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यूपी के यादव वोटरः समाजवादी पार्टी का कोर, विपक्ष का 'सेंधमारी' पर जोर

उत्तर प्रदेश की सियासत में ओबीसी की सबसे बड़ी आबादी में यादव वोटर सपा का कोर वोटबैंक माना जाता है. इसके दम पर अखिलेश यादव सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए हैं तो बीजेपी, कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल इस वोट बैंक में लगातार सेंध लगाने में जुटे हैं.

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मुलायम सिंह से आशिर्वाद लेते अखिलेश यादव
मुलायम सिंह से आशिर्वाद लेते अखिलेश यादव
स्टोरी हाइलाइट्स
  • UP की सियासत में यादव समाज का दखल
  • 1977 में पहली बार यूपी में यादव सीएम
  • मुलायम सिंह तीन बार यूपी के सीएम रहे

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अब बस दहलीज पर हैं और सियासी पार्टियां अपने-अपने कोर वोटर्स को लामबंद करने और दूसरों के कोर वोटर्स में सेंध लगाने की कोशिशों में जुट गई हैं. सूबे में ओबीसी की सबसे बड़ी आबादी यादव वोटर सपा का कोर वोटबैंक माना जाता है. इसके दम पर अखिलेश यादव सत्ता में वापसी की उम्मीद लगाए हैं तो बीजेपी, कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल इस वोट बैंक में लगातार सेंध लगाने में जुटे हैं.

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यूपी में यादव वोटर्स की ताकत 
उत्तर प्रदेश में करीब 8 फीसदी वोटर्स यादव समुदाय के हैं, जो कि ओबीसी समुदाय की यहां की आबादी का 20 फीसदी हैं. यादव समाज में मंडल कमीशन के बाद ऐसी गोलबंदी हुई कि ये सपा का कोर वोटर बन गया. इन्हीं वोटरों के दम पर मुलायम सिंह यादव तीन बार और अखिलेश यादव एक बार सूबे के मुख्यमंत्री रहे. 

हालांकि, सपा के राजनीतिक उद्भव से पहले ही रामनरेश यादव जनता पार्टी से यूपी के मुख्यमंत्री रहे थे. बाद में उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया. इस तरह से अभी तक सूबे में यादव समाज के तीन नेता मुख्यमंत्री रह चुके हैं. हालांकि, 2014 के बाद से यूपी में बीजेपी ने ऐसी सियासी बिसात बिछाई कि यादव वर्चस्व वाली राजनीति को तगड़ा झटका लगा. नतीजतन 2017 के चुनाव में अखिलेश यादव ने सत्ता गंवा दी. 

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यादव राजनीति का उद्भव
यूपी में यादव राजनीति का चेहरा भले ही अभी मुलायम सिंह और अखिलेश यादव हों, लेकिन यादव राजनीति आजादी के बाद से ही सक्रिय हो गई थी. रघुवीर सिंह यादव आगरा पूर्वी संसदीय सीट से कांग्रेस के टिकट पर 1952 में लोकसभा सदस्य चुने गए थे. यूपी में यादव समाज के वो पहले नेता थे, जो संसद पहुंचे थे. वहीं, बाराबंकी, फतेहपुर से रामसेवक यादव यूपी की विधानसभा पहुंचे पहले यादव विधायक थे, जो भारतीय क्रांति दल के टिकट पर जीते थे. 

यूपी में लोहिया कांग्रेस के खिलाफ ओबीसी जातियों को एकजुट करने में सफल रहे. सूबे में ओबीसी की अगुवाई यादव समाज के नेताओं के हाथ में रही. लोहिया के बाद चौधरी चरण सिंह ने भी इसी फॉर्मूले को आजमाया और राम नरेश यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता निकले. 1967 में यूपी में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी तो मुलायम सिंह कैबिनेट मंत्री बने.

1977 में राम नरेश यादव सूबे के पहले यादव मुख्यमंत्री बने. मंडल आंदोलन के दौरान मुलायम सिंह उभरे और 1989 में जनता दल से मुख्यमंत्री बने. इसके बाद मुलायम सिंह यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी खड़ी की और सूबे के सबसे बड़े यादव नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई. इसके बाद से यादव समाज सपा के साथ मजबूती से जुड़ा हुआ है.

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यादव वोटों के दम पर मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री बने तो अखिलेश यादव एक बार. सपा के सत्ता में रहने से सूबे में यादव समाज राजनीतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से भी मजबूत हुआ. सपा सरकार में यादवों की तूती बोलती है. सपा पर सत्ता में रहते हुए यादव परस्त होने का आरोप भी विपक्ष लगाता रहा है. इसके चलते गैर-यादव ओबीसी जातियां सपा से छिटककर बीजेपी और दूसरे दलों के साथ चली गईं. 

यूपी में यादव बहुल जिले 
उत्तर प्रदेश के इटावा, एटा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, फिरोजाबाद, कन्नौज, बदायूं, आजमगढ़, फैजाबाद, बलिया, संतकबीर नगर, जौनपुर और कुशीनगर जिले को यादव बहुल माना जाता है. इन जिलों में 50 से ज्यादा विधानसभा सीटें हैं, जहां यादव वोटर अहम भूमिका में हैं. सूबे के 44 जिलों में 9 फीसदी वोटर यादव हैं जबकि 10 जिलों में ये वोटर 15 फीसदी से ज्यादा है. पूर्वी यूपी और बृज के इलाके में यादव वोटर सियासत की दशा और दिशा तय करते हैं. 

सपा के यादव चेहरे
यूपी में फिलहाल सपा के पास सबसे ज्यादा यादव चेहरे हैं, जिनमें मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव, धर्मेंद्र यादव, रामगोपाल यादव, बलराम यादव, दुर्गा यादव, सुखराम यादव, रमाकांत यादव, अंबिका चौधरी, रामगोविंद चौधरी और ललई यादव जैसे दिग्गज नेता हैं. मुलायम सिंह एक ऐसे नेता हैं, जिन्हें यादव वोटर अपने अभिभावक के तौर पर देखते हैं और अब वे अखिलेश यादव को अपना नेता मानते हैं. 

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शिवपाल यादव का असर
मुलायम सिंह के बाद अगर किसी का नाम आता है तो उनके भाई शिवपाल यादव का. शिवपाल की सपा में एक समय तूती बोलती थी, लेकिन अखिलेश यादव के साथ अदावत के चलते पार्टी से नाता तोड़कर उन्होंने समाजवादी प्रगतिशील पार्टी का गठन कर लिया. शिवपाल यादव के साथ भी कई यादव नेता हैं, जो कभी सपा में हुआ करते थे. शिवपाल इन दिनों सूबे में यात्रा कर माहौल बनाने में जुटे हैं, पर सपा के साथ गठबंधन करने के लिए भी बेताब हैं. 

यादवों पर बीजेपी ने बनाई पकड़
बीजेपी सूबे में यादव वोटों को साधने में जुटी है. जौनपुर सीट से जीते गिरीश यादव को सीएम योगी ने अपनी कैबिनेट में जगह दी तो इटावा के हरनाथ यादव को राज्यसभा सदस्य बनाया. सुभाष यदुवंश को पहले बीजेपी युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया और अब प्रदेश संगठन में जगह दे रखी है. अभी हाल में जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में बीजेपी के टिकट पर यादव समाज के तीन अध्यक्ष बने.

अखिलेश यादव के सामने बीजेपी ने भोजपुरी नायक निरहुआ यादव को खड़ा किया था. निरहुआ को बीजेपी यादव नेता के तौर पर बढ़ा रही है. इसके अलावा मुलायम के करीबी व कानपुर के दिग्गज नेता सुखराम यादव के बेटे को बीजेपी अपने साथ मिलाने में कामयाब रही है. 

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बसपा में यादव नेता 
मायावती भले ही दलित राजनीति और अति पिछड़ी जातियों के वोटों के सहारे सत्ता के सिंहासन तक पहुंचती रही हों, लेकिन यादव वोटों को साधने के जतन भी वो करती रहती हैं. मायावती सरकार में मंत्री रहे अवधपाल सिंह यादव बसपा में सबसे बड़े यादव चेहरे हुआ करते थे. इसके अलावा जौनपुर से बसपा सांसद श्याम सिंह यादव पार्टी सुप्रीमो मायावती के करीबी माने जाते हैं. एक समय रमाकांत यादव, उमाकांत यादव और अंबिका चौधरी बसपा में हुआ करते थे, लेकिन अब वे सपा में वापसी कर चुके हैं. 

कांग्रेस के यादव नेता
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने एक समय सबसे पहला यादव सांसद रघुवीर सिंह यादव के रूप में दिया था. सूबे में पहले यादव सीएम रहे राम नरेश यादव पार्टी का चेहरा हुआ करते थे. उन्हें बाद में पार्टी ने गवर्नर तक बनाया और संगठन में अहम जिम्मा दिया. इस समय यूपी में कांग्रेस संगठन में कई यादव चेहरों को प्रियंका गांधी ने जगह दे रखी है, जिनमें प्रदेश संगठन सचिव अनिल यादव और कांग्रेस ओबीसी के यूपी अध्यक्ष मनोज यादव प्रमुख नाम हैं. कांग्रेस ने यूपी एनएसयूआई का अध्यक्ष अखिलेश यादव को बना रखा है और साथ ही कई जिलों में कांग्रेस की कमान यादव समाज के हाथों में दे रखी है. 

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2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की गैर-यादव राजनीति ने यादवों को तकरीबन हाशिये पर धकेल देने में जबरदस्त भूमिका अदा की. इस बार केवल 18 यादव चुने गए, जिनमें से छह बीजेपी से चुनकर आए थे बाकी 12 सपा से जीते थे. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यादव सांसदों की संख्या घटी है जबकि सपा-बसपा मिलकर चुनाव लड़ी थीं. सपा को अपने मजबूत यादव बहुल गढ़ बदायूं, फिरोजाबाद, कन्नौज, इटावा, एटा, संतकबीर नगर जैसे जिले में हार झेली. ऐसे में सपा के इस कोर यादव वोटों पर इस बार शिवपाल से लेकर बीजेपी, बसपा, कांग्रेस सबकी नजर है.

 

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