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सपा का दंगल: 'नेताजी' इन 5 वजहों से अचानक हुए 'मुलायम'

मुलायम ने मंगलवार सुबह अखिलेश को बातचीत के एक और दौर के लिए न्योता भेजा. साथ ही एलान भी कर दिया कि अखिलेश ही मुख्यमंत्री के उम्मीदवार होंगे. जानिए वो कौन सी 5 वजह हैं जिन्होंने नेताजी को दोबारा मुलायम होने के लिए मजबूर किया.

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मुलायम का आखिरी दांव !
मुलायम का आखिरी दांव !

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समाजवादी पार्टी की कलह को लेकर जब हर कोई समझ रहा था कि अब समझौते की कोई गुंजाइश नहीं बची, ठीक उसी वक्त मुलायम सिंह ने खास दांव चल कर दुनिया को जताया कि ये मत भूलो वो पहलवान रहे हैं. धोबीपछाड़ दांव के माहिर रह चुके मुलायम ने दिखाया कि कुश्ती का नियम है, जब तक पहलवान खुद अखाड़ा ना छोड़ दे, तब तक किसी को नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए.

इतिहास गवाह है कि भारतीय राजनीति के अखाड़े में मुलायम ऐसे पहलवान हैं, जिनके बारे में ये कयास लगाना मुश्किल है कि वो अगला दांव कौन सा चलेंगे. क्या मुलायम ने दीवार पर लिखी इबारत पढ़ ली है और बेटे के लिए मैदान छोड़ देने का फैसला किया है? या फिर ये विरोधियों को गच्चा देने के लिए दिग्गज पहलवान की चाल है? या ये उम्र का तकाजा है कि नेताजी 'घड़ी में तोला, घड़ी में माशा' नजर आ रहे हैं. क्या यही वजह है कि मुलायम समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके लगातार बयान बदलने ने कैसे हंसी का पात्र बना दिया है?

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मुलायम ने मंगलवार सुबह अखिलेश को बातचीत के एक और दौर के लिए न्योता भेजा. साथ ही एलान भी कर दिया कि अखिलेश ही मुख्यमंत्री के उम्मीदवार होंगे. जानिए वो कौन सी 5 वजह हैं जिन्होंने नेताजी को दोबारा मुलायम होने के लिए मजबूर किया.

1. हाशिए पर धकेल दिए जाना
मुलायम की छवि ऐसे राष्ट्रीय नेता की रही है जिसमें प्रधानमंत्री बनने का पूरा माद्दा था. फिलहाल मुलायम की स्थिति ऐसी है कि उनके पास तीन बातों का ही सहारा बचा है- अमर सिंह, शिवपाल यादव और समाजवादी पार्टी का संविधान (जिसकी वो कभी अधिक परवाह करते नहीं दिखे). अखिलेश अब पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं की सर्वसम्मत पसंद हैं. अखिलेश और मुलायम की रस्साकशी में पार्टी के 90 फीसदी नेताओं ने युवा मुख्यमंत्री के पीछे जुटने का मन बना लिया है. बाकी जो बचे हैं वो भी जैसे ही समझौते की आखिरी उम्मीद भी टूटती है तो अखिलेश की नैया पर सवार होने में तनिक देर नहीं लगाएंगे. चुनावी रण के समाजवादी योद्धा जानते हैं कि मुलायम को सिर्फ सहानुभूति मिल सकती है. लेकिन चुनाव जीतने के लिए आपको वोटों की जरूरत होती है. 78 की उम्र में मुलायम वोटों को चुंबक की तरह खींच सके, ये संभावना बहुत कम नजर आती है.

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2. साइकिल पर संशय
बंद कमरों में होने वाली बैठकों में मुलायम बेशक जो भी दावे करें लेकिन 206 विधायकों और 15 सांसदों के हलफनामों की अनदेखी करना चुनाव आयोग के लिए भी संभव नहीं होगा. इन सभी विधायकों-सांसदों ने लिखित में अखिलेश को समर्थन दिया है. मुलायम सिंह खेमे का चुनाव आयोग में सारा दांव एक ही बात पर टिका है कि 1 जनवरी को अखिलेश की ओर से बुलाया गया पार्टी का अधिवेशन अवैध और पार्टी के संविधान के खिलाफ था. हालांकि मुलायम को ये भी अच्छी तरह मालूम है कि उन्होंने अतीत में खुद भी ऐसे कई फैसले लिए हैं जिनमें पार्टी के संविधान की अधिक परवाह नहीं की गई थी. इस बात का इशारा अखिलेश खेमा चुनाव आयोग को पहले ही दे चुका है.

3. उम्मीदवारों का दबाव
कड़ाके की ठंड में भी जब समाजवादी पारा उफान पर है, इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि परिवार के अब तक के सबसे बड़े झगड़े के बावजूद 167 उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर अखिलेश और मुलायम दोनों का बराबर का भरोसा है. इन सभी उम्मीदवारों के नाम दोनों खेमों की ओर से जारी की गई सूचियों में समान हैं. समय हाथ से निकलता जा रहा है, ऐसे में उम्मीदवार चाहते हैं कि मुलायम सुलह करें जिससे कि वो 'साइकिल' पर सवार होकर चुनावी रण के लिए कूच कर सकें. 'साइकिल' का चुनाव चिह्न इतने वर्षों में समाजवादी पार्टी का पर्याय बन चुका है. इन सभी उम्मीदवारों का मुलायम पर दबाव है कि वे बड़प्पन दिखाते हुए सुलहनामे का एलान करें.

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4. मायावती की वापसी?
सियासी रंजिश कहिए या निजी स्तर पर नापसंदगी, मुलायम सिंह के लिए मायावती को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के पद पर देखने से अधिक कष्टकारी और कुछ नहीं हो सकता. मुलायम अच्छी तरह जानते हैं कि उनके परिवार के झगड़े का सीधा फायदा 'दुश्मन नंबर 1' को होगा. अगर समाजवादी पार्टी चुनावी दौड़ में पिछड़ती दिखाई दी तो मुस्लिमों को बीएसपी को वोट देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं दिखेगा. मुलायम बीजेपी सरकार को तो एक बार झेल सकते हैं लेकिन मायावती को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना उन्हें हर्गिज बर्दाश्त नहीं होगा.

5. क्या सब ड्रामा ?
ऐसे लोगों की कमी नहीं जो गंभीरता से मानते हैं कि समाजवादी परिवार का ये झगड़ा गढ़ा गया है और इसकी स्क्रिप्ट खुद सियासत के खांटी खिलाड़ी मुलायम सिंह ने लिखी है. सिर्फ इसलिए कि बेटे के राजनीतिक जमीन पर पैर इतने मजबूत जमा दिए जाएं कि फिर उसे किसी सहारे की जरूरत ही ना रहे. ऐसा मानने वाले लोगों का तर्क है कि मुलायम आखिरकार ये सुनिश्चित कर देंगे कि शिवपाल, अमर सिंह और रामगोपाल अपनी साख खोकर हाशिए पर चले जाएं और सिर्फ 'टीपू' (अखिलेश का घर का नाम) के हाथों में ही समाजवादी पार्टी की चमकती तलवार बचे और उसे वो जैसे चाहें, वैसे चलाएं. कुछ हद तक अमर सिंह, रामगोपाल यादव और शिवपाल को छवि पर दाग का दंश झेलना भी पड़ रहा है लेकिन चुनावी प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद अब यक्ष प्रश्न ये है कि क्या अखिलेश अपने बूते नैया को पार लगा सकेंगे?

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सवाल का जवाब पर्दे के पीछे छुपा है. फिलहाल ऐसी बैठकों का सिलसिला जारी है जिनमें और सब कुछ सामने आ रहा है सिवाए नतीजे के.

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