उत्तर प्रदेश की सियासत में आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) के सामने अपने बाप-दादा की ढहती सियासी विरासत को बचाने की चुनौती है. ऐसे में जयंत चौधरी ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया है. सूबे में आरएलडी पहली बार किसी से गठबंधन कर चुनाव में नहीं उतर रही है बल्कि बीजेपी से लेकर कांग्रेस और बसपा सहित सभी प्रमुख दलों के साथ हाथ मिला चुकी है. ऐसे में देखना है कि 2022 के यूपी चुनाव में अखिलेश-जयंत की जोड़ी क्या सियासी गुल खिलाती है?
आरएलडी-सपा का गठबंधन
पश्चिमी यूपी के जाटलैंड में सियासी आधार माने जाने वाली आरएलडी के सितारे भले ही आज गर्दिश में हों, लेकिन एक दौर में किंगमेकर की भूमिका अदा करती रही है. मुजफ्फरनगर दंगे से बिगड़े जाट-मुस्लिम समीकरण किसान आंदोलन से फिर एक बार साथ आए हैं. यही वजह है कि आरएलडी के साथ सपा ने गठबंधन कर चुनाव में उतरने का फैसला किया. माना जा रहा है कि सीट शेयरिंग में आरएलडी को 32 से 36 सीटें मिल सकती हैं. जयंत-अखिलेश ने एक साथ मिलकर पश्चिमी यूपी में माहौल बनाना भी शुरू कर दिया है.
चौधरी अजित सिंह ने सियासत में अपने पिता चौधरी चरण सिंह की उंगली पकड़कर एंट्री की थी. साल 1980 में अजित सिंह ने सियासी पारी का आगाज किया था. चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद 1987 में वो लोकदल के अध्यक्ष बने और 1988 में जनता पार्टी के अध्यक्ष घोषित किए गए. 1989 में अजित सिंह यूपी के मुख्यमंत्री बनते-बनते रहे गए. 1999 को छोड़ दें तो अजित सिंह 1989 के बाद बागपत से लगातार 2014 तक सांसद रहे. जनता दल से अलग होकर चौधरी अजित सिंह ने 1996 में आरएलडी का गठन किया.
कांग्रेस से मिलकर चुनाव लड़े अजित सिंह
साल 1996 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी का विलय कांग्रेस में हो चुका था. अजित सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज की, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया. इसके बाद वो संयुक्त मोर्चा का हिस्सा बन गए और देवेगौड़ा और गुजराल सरकार में मंत्री रहे. अजित सिंह अपनी खोई जमीन तलाशने और सियासी मुनाफे के लिए इधर से उधर पाला बदलने की राजनीति करते रहे.
हालांकि, कांग्रेस में अजित सिंह के जाने से उनके सियासी जनाधार में और बिखराव हो गया और पश्चिमी यूपी में बीजेपी ने कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के जरिए अपना प्रभाव विस्तार शुरू कर दिया. इसी का नतीजा है कि 1989 में अजित सिंह को हार का सामना करना पड़ा. साल 1999 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह जीते और बाद में बीजेपी से समझौता किया. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अगुवाई वाली सरकार में वो कृषि मंत्री बने, लेकिन बहुत ज्यादा दिन साथ नहीं रहे सके.
बीजेपी से मिलाया आरएलडी ने हाथ
साल 2002 में अजित सिंह ने अटल सरकार से इस्तीफा दे दिया और बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया. इसका सियासी असर यूपी की राजनीति में भी पड़ा. मुलायम सिंह यादव के साथ अजित सिंह की राजनीतिक प्रतिद्वंदिता जबरदस्त थी, लेकिन 2003 में जब यूपी में बीजेपी के गठबंधन से मायावती की सरकार चल रही थी, तब अजित सिंह ने अपने 14 विधायकों का समर्थन मायावती सरकार से वापस लेकर उसके गिरने का रास्ता तैयार किया.
सपा सरकार में रही हिस्सेदार
मुलायम और अजित के बीच तब पुल बनने का काम त्रिलोक त्यागी ने किया. अजित सिंह ने मुलायम सिंह यादव को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवाई. इसके लिए कांग्रेस को तैयार करने में भी अजित सिंह की बड़ी भूमिका थी. इसी का नतीजा था कि मुलायम सरकार में अजित सिंह के सात विधायक मंत्री बने थे. 2004 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी ने सपा के साथ मिलकर किस्मत आजमाई, जो सपा के लिए फायदेमंद रहा. आरएलडी तीन सीटें जीतने में सफल रही तो सपा को 35 सीटें मिली.
साल 2007 के विधानसभा चुनाव में सपा और आरएलडी अलग-अलग चुनाव लड़ीं. साल 2008 में जब अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर वाममोर्चा की समर्थन वापसी के बाद यूपीए सरकार संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही थी तब अजित सिंह ने कांग्रेस खिलाफ वोट दिया था. इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी ने बीजेपी के साथ मिलकर किस्मत आजमाया, लेकिन इसका फायदा बीजेपी से ज्यादा आरएलडी को मिली.
कांग्रेस से मिलकर आरएलडी लड़ी चुनाव
पश्चिमी यूपी में आरएलडी को पांच सीटें मिलीं जबकि बीजेपी को महज 10 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा, लेकिन दोनों दलों में खटास आ गई. अजित सिंह 2011 में यूपीए-2 का हिस्सा बने और मनमोहन सिंह की सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बने. 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आरएलडी मिलकर मैदान में उतरी, लेकिन कोई बड़ा सियासी करिश्मा नहीं दिखा सकी. 2012 चुनाव में आरएलडी 46 सीटों पर लड़ी और 9 सीटें जीती जबकि कांग्रेस 355 सीटों पर लड़कर 22 सीटें ही जीत सकी.
2014 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी और कांग्रेस की दोस्ती बरकरार रही. लेकिन, 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दशकों पुराना चौधरी चरण सिंह के जमाने का जाट-मुस्लिम राजनीतिक गठबंधन तार-तार कर दिया और इसका सीधा नुकसान अजित सिंह और आरएलडी को हुआ. इस वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव में अजित और उनके पुत्र जयंत चौधरी दोनों ही हार गए. कांग्रेस महज दो सीटें जीत पाई जबकि आरएलडी अपना खाता ही नहीं खोल सकी.
2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा में दोस्ती हो जाने से आरएलडी हाशिए पर पहुंच गई. ये दोस्ती बिखरने का नुकसान दोनों दलों को हुआ. इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी बसपा और सपा के साथ हाथ मिलाकर चुनावी मैदान में उतरी. सपा-बसपा ने आरएलडी को तीन सीटें दी थी, जिनमें एक भी सीट वो नहीं जीत सकी. इतना ही नहीं अजित सिंह और जयंत दोनों हार गई जबकि बसपा को 10 और सपा को पांच सीटें जरूर मिली. इस गठबंधन का फायदा बसपा को मिली.
किसान आंदोलन से मिली संजीवनी
किसान आंदोलन शुरू हआ तो पश्चिमी यूपी भी उसके जद में रहा. अजित सिंह ने बेटे जयंत को किसानों के पास भेजा और गाजीपुर बार्डर पर राकेश टिकैत रो पड़े तब अजित सिंह ने उन्हें फोन करके न सिर्फ ढाढस बंधाया बल्कि पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रालोद कार्यकर्ताओं को किसानों के साथ एकजुट होने की अपील की. अजित सिंह ने राकेश टिकैत से कहा कि डटे रहना पीछे मत हटना. अगर पीछे हट गए पूरी किसान बिरादरी खत्म हो जाएगी जो फिर कभी खड़ी नहीं हो सकेगी.
अजित सिंह के भरोसे के बाद ही राकेश टिकैत किसान आंदोलन का चेहरा बने तो आरएलडी को पश्चिमी यूपी में सियासी संजीवनी मिली. जाट-मुस्लिम में नजदीकियां बढ़ीं. पश्चिमी यूपी में आरएलडी के सियासी आधार को देखते हुए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी के साथ गठबंधन किया. दोनों दलों के बीच सीट शेयरिंग का फॉर्मूला को अभी सामने नहीं आया है, लेकिन माना जा रहा है कि आरएलडी 32 से 36 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. ऐसे में देखना है कि सपा के साथ तालमेल कर आरएलडी इस बार क्या सियासी करिश्मा दिखाती है.