अखिलेश यादव का मुलायम सिंह यादव को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाना भारतीय राजनीति के सबसे नाटकीय किस्सों में गिना जाएगा. अखिलेश ने अपने पिता के राजनीतिक वारिस बने और उन्हें ही किनारे कर आगे निकल गए. अखिलेश के रुख से साफ है कि इस बार वो समझौता करने के लिए तैयार नहीं हैं. चुनाव आयोग ने यूपी समेत पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा कर चुका है. अखिलेश को अच्छी तरह पता था कि जनवरी तक चुनाव घोषित हो जाएंगे और चुनाव आचार संहिता लेकर आएंगे, जिसके बाद वो न तो लैपटॉप बांट पाएंगे और न मेट्रो का फीता काट पाएंगे. ये सारे काम अखिलेश ने दिसंबर में ही कर लिए थे. आलम ये था कि अकेले 20 दिसंबर को उन्होंने 5 घंटे में 51 हजार करोड़ रुपए की 51 परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन किया.
सपा सरकार की ये तमाम योजनाओं आगामी चुनाव में वोटर को लुभाने में अहम भूमिका निभा सकती हैं लेकिन लेकिन आंकड़े कुछ और ही बयान करते नजर आते हैं. चुनाव की घोषणा वाले दिन अखिलेश ने हिंदी-अंग्रेजी के
लगभग सभी अखबारों में पूरे पन्ने का एक विज्ञापन दिया और अपनी उपलब्धियों का बखान किया. जिसमें लिखा गया लिखा कि इरादा सच्चा हो तो सब हो सकता है. लेकिन अगर अखिलेश के विज्ञापनों का विश्लेषण करें तो सच
कुछ और नजर आता है.
समाजवादी युवा रोजगार योजना के बारे में सरकार ने विज्ञापन के जरिए दावा किया है कि 2012 से 2016 के बीच उन्होंने 1,35,228 लोगों को इस योजना का लाभ दिया. इसके लिए उन्होंने 180 लाख रुपए का बजट निकाला था. अब एक बार में दर्शक को लग सकता है कि अखिलेश सरकार की वजह से 180 लाख का बजट जनता की भलाई में लगा और करीब डेढ़ लाख लोगों को इसका फायदा होगा. लेकिन थोड़ा गणित लगाया जाए तो पता कुछ और चलता है. यूपी के 1,35,228 लोगों में जब 180 लाख रुपए बंटेंगे, तो हर एक के हिस्से में सिर्फ 133.10 रुपए, रुपए ही होता है. ऊपर से तुर्रा ये कि 2007-12 के बीच सिर्फ 33 लाख रुपए बांटे गए थे. 51,652 लोगों में. इन्होंने तो तीन गुना लोगों को छह गुना पैसा दे दिया.
2007 से 2012 के बीच के आंकड़े बताते हैं कि इस योजना के तहत लाभार्थियों को महज 63.88 रुपए मिले. यकीनन अखिलेश के आंकड़े बेहतर हैं. लेकिन, ऐसे तो 10 रुपए के बजाय 20 रुपए मुआवजा देने वाली सरकार भी ये कह सकती है कि उसने मुआवजा 100 फीसदी बढ़ा दिया. लेकिन इससे लोगों का कुछ भला होगा क्या. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के बाद से यही हो रहा है. योजनाओं के नाम पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है. अखिलेश जगे हैं, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार झेलने के बाद. वो चुनाव उनके लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं है, जिसे वो कभी याद नहीं रखना चाहेंगे. फिर भी यूपी के नसीब में कोई सुधार नहीं हुआ था. कैराना, मुजफ्फरनगर दंगा, बुलंदशहर हाइवे गैंगरेप, अखलाक हत्याकांड ये सब यूपी ने अखिलेश कार्यकाल में ही देखा है.