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उत्तराखंड चुनाव में पहाड़ों से पलायन बड़ा मुद्दा, लेकिन सुध लेने को तैयार नहीं नेता

अब तक जिस भी नेता या पार्टी ने इस मसले को सुलझाने का वादा किया है उत्तराखंड की जनता ने उसे सिर आंखों पर बिठाया है. जनता के समर्थन से चप्पल पहनकर गलियों की खाक छानने वाले नेता महंगी कारों में तो घूमने लगे लेकिन पलायन नहीं रुका.

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सीएम रावत ने पहाड़ों के सरोकारों से किया किनारा
सीएम रावत ने पहाड़ों के सरोकारों से किया किनारा

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उत्तराखंड में हर चुनाव में बेरोजगारी मुद्दा बनती है लेकिन हालात अब तक जस के तस हैं. यहां के पहाड़ों में आज गांवों के गांव खाली नजर आते हैं. ज्यादातर लोगों को कमाई के लिए निचले इलाकों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

नेता को तरसते पहाड़!
अब तक जिस भी नेता या पार्टी ने इस मसले को सुलझाने का वादा किया है उत्तराखंड की जनता ने उसे सिर आंखों पर बिठाया है. जनता के समर्थन से चप्पल पहनकर गलियों की खाक छानने वाले नेता महंगी कारों में तो घूमने लगे लेकिन पलायन नहीं रुका. राज्य के ज्यादातर नेता चुनाव जीतने के बाद गांवों का रुख नहीं करते. लिहाजा लोग ठगा हुआ महसूस करते हैं.

पहाड़ों की मिट्टी भूले सीएम रावत
उत्तराखंड की सियासत के इस ट्रेंड की सबसे बड़ी मिसाल खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत हैं. पहाड़ की सियासत और मुद्दों पर बात करने का कोई मौका ना चूकने वाले रावत ने चुनाव लड़ने के लिए ऐसी सीटों को चुना है, जिनका पहाड़ों से कोई वास्ता नहीं है. वो किच्छा और हरिद्वार-ग्रामीण सीट से उम्मीदवार हैं.

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लोग मान रहे हैं कि अगर हरीश रावत जीतते हैं तो उनकी तवज्जो अपने विधानसभा हलके की ओर होगी. यानी पहाड़ों की जनता एक बार फिर नजरअंदाज होगी.

रावत के अलावा यशपाल आर्य ने भी अपने बेटे को तराई से ही टिकट दिलवाया है. उनके अलावा पहाड़ से ताल्लुक रखने वाले हरक सिंह रावत ने भी पहाड़ से पलायन कर कोटद्वार सीट को चुना है.

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