उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सियासी तपिश के बीच ओबीसी नेताओं के सपा में शामिल होने से गड़बड़ाए राजनीतिक समीकरण को बीजेपी दुरुस्त करने में जुटी है. बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों को खास अहमियत देकर सियासी डैमेज कन्ट्रोल करने की रणनीति अपनाई है. बीजेपी अपना दल (एस) को तवज्जो देने के साथ-साथ संजय निषाद की पार्टी को राजभर से करीब दो गुना ज्यादा सीटें दे रही है. संजय निषाद ने खुद कहा है कि बीजेपी उन्हें 15 विधानसभा सीटें दे रही है, जिन पर वो अपने कैंडिडेट उतारेंगे.
बता दें कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा को बीजेपी ने महज 8 सीटें दी थीं, जिनमें से चार विधायक जीतकर आए थे. हालांकि, इस बार ओमप्रकाश राजभर बीजेपी का साथ छोड़कर सपा के साथ चले गए हैं. ऐसे में बीजेपी ने ओमप्रकाश राजभर की भरपाई के लिए संजय निषाद की पार्टी के साथ तालमेल किया है और सीटें भी उनसे दोगुना ज्यादा दे दी हैं. आखिर क्या वजह है कि संजय निषाद को बीजेपी इतनी ज्यादा अहमियत दे रही है?
राजभर से दो गुना सीटें संजय निषाद को
निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद ने आजतक से बातचीत में कहा कि सूबे की 403 सीटों में से बीजेपी ने उन्हें गठबंधन के तहत 15 सीटें दी हैं. सोमवार को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर तय करेंगे कि वो 15 सीटें कौन सी होंगी, जहां से वो लड़ेंगे. उन्होंने कहा कि 15 सीटों में से ज्यादातर पूर्वांचल की हैं. गोरखपुर, कुशीनगर, महराजगंज, बलिया, आजमगढ़, संतकबीरनगर, अंबेडकर नगर, सुल्तानपुर, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, भदोही और इलाहाबाद जिले में निषाद पार्टी कैंडिडेट उतारेगी.
हालांकि, निषाद पार्टी ने 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी, अपना दल और जन अधिकार पार्टी के साथ गठबंधन करके 100 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे. लेकिन, भदोही के ज्ञानपुर सीट पर ही उसे जीत मिल सकी थी. निषाद पार्टी से विजय मिश्रा विधायक बने थे. संजय निषाद खुद गोरखपुर ग्रामीण सीट से मैदान में उतरे थे, लेकिन तीसरे नंबर पर रहे थे.
गोरखपुर उपचुनाव से निषाद को मिली पहचान
इसके बाद गोरखपुर लोकसभा सीट पर साल 2018 के उपचुनाव में अपने बेटे प्रवीण निषाद को सपा के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ाया और बीजेपी को शिकस्त देकर संसद पहुंचाया. हालांकि, इसके बाद उन्होंने सपा से नाता तोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया और संतकबीर नगर सीट से वो सांसद हैं. संजय निषाद को बीजेपी ने राज्यपाल कोटे से विधान परिषद भेजा और उन्हें 2022 के चुनाव में राजभर से ज्यादा अहमियत दे दी है.
ओबीसी नेताओं से बीजेपी का बिगड़ा समीकरण
बता दें कि बीजेपी ने यूपी में 15 साल के सियासी वनवास को खत्म करने के लिए 2017 के चुनाव में अनुप्रिया पटेल की अपना दल (एस) और ओम प्रकाश राजभर की पार्टी के साथ हाथ मिलाया था. इसके अलावा दूसरे दलों के ओबीसी नेताओं को भी साथ लेकर गैर-यादव ओबीसी जातियों की मजबूत सोशल इंजीनियरिंग बनाई थी, जिसके दम पर 325 सीटों के साथ प्रचंड जीत हासिल थी. सूबे की सत्ता की कमान योगी आदित्यनाथ को मिली, लेकिन पांच साल के बाद एक दर्जन ओबीसी नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है और सपा की साइकिल पर सवार हो गए हैं.
पूर्वांचल में ओबीसी वोटर अहम
पूर्वांचल की सियासत में ओबीसी समुदाय का वोट राजनीतिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता है. पूर्वांचल में राजभर, मौर्य, चौहान, कुर्मी वोटर खास असर रखते हैं. इसीलिए इन समुदाय के बीच सियासी आधार रखने वाले नेताओं को अखिलेश यादव ने अपने साथ मिला लिया है तो बीजेपी के लिए चिंता बढ़ गई है. ऐसे में बीजेपी अपने सहयोगी निषाद पार्टी और अपना दल (एस) को हर हाल में साथ रखना चाहती है, जिसके लिए उनकी मर्जी के मुताबिक सीटें दी हैं.
पूर्वांचल के बदले हुए सियासी समीकरण में निषाद वोटर बीजेपी के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें निषाद पार्टी के जरिए साधकर रखने की रणनीति बनाई है. इसीलिए बीजेपी ने ओमप्रकाश राजभर की सियासी कमी की भरपाई के लिए निषाद पार्टी के साथ मिलकर 2022 के चुनाव लड़ने का फैसला किया है ताकि पूर्वांचल में सियासी समीकरण को मजबूत बनाया जा सके.
स्वामी प्रसाद मौर्य कुशीनगर से हैं, ओमप्रकाश राजभर बलिया से हैं और दारा सिंह चौहान आजमगढ़ से हैं तो संजय निषाद गोरखपुर से हैं. इस तरह से ये ओबीसी पूर्वांचल और अतिपिछड़ी जाति से आते हैं. यही वजह है कि बीजेपी ने संजय निषाद को साथ लेने के साथ-साथ अहमियत देकर अपना सियासी समीकरण को दुरुस्त करने की कवायद की है ताकि बीजेपी से गए ओबीसी नेताओं की कमी को पूरा किया जा सके.
निषाद से बीजेपी को मिलेगा फायदा
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी संजय निषाद को साथ लेकर ओम प्रकाश राजभर की 'मोनोपोली' (एकाधिकार) को तोड़ने में सफल रही थी. बीजेपी ने संजय निषाद के बेटे को संतकबीरनगर से संसद का चुनाव अपने सिंबल पर लड़ाया था, जिसके चलते पूर्वांचल में निषाद समुदाय का एकमुश्त वोट उसे मिला था. 2022 के चुनाव में बीजेपी ने फिर से इसी समीकरण को जमीन पर उतारने का दांव चला है, जिसके लिए निषाद पार्टी को गठबंधन में खास तवज्जो दी है.
यूपी में निषाद वोटों की सियासी ताकत
बीजेपी ने संजय निषाद के जरिए अति पिछड़ों में सर्वाधिक जनसंख्या वाले निषाद जाति संबंधित करीब 6-7 उपजातियों को साधने की कोशिश की है. निषाद समुदाय का भी पूर्वांचल में अच्छा खासा वोट बैंक हैं. निषाद समाज के तहत निषाद, केवट, बिंद, मल्लाह, कश्यप, मांझी, गोंड आदि उप जातियां आती हैं. सूबे में 20 लोकसभा सीटें और तकरीबन 60 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां निषाद वोटरों की संख्या अच्छी खासी है.
गोरखपुर, गाजीपुर, बलिया, संतकबीर नगर, मऊ, मिर्जापुर, भदोही, वाराणसी, इलाहाबाद ,फतेहपुर, सहारनपुर और हमीरपुर जिले में निषाद वोटरों की संख्या अधिक है. ऐसे में बीजेपी ने संजय निषाद को साथ मिलाकर संभावित नुकसान से बचने के लिए की कवायद की है. हालांकि, सूबे में निषाद समाज अलग-अलग खेमों में बटे हैं और सभी खेमों के अलग-अलग अपने नेता हैं. बिहार में निषाद समुदाय के मंत्री और वीआईपी पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी भी यूपी में चुनाव लड़ने का दम भर रहे हैं.
निषाद वोटों पर विपक्ष की नजर
सपा से लेकर कांग्रेस तक की नजर सूबे में निषाद समुदाय के वोटों पर है. सपा निषाद समुदाय से आने वाली फूलनदेवी की मूर्ती को गोरखपुर में लगाने का ऐलान किया है. इतन ही नहीं अखिलेश यादव ने सपा के पिछड़ा वर्ग के मोर्चा की कमान राजपाल कश्यप को सौंप रखी है तो विशंभर प्रसाद निषाद जैसे नेता पार्टी के राज्यसभा सदस्य हैं. वहीं, कांग्रेस भी निषादों को साधने के लिए बोट यात्रा यूपी में निकाल चुकी है. ऐसे में देखना है कि निषाद पार्टी को बीजेपी का अहमियत देने का दांव कितना सफल रहता है.