 में बीजेपी ने पूर्वांचल इलाके में भले ही क्लीन स्वीप किया था, लेकिन आधे दर्जन जिलों में विपक्ष से कम सीटें पाई थीं. बीजेपी आजमगढ़ की 10 में से सिर्फ एक सीट, जौनपुर की 9 में से 4, गाजीपुर की 7 में से 3, अंबेडकरनगर की पांच में से 2 और प्रतापगढ़ की 7 में से दो सीटें ही जीत सकी थी. 2019 के चुनाव में बीजेपी ने चार लोकसभा सीटें पूर्वांचल में गंवा दी हैं. हाल ही में हुए जिला पंचायत चुनाव में भी बीजेपी को सत्ता में रहते हुए पूर्वांचल के आजमगढ़, बलिया और संतकबीरनगर में सपा के हाथों मात खानी पड़ी है. 2022 के चुनाव में अखिलेश ने जिस तरह से राजभर और संजय चौहान से हाथ मिलाया है, बीजेपी के लिए उसके ही गढ़ पूर्वांचल में बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है.
राजभर की सियासी ताकत
ओम प्रकाश राजभर की सियासी ताकत उनका राजभर समाज है, जो पूर्वांचल के कई जिलों में राजनीतिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता है. यूपी में राजभर कुल 3 फीसदी हैं, लेकिन पूर्वांचल के जिलों में 12 से 22 फीसदी के बीच है. गाजीपुर, चंदौली, मऊ, बलिया, देवरिया, आजमगढ़, लालगंज, अंबेडकरनगर, मछलीशहर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर और भदोही में इनकी अच्छी खासी आबादी है, जो सूबे की करीब चार दर्जन विधानसभा सीटों पर असर रखते हैं.
राजभर ने 2012 के चुनाव में सूबे की 52 सीटों पर कैंडिडेट उतारे थे, लेकिन एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी. हालांकि, पार्टी को 5 फीसदी वोट जरूर मिले और 13 सीटों पर उसे 10 हजार से लेकर 48 हजार तक वोट मिले थे. इसके अलावा बाकी सीटों पर 5 हजार से ज्यादा वोट हासिल हुए थे. गाजीपुर, बलिया और वाराणसी की कुछ सीटों पर तो बीजेपी से भी ज्यादा वोट मिले थे.
राजभर से सपा को फायदे की उम्मीद
2012 के चुनाव की हार से सबक लेते हुए ओमप्रकाश राजभर ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और 2017 के चुनाव में बीजेपी के साथ मिलकर किस्मत आजमाई, जिसका सियासी फायदा दोनों पार्टियों को मिला था. यूपी की लगभग 22 सीटों पर बीजेपी की जीत में राजभर वोटबैंक बड़ा कारण था जबकि चार सीटों पर ओमप्रकाश राजभर की पार्टी को जीत मिली थी.
बीजेपी के साथ ओमप्रकाश राजभर की दोस्ती 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद टूट गई और अब अखिलेश यादव ने उनके जातीय आधार को देखते हुए हाथ मिला लिया. पूर्वांचल में बड़े फायदे की आस जगी है. 2012 के चुनाव में राजभर की पार्टी ने जिन सीटों पर अच्छा वोट हासिल किया था, उनमें से ज्यादातर सीटों पर 2017 के चुनाव में सपा दूसरे नंबर पर रही थी और कुछ सीटों पर कांग्रेस.
पूर्वांचल की बेल्थरा रोड, हाटा, सिकंदरपुर, जखनियां, शिवपुर और रोहनियां में राजभर की पार्टी को 2012 में 10 हजार से 35 हजार तक वोट मिले थे और 2017 में सपा इन सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी. फेफना और जहूराबाद में सपा तीसरे नंबर पर रही थी, लेकिन उसे दूसरे नंबर की पार्टी बसपा से थोड़े ही कम वोट मिले थे. ऐसी सीटों की संख्या 20 से ज्यादा है. ऐसे में राजभर वोट सपा के साथ जुड़ जाते हैं तो बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.
संजय चौहान का सियासी ग्राफ
पूर्वांचल में ओमप्रकाश राजभर ही नहीं, अखिलेश यादव ने संजय चौहान की जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) के साथ भी गठबंधन कर रखा है. पूर्वांचल की 10 से ज्यादा सीटों पर संजय चौहान के नोनिया समाज का वोट है, जो मऊ जिले की सभी सीटों पर 50 हजार अधिक वोटर हैं जबकि गाजीपुर के जखनियां में करीब 70 हजार वोटर हैं. इसी तरह बलिया, देवरिया, कुशीनगर, आजमगढ़, महराजगंज, चंदौली व बहराइच में भी बड़ी संख्या में उनकी बिरादरी है.
2019 के लोकसभा चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने संजय चौहान को चंदौली संसदीय सीट से सपा के टिकट पर उम्मीदवार बनाया था. इस चुनाव में वे एक नजदीकी मुकाबले में बीजेपी के महेंद्र नाथ पांडेय से महज 14,000 मतों से हार गए थे, लेकिन इसके बाद से वो अपनी जातीय अस्मिता को लेकर पूर्वांचल में सक्रिय हैं. उत्तर प्रदेश में नोनिया आबादी 1.26 फीसदी है. इसके अलावा अखिलेश ने महानदल के केशव मौर्य से भी हाथ मिलाया है, जिनकी सियासी धार पूर्वांचल के कुशीनगर, मिर्जापुर, अंबेडकरनगर, प्रतापगढ़, प्रयागराज जिले में है.
पूर्वांचल में कैसे निपटेगी बीजेपी?
पूर्वांचल की सियासी ताकत और हर चुनाव में बदलते सियासी समीकरण को देखते हुए सपा प्रमुख अखिलेश यादव का पूरा फोकस योगी के गढ़ पूर्वांचल में चुनौती देने पर है. हालांकि, योगी आदित्यनाथ खुद पूर्वांचल से हैं और 2017 के चुनाव में पूर्वांचल ने उन्हें गद्दी तक पहुंचाया है. बीजेपी इस बात को अच्छे से जानती है कि 2022 का विधानसभा चुनाव जीतना है तो पूर्वांचल को साधे रखना होगा. योगी-मोदी पूर्वांचल को विकास योजनाओं की सौगात से नवाज रहे हैं और संजय निषाद की पार्टी से भी हाथ मिला रखा है. इसके बावजूद जातीय बिसात पर सपा ऐसे-ऐसे मोहरे सेट कर रही है, जिसे मात देना बीजेपी के लिए मुश्किल हो सकता है.