उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को लेकर भारतीय जनता पार्टी की दुविधा बढ़ती जा रही है. राज्य से आने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को अब महागठबंधन का डर सताने लगा है. उन्हें लग रहा है कि अगर महागठबंधन बनता है कि उस स्थिति में भाजपा को जीत के मुहाने तक कैसे लेकर जाया जाएगा.
दरअसल, यह भूत बिहार का है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की धुंआधार रैलियां और सभाएं कराने के बाद भी 2015 के विधानसभा चुनावों में बिहार में भाजपा चारों खाने चित्त हो गई थी. अब जबकि एक वैसे ही महागठबंधन की कोशिशें उत्तर प्रदेश में तेज़ हो गई हैं, भाजपा को हार की चिंता फिर से सताने लगी है.
भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं का आकलन है कि अगर महागठबंधन बनता है तो राज्य में मुस्लिम वोट का बंटना रुक जाएगा और यह भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं है. दरअसल, भाजपा के अपने जातीय गणित के अलावा यह बात भी बहुत अहम है कि राज्य में मुस्लिम वोट बंटे.
अगर मुस्लिम वोट सपा और बसपा के बीच बंट जाए तो इसका सीधा फायदा यह होगा कि भाजपा राज्य में त्रिकोणीय हो गए मुकाबले में दो कमज़ोर दलों से भिड़ेगी न कि किसी एक मज़बूत विरोधी से. इससे उनके लिए जीत की स्थितियां आसान होतीं. लेकिन शायद भाजपा की इस गणना पर अब पानी फिरता जा रहा है.
कलह का लाभ
पहले भाजपा इस बात को लेकर खासी चिंतित थी कि समाजवादी पार्टी में आंतरिक कलह बढ़ती जा रही है. कोई कह सकता है कि भला यादव परिवार की कलह का भाजपा से क्या वास्ता. दरअसल, यादव परिवार की कलह से मुसलमान वोट तेज़ी से बसपा की ओर जाता नज़र आया. यह भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं थी.
मायावती इसबार का चुनाव दलित-मुस्लिम समीकरण पर लड़ रही हैं. देवबंदियों से लेकर दलित मंचों तक सूबे में दलित मुस्लिम एकता का नारा दोहराया जा रहा है. अल्पसंख्यकों की मांगों और उनके ऊपर अत्याचारों को लेकर मायावती सपा से कहीं अधिक मुखर भी रहीं.
सपा की अस्थिरता ने मुसलमानों को भाजपा के खिलाफ बसपा को एक मज़बूत विकल्प के रूप में देखने का मौका दिया. इससे मायावती की स्थिति बेहतर हुई और भाजपा को अपने लिए लड़ाई कठिन होती दिखाई दी.
लेकिन जैसे जैसे स्थितियां बदलीं और अखिलेश यादव और मज़बूत होकर उभरे, ऐसा लगने लगा कि मुसलमान वोट दरअसल, अभी भी सपा के साथ प्रतिबद्ध है. वो बसपा की ओर उम्मीद से देख तो रहा है लेकिन सपा से उसका पूरी तरह मोहभंग नहीं हुआ है.
भाजपा इससे खुश थी. क्योंकि मुस्लिम वोट का बंटना भाजपा के लिए अच्छी खबर है. भाजपा चाहती है कि मुसलमानों का वोट किसी एक पार्टी को न जाकर दो-तीन दलों में बंट जाए.
महागठबंधन का भय
ताज़ा स्थितियों में सपा और निर्णायक होकर उभरी है. अखिलेश अपनी साफ, ताकतवर और जुझारू छवि के साथ उभरे हैं और यह साफ हो गया है कि सपा में अखिलेश सबसे लोकप्रिय और मज़बूत नेता बनकर सामने आए हैं. पिछले साढ़े चार साल की कमज़ोरी और साढ़े चार मुख्यमंत्रियों वाली छवि से अखिलेश को मुक्ति मिली है.
कलह के कारण अकेले घेरे जा रहे अखिलेश के प्रति एक सहानुभूति की लहर भी बनी है. अखिलेश अपने अबतक के राजनीतिक करियर में सबसे बेहतर स्थिति में आ गए हैं और यह उनकी पार्टी के लिए एक सकारात्मक संकेत है.
इस पूरी स्थिति में महागठबंधन की कोशिशें भी तेज़ हो गई हैं. लालू प्रसाद यादव से लेकर अजीत सिंह तक सपा के साथ खड़े होने के संकेत दे चुके हैं. नीतीश कुमार भी भाजपा के खिलाफ खड़े होने वाले मोर्चे में आज नहीं तो कल साथ खड़े नज़र आएंगे.
कांग्रेस भले ही प्रशांत किशोर की मुलायम सिंह यादव से मुलाकात को किशोर की निजी कोशिश करार दे रही हो, लेकिन महागठबंधन की ओर कांग्रेस भी खुली आंखों से देख रही है और अगर सीटों के बंटवारे पर एक सहमति बन पाती है तो कांग्रेस भी इस महागठबंधन का हिस्सा होगी.
इससे होगा यह कि मायावती तीसरे नंबर की लड़ाई पर आ सकती हैं और महागठबंधन एक मज़बूत जातीय गणित के साथ भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकता है. उनके पास जाटों को साधने के लिए अजीत सिंह, अति पिछड़ों को साधने के लिए नीतीश कुमार, यादवों और मुसलमानों को साधने के लिए मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद, युवाओं को साधने के लिए अखिलेश यादव, ग़ैर-जाटव जातियों को साधने के लिए कांग्रेस जैसे चेहरे होंगे.
महागठबंधन की सूरत में मायावती कमज़ोर पड़ सकती हैं क्योंकि मुसलमान इस महागठबंधन को एक मज़बूत विकल्प की तरह देखकर इसके पक्ष में लामबंद हो सकता है. मायावती के लिए तो यह बुरी खबर है ही, लेकिन सबसे ज़्यादा बेचैनी भाजपा को हो रही है.
यूपी का विधानसभा चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल है. भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश हारना काफी महंगा पड़ सकता है. और महागठबंधन इस आशंका को बढ़ा रहा है.