उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए 20 साल होने को हैं लेकिन आज भी वहां पलायन सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है. 9 नवंबर 2002 को यूपी से अलग होकर देश के 27 वें राज्य के रूप में उत्तराखंड का गठन हुआ था.
1994 से ही उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग होती रही जिसके लिए लंबी राजनीतिक लड़ाई भी चली और कई लोगों ने इसके लिए कुर्बानियां भी दी थी. पहाड़ी बहुल आबादी और नदियों की श्रृंखला वाले इस राज्य के गठन के पीछे मंशा थी विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस राज्य की आबादी को मुख्यधारा के विकास से जोड़ना.
विकास के दावे तो हुए लेकिन जमीन पर काम नहीं हुआ यही वजह है कि पहाड़ों से लोग घर, जमीन छोड़कर तराई और शहरों की ओर पलायन करने लगे. इसको लेकर उत्तराखंड में सियासत भी गर्म है क्योंकि मद्दा वोट बैंक का है.
पहाड़ के जीवन को मुख्यधारा की सुविधाओं से जोड़ना हमेशा से चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है. लगभग सभी सरकारों ने इसके लिए प्रयास करने का दावा किया है लेकिन अब तक वो सफल नहीं हुआ है.
उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियां ही उसकी विषमताओं की प्रमुख वजह है. सड़कों की कमी, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सुविधाओं का अभाव, बेरोजगारी और गरीबी के चलते साल दर साल दशकों से पहाड़ से लोगों का पलायन जारी है.
टिहरी जिला भी पलायन प्रभावितों में से एक है. स्थानीय नागरिक कांतिलाल शाह कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या है जिसके चलते उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन हो रहा है.
कांतिलाल ने बताया कि अगर कोई महिला प्रसव पीड़ा से परेशान हो जाए तो ऐसे कई सारे गांव है जहां से उसे लकड़ी के स्ट्रेचर पर लाना पड़ता है क्योंकि आसपास कोई अस्पताल नहीं है. लोग बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं लेकिन शिक्षा की सुविधा नहीं होने की वजह से उन्हें पलायन करना पड़ता है.
क्या बोले स्थानीय बीजेपी नेता?
वहीं पलायन को लेकर स्थानीय बीजेपी नेता नरेंद्र डंग्वाल कहते हैं कि सरकार सड़कों को जोड़ने के साथ मूलभूत सुविधाएं मुहैया करा रही है. वहीं कांग्रेस के नेता धनीलाल कहते हैं कि अभी भी पहाड़ों की अनदेखी हो रही है चाहे सरकार किसी की भी रही हो.
उत्तराखंड पलायन आयोग के मुताबिक टिहरी, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग और पौड़ी जैसे जिलों में पलायन की समस्या सबसे गंभीर है. वहां हालात ये है कि गनगर गांव के मंदिर में देवता तो विराजमान हैं लेकिन उनकी पूजा करने के लिए आसपास के घरों में कोई नहीं है. कई दशक पहले पूरा गांव पहाड़ के निचले इलाकों में चला गया. कोई देहरादून तो किसी ने दिल्ली में अपना ठिकाना बना लिया.
गांव के बाहर मवेशियों को चराने वाले स्थानीय निवासी रूद्र ने बताया कि जब युवाओं के लिए यहां रोजगार ही नहीं है तो रोजी-रोटी के लिए आखिर कोई यहां कैसे रहेगा. इनका कहना है कि जब हमें मूलभूत सुविधाएं नहीं मिलेंगी तो लोग शहरों की ओर तो जाएंगे ही. इसी गांव में रहने वाले युवाओं के लिए बेरोजगारी अब सबसे बड़ी समस्या है.
चलाया जा रहा है अभियान
पलायन रोकने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार मिशन के तहत उत्तराखंड के सुदूर इलाकों में अभियान चलाया जा रहा है जिसका फायदा लक्ष्मी जैसी उन महिलाओं को हुआ है जो कभी आर्थिक तंगी की शिकार थीं. ग्रामीण रोजगार मिशन के तहत उन्हें मुर्गियां पालने के लिए आर्थिक सहायता मिली और अब उन्हीं पैसों से वह अपने कस्बे में एक छोटा सा ढाबा चला रही हैं.
इस अभियान से जुड़ी ज्योति जैसी महिलाएं बताती हैं कि पलायन इस इलाके में सबसे बड़ी समस्या है और उन्होंने इसे बेहद करीब से देखा है लेकिन इसे रोकने के लिए सरकार की ओर से प्रयास भी किए जा रहे हैं और इसमें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अभियान बेहद कारगर है जिसके तहत वह अलग-अलग परिवारों से जुड़कर उन्हें रोजगार के अवसर मुहैया करवाती हैं.
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