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Saharanpur: लकड़ी का कारोबार-धार्मिक प्रतीकों की भरमार, सहारनपुर जिले की सियासत और विरासत

सहारनपुर की पहचान वुड कार्विंग के काम से विश्व भर में फैली हुई है. आज भी यहां तैयार किया गया फर्नीचर पूरे देश में तो पसंद किया ही जाता है, साथ ही बड़े स्तर पर उसका एक्सपोर्ट भी होता है. सियासी तौर पर भी ये जिला काफी अहम माना जाता है.  

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यूपी के बॉर्डर पर है सहारनपुर जिला
यूपी के बॉर्डर पर है सहारनपुर जिला
स्टोरी हाइलाइट्स
  • सहारनपुर में विधानसभा की सात सीटें
  • बसपा और कांग्रेस रही है यहां मजबूत
  • 2017 में बीजेपी ने बनाई मजबूत पकड़

सहारनपुर, पश्चिम में उत्तर प्रदेश का आखिरी जिला है. सहारनपुर की एक सरहद उत्तराखंड से मिलती है तो इसके दूसरी तरफ हरियाणा है. ये इलाका जहां लकड़ी नक्काशी के लिए पूरी दुनिया में पहचान रखता है, वहीं धार्मिक तौर पर भी इसकी पहचान वर्ल्डवाइड है. मुस्लिम समुदाय के लिहाज से एक बेहद महत्वपूर्ण शहर देवबंद  इसी जिले में आता है. 

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सहारनपुर अपने आप में धार्मिक और राजनीतिक विरासत समेटे हुए है. शाह हारून चिश्ती और बाबा लाल दास की दोस्ती ने इस जनपद में सांप्रदायिक सदभाव को हमेशा सींचा है. सहारनपुर की पहचान वुड कार्विंग के काम से विश्व भर में फैली हुई है. आज भी यहां तैयार किया गया फर्नीचर पूरे देश में तो पसंद किया जाता ही है, साथ ही बड़े स्तर पर उसका एक्सपोर्ट भी होता है. 
 
सहारनपुर में एक तरफ शाकंभरी सिद्धपीठ है तो दूसरी तरफ विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक संस्था दारूल उलूम है, जो देवबंद में है. देवबंद से इस्लाम धर्म की पढ़ाई भी होती है, साथ ही इस्लाम की एक पूरी धारा को भी संचालित किया जाता है, जो एक अलग स्कूल ऑफ थॉट है. त्रिपुरा बाला सुंदरी सिद्ध पीठ भी यहीं है, जहां पांडवों ने अपना अज्ञातवास काटा था. यहीं पर माता के नौ रूप देखने को मिलते हैं तो ग्यारह मुखी शिवलिंग के दर्शन भी यहां होते हैं. 

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सहारनपुर और सियासत

ये जिला भले ही यूपी के अंतिम छोर पर हो, लेकिन राजनीति में इसका असर हमेशा से रहा है. सहारनपुर के सबसे बड़े राजनीतिक नाम के तौर पर रशीद मसूद ने लखनऊ से दिल्ली तक अपनी पहचान बनाई. रशीद मसूद ही वो नेता थे जिन्होंने सहारनपुर लोकसभा सीट पर पहली बार कांग्रेस को हराया था. ये चुनाव था 1977 का, यानी आपातकाल के दौर का. उस वक्त कांग्रेस के खिलाफ माहौल था. रशीद मसूद ने जनता पार्टी के टिकट पर कांग्रेस के दिग्गज नेता सुंदर को हराकर इतिहास बदलने का काम किया था. इसके बाद से उनका विजयी रथ चलता गया और वो कुल मिलाकर पांच बार लोकसभा के सांसद यहां से चुने गए. जबकि 4 बार राज्यसभा सांसद रहे. 

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रशीद मसूद ने जनता पार्टी, लोकदल से लेकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, कई दलों के साथ सफर तय किया. वीपी सिंह सरकार में वो केंद्र में मंत्री भी रहे. हालांकि, जीवन और राजनीति का आखिरी कुछ वक्त उनके लिए अच्छा नहीं रहा. 2013 में वो MBBS सीटों से जुड़े करप्शन केस में दोषी पाए गए और इसके नतीजे में उनकी संसद सदस्यता रद्द कर दी गई. ये आजाद भारत का पहला मामला था, जब किसी सांसद की सदस्यता इस तरह गई. 

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इस विवाद के अलावा मसूद परिवार के अंदर भी टकराव पैदा हो गया. मौजूदा कांग्रेस नेता इमरान मसूद, रशीद मसूद के भतीजे हैं. लेकिन नेतृत्व की लालसा ने परिवार को दो फाड़ कर दिया. फिलहाल, सहारनपुर की पॉलिटिक्स में मसूद परिवार से इमरान मसूद का ही एकछत्र राज है. इमरान मसूद ने ही इलाके में कांग्रेस को जिंदा रखे हुए है, इसीलिए वो कांग्रेस लीडरशिप के काफी करीबी माने जाते हैं. 

सहारनपुर का चुनावी समीकरण

सहारनपुर में सात विधानसभा सीटें हैं. इनमें बेहट, नकुड़, सहारनपुर नगर, सहारनपुर देहात, देवबंद, रामपुर मनिहारान और गंगोह. 2012 के विधानसभा चुनाव में सहारनपुर की सात सीटों में से चार पर बसपा और एक-एक पर भाजपा, कांग्रेस व सपा को जीत हासिल हुई थी. इसके बाद 2017 में समीकरण बदल गए और भाजपा की लहर चली. इस चुनाव में सात सीटों में से चार पर भाजपा, दो पर कांग्रेस व एक सीट पर सपा ने अपनी जीत का परचम फहरा दिया. इस चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ कि सहारपुर से बसपा को एक भी सीट नहीं मिली. जबकि ये इलाका बसपा का गढ़ माना जाता है. 
 
2019 के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में मोदी लहर के बावजूद इस सीट पर बसपा के हाजी फजलुर्रहमान जीत दर्ज करने में कामयाब रहे थे. हालांकि, 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा चार सीटों पर दूसरे नंबर रही थी.  सहारनपुर देहात, देवबंद, रामपुर मनिहारन और गंगोह पर बसपा दूसरे नंबर पर रही थी. 

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बता दें कि सहारनपुर जिले की आबादी जिस तरह की है, उसमें बसपा और कांग्रेस को अतीत में फायदा होता रहा है. जिले में हिंदू और मुस्लिम आबादी का अंतर बहुत ज्यादा नहीं है. हिंदू आबादी जहां 51 फीसदी है, वहीं मुस्लिम आबादी 46 फीसद के बीच है. हिंदुओं में भी 22 फीसदी से ज्यादा दलित आबादी है जो SC है. यही वजह है कि ये इलाका बसपा की राजनीति का केंद्र रहा है और वो मुस्लिम व दलितों के वोट के दम पर जीत दर्ज करती रही है.

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कांशीराम ने भी लड़ा था चुनाव

बसपा के संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम ने भी 1999 में सहारनपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ा था. हालांकि, वो यहां से हार गए थे. लेकिन उनकी राजनीति वारिस यानी मायावती जब पहली बार यूपी की सीएम बनीं तो 1996 में इसी जिले की हरोड़ा सीट से चुनाव जीता था. इस सीट का नाम बदलकर बाद में सहारनपुर देहात हो गया. 

लेकिन अब इलाके में नई सियासत जन्म ले रही है. हाजी फजलुर्रहमान के रूप में संसद की राजनीति करने वाले नेता खड़े हो गए हैं तो दूसरी तरफ बसपा को अपना ही दलित वर्ग से चंद्रशेखर के रूप में चुनौती मिल रही है. बता दें कि आजाद पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर भी इसी जिले से आते हैं और उन्होंने अपनी सियासत यहीं से शुरू की है. वो दलित वर्ग में पहचान बना रहे हैं लेकिन मायावती ने उन्हें अब तक स्वीकारा नहीं है. 

दूसरी तरफ भाजपा भी सहारनपुर में मजबूत हो गई है. 2012 तक जो भाजपा सात में किसी भी सीट पर दूसरे नंबर पर नहीं आती थी, वो 2017 में चार सीटों पर जीत गई. यहां तक कि देवबंद जैसी सीट पर भी बीजेपी को जीत मिल गई. पार्टी के पास यहां धर्म सिंह सैनी जैसा चेहरा है, जिन्होंने 2017 के चुनाव में नकुड़ सीट पर कांग्रेस के कद्दावर इमरान मसूद को शिकस्त दी थी. जिसके बाद योगी सरकार में धर्म सिंह सैनी को आयुष मंत्री भी बनाया गया.

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गुर्जर, ठाकुर, सैनी और कश्यप वोटरों के सहारे बीजेपी अपनी नैया आगे बढ़ा रही है. हालांकि, इस बार इस वोटबैंक में सेंधमारी का प्रयास किया गया है. अखिलेश यादव ने बाकायदा कश्यप समाज का सम्मेलन भी किया. ये जिला मुजफ्फरनगर से सटा है, जो इस बार किसान आंदोलन का केंद्र रहा है. यही वजह है कि इस बार जयंत चौधरी की लोकदल के साथ मिलकर अखिलेश यादव भी यहां सपा को मजबूत करना चाहते हैं.

 

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