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क्या चुनाव में दिखेगा दंगों का असर? मुजफ्फरनगर से ग्राउंड रिपोर्ट

फुगाना और शामली के लोगों के मन में दंगा भड़काने वालों के खिलाफ अब भी गुस्सा है. ये लोग साफ कहते हैं कि अब चुनाव में बदला लेने की बारी उनकी है. कहने को तो हर कोई कह रहा है कि दंगों का असर तीन-चार महीने में ही खत्म हो गया. लेकिन अंदर उठती टीस ये साफ करती है कि जख्म अगर हरे नहीं हैं तो भरे भी नहीं हैं.

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मुजफ्फरनगर से स्पेशल चुनावी रिपोर्ट
मुजफ्फरनगर से स्पेशल चुनावी रिपोर्ट

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क्या सवा तीन साल पहले हुए मुजफ्फरनगर दंगों के जख्म अब भी हरे हैं? आने वाले विधानसभा चुनाव में इस सवाल का जवाब मिलेगा. इसी बात की पड़ताल के लिए आजतक की टीम ने मुजफ्फरनगर के पास कवाल गांव का दौरा किया.

यही वो गांव है जहां से ये दंगे शुरू हुए थे. हालांकि यहां तब भी खामोशी थी और अब भी. हालांकि गांववालों के बयान ये भरोसा जगाते हैं कि हिंदुस्तान की आत्मा अब भी गांवों में ही बसती है.

दंगों का दर्द भूलना चाहते हैं लोग
स्थानीय निवासी मोहम्मद इलियास मानते हैं कि दंगे पुरानी बात हो गई है. उनके मुताबिक दंगों की आग भले ही उनके गांव से सुलगी हो लेकिन जब ये पूरा इलाका जला तो कवाल गांव में कोई तनाव नहीं था.

कवाल के ही रहने वाले हाजी मतलूब मानते हैं कि गांव के लोग दंगों को भूल चुके हैं. इस बात के समर्थन में वो अपने खानदान में हुई शादी का हवाला देते हैं. उनके मुताबिक इस शादी में हर तबके के लोग शरीक हुए थे. हाजी की मानें तो गांव के लोग एक दूसरे के सुख-दुख में बराबर शरीक होते हैं.

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इसी गांव के चौक पर आजतक की टीम की भेंट यासीन नाम के शख्स से हुई. उनका मानना है कि दंगे तो नेता करवाते हैं. जनता तो मिलजुल कर रहना चाहती है. यासीन का मानना है कि जनता महज खुशहाल और सुरक्षित जिंदगी चाहती है. नेता ऐसी ही जिंदगी का सब्जबाग दिखाकर वोट बटोरते हैं.

अब भी नहीं भरे जख्म
फुगाना और शामली के लोगों के मन में दंगा भड़काने वालों के खिलाफ अब भी गुस्सा है. ये लोग साफ कहते हैं कि अब चुनाव में बदला लेने की बारी उनकी है. कहने को तो हर कोई कह रहा है कि दंगों का असर तीन-चार महीने में ही खत्म हो गया. लेकिन अंदर उठती टीस ये साफ करती है कि जख्म अगर हरे नहीं हैं तो भरे भी नहीं हैं.

ये सच है कि चुनाव इस टीस के इजहार की असली कसौटी होंगे. हर नेता दंगों के जख्मों को अपने फायदे के लिए भुनाने की कोशिश करेगा. इसके लिए नेता बाकायदा इलाके का इतिहास खंगाल रहे हैं. टटोला जा रहा है कि कब किसने क्या कहा था.

दंगों पर सियासत जारी
सरधना के बीजेपी विधायक संगीत सोम सफाई देते हुए ये कहते हैं कि अब तक कोई चार्जशीट फाइल नहीं की गई है. उनके मुताबिक अब तक आरोप साबित करने के लिए सबूत सामने नहीं आया है. लेकिन वो लगे हाथ ये कहने से भी नहीं चूकते कि दंगों के समय मुलायम सिंह ने कहा था कि दंगे जाट-मुस्लिम की लड़ाई थी. सोम पूछते हैं कि अब मुलायम वो सब क्यों नहीं कहते?

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शामली से कांग्रेस विधायक पंकज मलिक दंगों की राजनीति करने का इलजाम बीजेपी पर लगाते हैं. उनका कहना है कि जनता दंगों के कसूरवारों को पहचानती है.

राहत शिविरों का हाल
इस पूरे सियासी सर्कस में दंगा पीड़ित कैंपों में बस रहे लोगों की सोच और हालत सबसे अलग है. यहां दंगों के दर्द पर मुआवजे की खुशी भारी पड़ती दिखती है. इन लोगों को उन्हें उजाड़ने वालो से कोई शिकायत नहीं.

शाहपुर के पास लोई गांव में दंगा पीड़ित राहत कैप में रहने वालों को सरकार ने यहीं मकान फ्री में बनवा दिये. यहीं पर रहने वाले इरफान दो तगड़ी भैंसों के सानी-पानी में मशगूल थे. उन्हें मलाल है कि सरकार ने उन जैसे लोगों के लिए कुछ नहीं किया. ये पूछे जाने पर कि दंगों का जिम्मेदार कौन था, इरफान कहते हैं, ' अब उन बातों पर सोचकर क्या फायदा? हम अब सुखी हैं.'

इस कॉलोनी से बाहर निकले तो एक चांदीदार दाढ़ी वाले साहब बोल पड़े- 'जिनसे आप बात करके निकले इनका क्या भरोसा है रिपोर्टर साहब! ये तो मुआवजे के लिए अपना एक और आदमी मरवाने को तैयार हैं.'

ये सज्जन बोल रहे हैं पर इरफान अपनी भैंस दुहने में मशगूल है। दोनों भैंसें रोज 18 लीटर दूध देती हैं.

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पश्चिमी यूपी के इस दंगा सियासी इलाके में घूम कर तो यही पता चलता है कि यहां दरअसल दुहने की सियासत ही चल रही है. हर कोई मौके के इंतज़ार में अपना बछड़ा लिए डोल रहा है. जैसे ही मौका लगा लपक कर थनों के नीचे अपना बछड़ा लगाओ और दूध निकाल लो. अबकी दुह लिया तो अगले पांच साल तक चैन.

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