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उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की तिंदवारी विधानसभा जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर है. इस विधानसभा का काफी क्षेत्र नदियों से घिरा हुआ है. पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने लोकसभा चुनाव और विधानसभा उपचुनाव में यहीं से जीत हासिल की थी. उस समय तिंदवारी विधानसभा सीट फतेहपुर लोकसभा क्षेत्र के तहत आती थी. अब यह सीट हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के अधीन आती है.
तिंदवारी में भाषा के लिहाज से खड़ी बोली और क्षेत्रीय भाषा बोली जाती है. स्वास्थ्य व शिक्षा के मामले में कोई बड़ा नाम नहीं है. विधानसभा का क्षेत्र फतेहपुर, हमीरपुर, महोबा और एमपी के छतरपुर जिलों की सीमा से जुड़ता है. इस विधानसभा में दलित, निषाद और सामान्य जाति के मतदाताओ की संख्या अधिक है. इस सीट की खास बात यह है कि यहां के मतदाताओं ने आजादी के बाद से अभी तक जाति और धर्म के नाम पर कभी वोट नहीं दिया.
सामाजिक तानाबाना
तिंदवारी विधानसभा के जंगलों में काले हिरण और नील गाय बहुतायत मात्रा में पायी जाती हैं. नील गाय झुंड बनाकर खेतों की फसलों को चौपट कर देती हैं जिससे किसानों को खासा नुकसान उठाना पड़ता है. तिंदवारी कस्बे को नेशनल हाईवे संख्या-234 लखनऊ, रायबरेली, अयोध्या और चित्रकूट जिलों से सीधे जोड़ता है. दिसंबर 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस रोड के अपग्रेडेड संस्करण का उद्घाटन किया था. योगी सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का करीब 40 किमी का हिस्सा इस विधानसभा क्षेत्र से होकर गुजरता है.
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शिक्षा और स्वास्थ्य में यहां कोई बड़ा नाम नहीं है. सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं ही लोगों का सहारा हैं. जरूरत के हिसाब से लोग जिला मुख्यालय या मेडिकल कालेज जाते हैं. युवाओं को उच्च शिक्षा के लिए या विशेष पाठ्यक्रम के लिए दूसरे जनपद जाना पड़ता है. बुंदेलखंड के पिछड़े क्षेत्र में सरकार ने भी ध्यान देना विशेष नहीं समझा. क्षेत्र के लोगों को आज भी इस बात का मलाल है कि यहां से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चुने जाने के बावजूद वीपी सिंह ने कभी इस क्षेत्र के विकास पर ध्यान नहीं दिया.
तिंदवारी विधानसभा का मुख्य रेलवे स्टेशन मटौंध है जोकि झांसी-प्रयागराज रेल लाइन में पड़ता है, साथ ही क्षेत्र का कुछ हिस्सा बांदा-कानपुर रेल लाइन से भी जुड़ा है.
पार्क और स्टेडियम तो यहां के लोगों के लिए आज भी किसी सपने की तरह हैं. यहां के लोग बीहड़ और जंगलों को ही पार्क समझते हैं. भूरागढ़ का किला, कुरसेजा धाम मंदिर, काली माता मंदिर बेंदाघाट, कालेश्वर मंदिर लोगों की आस्था के केंद्र हैं. भूरागढ़ किले की भी अपनी एक अलग कहानी है. केन नदी किनारे इस किले में वैलेंटाइन डे से लगभग एक महीना पहले हर साल 'आशिकों का मेला' लगता है.
तिंदवारी विधानसभा का क्षेत्र दो तहसीलों सदर और पैलानी में बंटा हुआ है. नगर पंचायत तिंदवारी व मटौंध है. पुलिस व्यवस्था की बात करें तो यहां तिंदवारी, मटौंध, कोतवाली देहात, चिल्ला, पैलानी और जसपुरा थाने हैं. इस क्षेत्र में 3 ब्लॉक जसपुरा, तिंदवारी और बड़ोखर पड़ते हैं. केन और यमुना नदियों के किनारे पड़ने वाला इलाका अक्सर बरसात में बाढ़ग्रस्त हो जाता है.
बुंदेलखंड क्षेत्र की तिंदवारी विधानसभा में रह रहे लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है, लेकिन अन्ना गोवंशों के चलते उनको अपनी लागत निकालने में परेशानी का सामना करना पड़ता है. एक तरफ नदी के बसे लोग सब्जियां या अरहर, तिल और मूंग लगाकर जीवनयापन करते हैं तो दूसरी तरफ कई परिवार मजूदरी करके अपने परिवार चलाते हैं.
यहां की मुख्य समस्या लोगों के रोजगार की है. रोजगार नहीं मिलने से लोग पलायन करने को मजबूर होते हैं. इस क्षेत्र में औद्योगिक क्षेत्र का कोई विस्तार नहीं है.
आजादी के बाद इस विधानसभा को कानपुर लोकसभा से जोड़ा गया था. परिसीमन के बाद फतेहपुर लोकसभा से जोड़ दिया गया. हालांकि 2009 में परिसीमन के दौरान इस सीट को हमीरपुर लोकसभा में अटैच कर दिया गया. तिंदवारी विधानसभा सीट बांदा जिले के अंतर्गत आती है लेकिन लोकसभा की नजर से यह हमीरपुर महोबा तिंदवारी कहलाती है. यहां से निषाद, क्षत्रिय और दलित मतदाता अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
राजनीतिक पृष्ठभूमि
दलित, क्षत्रिय और निषाद बाहुल्य इस सीट को बांदा सदर सीट से अलग किए जाने के बाद 1974 में पहली बार हुए विधानसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ से जगन्नाथ सिंह चुनाव जीते थे. 1977 में फिर जनता पार्टी से चुनाव जीते. 1980 में कांग्रेस से शिवप्रताप सिंह, फिर 1981 के उपचुनाव में मुख्यमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह चुनाव जीते थे. 1985 में कांग्रेस से अर्जुन सिंह, 1989 में जनता दल से चंद्रभान सिंह चुनाव जीते थे. 1991 और 1993 के चुनाव में बसपा से विशम्भर प्रसाद निषाद लगातार दो बार विधायक बने थे. 1996 में बसपा के महेंद्र निषाद, 2002 और 2007 में सपा से फिर से विशम्भर प्रसाद निषाद चौथी बार विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे थे.
2012 के चुनाव में कांग्रेस से दलजीत सिंह ने चार बार विधायक रहे विशम्भर निषाद को हराकर जीत दर्ज की थी और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा से ब्रजेश प्रजापति जीतकर विधानसभा लखनऊ पहुंचे. कुल मिलाकर यहां से विधायक एक-एक बार जनसंघ व जनता पार्टी, चार बार कांग्रेस, तीन बार बसपा तथा दो-दो बार सपा और भाजपा से चुने जा चुके हैं.
मुख्यमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह 1981 में उपचुनाव में चुनाव जीतकर विधायक बने थे और यहीं से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ने के बाद सांसद बनकर वह प्रधानमंत्री भी बने थे तब यह सीट फतेहपुर लोकसभा सीट से संबंद्ध थी.
जिला निर्वाचन कार्यालय के अनुसार यहां कुल मतदाताओं की संख्या तीन लाख के आसपास है जिसमे सवा लाख के आसपास महिला मतदाता हैं. जानकारी के मुताबिक एससी, क्षत्रिय और निषाद वोटर की संख्या लगभग बराबरी पर है. बाकी संख्या पर अन्य वोटर्स मतदान करते हैं.
2017 का जनादेश
विधानसभा चुनाव 2017 में एक दर्जन प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था. लेकिन जीत भाजपा के ब्रजेश प्रजापति को मिली थी. उन्होंने बसपा के जगदीश प्रजापति को लगभग 38 हजार मतों से हराया था. तब के विधायक और कांग्रेस के दलजीत सिंह तीसरे नंबर पर रहे थे. तब पार्टी ने इन्हें अंतिम समय में टिकट देने का फैसला किया था.
भाजपा में यह स्वामी प्रसाद मौर्य कैडर के नेता माने जाते हैं, लेकिन युवा और बातचीत में मुखर होने के कारण प्रदेश के बाकी विधायकों के मुकाबले अधिक लोकप्रिय हैं. यह उत्तर प्रदेश के एकमात्र प्रजापति विधायक भी हैं.
विधायक का रिपोर्ट कार्ड
तिंदवारी से विधायक ब्रजेश प्रजापति 35 वर्ष के युवा नेता हैं. इनके पिता का नाम जोगिलाल प्रजापति है. मूल रूप से जिले के जारी गांव के रहने वाले हैं लेकिन बांदा और लखनऊ में भी इनका एक-एक मकान है. इन्होंने स्नातक की शिक्षा प्राप्त करने के साथ साथ एलएलबी की डिग्री भी ली है.
प्रजापति ने अपना राजनीतिक सफर बसपा से शुरू किया लेकिन विधायक भाजपा में आकर ही बन पाए. लोगों का मानना है कि स्वामी प्रसाद मौर्य की वजह से इनको टिकट के साथ-साथ पार्टी में बढ़त मिलती चली गई.
विधायक प्रजापति ने हाल में बांदा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा 15 में से 11 पदों में एक ही जाति की नियुक्ति मामले की आवाज इन्होंने ही उठाई थी. इससे पहले यह पूर्व में तैनात रही एक एसपी और डीएम के खिलाफ भी मजबूत मोर्चा खोल चुके हैं.