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गठबंधन की बंदरबांट में अपना ही घर भूली कांग्रेस, रायबरेली और अमेठी में हालत पतली

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में अंततः गठबंधन हो गया. लेकिन गठबंधन के बाद भी कांग्रेस के दिन बहुरेंगे, कम से कम उनके अपने गढ़ को देखकर तो ऐसा नहीं लगता. रायबरेली और अमेठी में आज की जो स्थिति है उसमें कांग्रेस पार्टी अपना पुराना फ्लाप शो ही इस विधानसभा में दोहराती नज़र आ रही है.

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सोनिया और राहुल गांधी
सोनिया और राहुल गांधी

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कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में अंततः गठबंधन हो गया. लेकिन गठबंधन के बाद भी कांग्रेस के दिन बहुरेंगे, कम से कम उनके अपने गढ़ को देखकर तो ऐसा नहीं लगता. रायबरेली और अमेठी में आज की जो स्थिति है उसमें कांग्रेस पार्टी अपना पुराना फ्लाप शो ही इस विधानसभा में दोहराती नज़र आ रही है.

ऐसा नहीं है कि इन दोनों संसदीय सीटों पर कांग्रेस की स्थिति पिछले विधानसभा चुनाव जितनी कमज़ोर थी. लेकिन समाजवादी पार्टी ने यहां की सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा करके कांग्रेस का सारा खेल बिगाड़ दिया है.

यहां पढें- गठबंधन से यूपी चुनाव में किसे होगा फायदा और किसे नुकसान?

कांग्रेस जिन सीटों पर बेहतर कर पाने की स्थिति में थी और जहाँ से उसके लिए इसबार जातीय और सामाजिक गणित अनुकूल होता दिख रहा था, उन्हीं सीटों पर कांग्रेस को समाजवादी पार्टी ने विकल्पहीन कर दिया है. कांग्रेस के हिस्से में अब इन दोनों संसदीय सीटों की वे विधानसभा सीटें ही बची हैं जहां से कांग्रेस के पास मज़बूत और जिताऊ चेहरे तक नहीं हैं.

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ज़मीन पर बिगड़ा गणित
रायबरेली में पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था. अमेठी में दो सीटों पर पार्टी जीती थी- तिलोई और जगदीशपुर विधानसभा सीट. तिलोई से जीते हुए प्रत्याशी डॉक्टर मुस्लिम बसपा में शामिल हो गए और इसबार उनका बेटा सऊद मैदान में है.

कांग्रेस के पास एक सीट पर ही जीत की गारंटी है और वो सीट है रायबरेली की सदर सीट. यहां अखिलेश प्रताप सिंह अपने रुतबे और जनाधार के दम पर लगातार जीतते आए हैं. इसबार उनकी बेटी अदिति सिंह मैदान में हैं. कांग्रेस में उन्हें शामिल करा लिया गया है और इस तरह कांग्रेस को बोहनी हो पाने की संभावना बनी है.

लेकिन इस बोहनी के बाद कांग्रेस जिन सीटों पर जीत सकती थी उनपर ही सपा ने अपने प्रत्याशी दे दिए हैं. उंचाहार, सलोन, गौरीगंज, सरेनी जैसी सीटों पर कांग्रेस मज़बूत दावेदारी पेश करने की स्थिति में थी. इन सीटों पर अब सपा के प्रत्याशी मैदान में हैं.

कांग्रेस के पास हरचंदपुर और बछरावां जैसी सीटें हैं जहां से सपा के पास मज़बूत प्रत्याशी होते हुए भी वो कांग्रेस के लिए छोड़ दी गई हैं. इससे सपा का भी गणित गड़बड़ होता नज़र आ रहा है. सबसे दुखद यह है कि सपा अपने जिन विधायकों को रिपीट करने की घोषणा कर चुकी है उनके खिलाफ हवा बनी हुई है और उनका जीतना मुश्किल है. इस स्थिति में कांग्रेस के लिए उन सीटों को छोड़ना इस गठबंधन के लिए फायदे की बात होती लेकिन बिना तैयारी का गठबंधन अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार चुका है.

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तीसरे को लाभ
नतीजा यह होता नज़र आ रहा है कि इन दोनों पार्टियों में आपसी सामंजस्य की कमी के कारण अब भाजपा और बसपा को लाभ मिलने की संभावना बनती जा रही है. दरअसल, इस सीटों पर सपा से खफा लोगों के पास कांग्रेस एक बेहतर विकल्प होती लेकिन उस संभावना के कमज़ोर होने से वोटर बसपा और भाजपा की ओर उम्मीद से देख रहे हैं.

अमेठी से कांग्रेस नेता संजय सिंह की पहली पत्नी गरिमा सिंह को भाजपा ने टिकट दिया है और माना जा रहा है कि गायत्री प्रजापति को वो अच्छी टक्कर दे सकती हैं. वही स्थिति उंचाहार के लिए है जहां स्वामी प्रसाद मौर्य के बेटे और सपा के वर्तमान विधायक से नाराज़ वोटर अब बसपा का रुख कर सकते हैं. बसपा ने इस सीट पर पूर्व विधायक गजाधर सिंह के बेटे विवेक सिंह को टिकट दिया है. गजाधर सिंह सपा से कई बार चुनाव लड़ चुके हैं और इस वजह से इस सीट पर राजपूत और मुस्लिम वोट में उनकी पैठ है. इसका फायदा उनका बेटा उठा सकता है.

यह भ्रम अब और भी गहरा हो गया है क्योंकि प्रियंका गांधी के कार्यालय से इन सभी सीटों पर कांग्रेस के संभावित प्रत्याशियों को भी तैयार रहने के लिए कहा गया है. ऐसे में मतदाता भ्रम में हैं कि इन सीटों पर गठबंधन का प्रत्याशी है कौन. दोनों ही पार्टी के प्रत्याशी तैयारी भी कर रहे हैं और सकते में भी हैं.

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भ्रम का गठबंधन
दरअसल, रायबरेली और अमेठी तो केवल उदाहरण हैं. अगर गढ़ में ही स्थिति ऐसी है तो सोचिए कि बाकी सूबे में गठबंधन ज़मीन पर कितना कारगर होगा. अगर स्थिति ऐसी ही रही तो यह गठबंधन ज़मीन पर वोटों में तब्दील हो पाएगा, यह संदिग्ध मालूम देता है.

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन की सबसे बड़ी दो चुनौतियां हैं. पहली तो यह कि गठबंधन के बहुमत के अनुरूप टिकटों के वितरण में सामंजस्य. और दूसरा है दोनों पार्टियों के वोट एकदूसरे के लिए डलवा पाना. और ऐसा केवल मंच पर एकसाथ नेताओं के भाषण लगाने भर से होने वाला नहीं है.

दोनों पार्टियों को ग्रासरूट पर आपसी तालमेल की सख्त ज़रूरत है जिसका अभी बुरी तरह अभाव है. समय रहते अगर इस ओर ये दल ध्यान नहीं देते हैं तो फिर शायद देर हो चुकी होगी.

(इति)

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