उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजों से साफ हो गया है कि 2014 लोकसभा चुनावों की तर्ज पर एक बार फिर मोदी लहर ने प्रदेश के दिग्गजों को धराशाही कर दिया है. सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ने मोदी लहर को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ पोलिटिकल इंजीनियरिंग करने की कोशिश की तो बहुजन समाज पार्टी ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के दायरे में मुसलमान, सवर्ण और ओबीसी को भी जगह दे दी. लेकिन राज्य के चुनावों में मोदी की आंधी यूं चली कि एक-एक कर सभी दिग्गज और दिग्गजों की हवा निकल गई.
अखिलेश यादव की पोलिटिकल इंजीनियरिंग
उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोटरों की बड़ी संख्या है. शहरी इलाकों के विधानसभा क्षेत्र में 32 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं तो ग्रामीण इलाकों में 16 फीसदी मुसलमान वोटर हैं. प्रदेश में मुस्लिम वोट पहले कांग्रेस का पुख्ता वोट बैंक हुआ करता था वहीं बीते दो दशक से वह समाजवाजी पार्टी को लगातार सत्ता में बैठाने में कारगर हो रहा है.
मुस्लिम वोट का महत्व और 2014 के लोकसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं की समाजवाजी पार्टी औऱ कांग्रेस के साथ लामबंदी का अंदाजा इसी बात से लगता है कि दोनों पार्टी को मिलाकर 66 फीसदी मुस्लिम वोट मिला तो बहुजन समाज पार्टी को महज 21 फीसदी मुस्लिम वोट से संतोष करना पड़ा था. 2014 लोकसभा चुनावों में बंटा मुस्लिम वोट राज्य में बीजेपी की बड़ी जीत का अहम कारण बना था.
2014 के चुनावों से सबक लेते हुए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने गठबंधन कर इस वोट बैंक को बंटने से रोकने के लिए पोलिटिकल इंजीनियरिंग का सहारा लिया.
दलित वोटरों ने मायावती को भी नहीं सुना?
बहुजन समाज पार्टी ने भी इस चुनाव में इन मुस्लिम वोटरों को लुभान की जमकर कोशिश की. उसने अबतक के अपने विधानसभा चुनावों के इतिहास में सबसे ज्यादा 97 मुसलमान उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. मायावती ने समाजवादी पार्टी से नजदीकी बढ़ाने में विफल कौमी एकता दल का अपनी पार्टी में विलय कराने के साथ-साथ मुख्तार अंसारी को मैदान में उतारा.
2017 के चुनावों में मायावती सीटों के मुताबिक कुछ इतना नीचे पहुंच गई हैं कि सवाल उनके वोटबैंक पर उठना तय है. क्या ये आंकड़े सिर्फ यह बता रहे हैं कि लोकसभा चुनावों 1024 के बाद, एक बार फिर प्रदेश के दलित वोटरों ने किसी का वोटबैंक बनने से साफ इंकार कर दिया है.