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देश की देवभूमि, पहाड़ी राज्य उत्तराखंड....कभी उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था. लेकिन अलग मुद्दे....अलग समस्याओं ने समय-समय पर इसके अलग राज्य बनाने की मांग को उठाया. मांग दशकों पुरानी थी लेकिन ये संघर्ष काफी मुश्किल. किसी भी राज्य का बंटवारा कर देना एक बड़ा पड़ाव होता है, इसके लिए बलिदान देने होते हैं, आंदोलन करना होता है और कई मौकों पर अपनी जिंदगी की भी कुर्बानी देनी होती है. आज जो उत्तराखंड 21 साल से ज्यादा पुराना हो गया है, इसको बनाने में कई महान सपूतों का खून-पसीना लगा है. ये लोग सिर्फ राजनीति से जुड़े नहीं रहे हैं बल्कि कई ऐसे भी हैं जो गरीब परिवार से आए हैं, जिन्होंने संसाधनों के आभाव में अपना जीवन व्यतीत किया है, लेकिन उस संघर्ष ने ऐसी प्रेरणा की अलख जगाई कि उन सभी ने मिलकर उत्तराखंड राज्य की नींव रखने में अभूतपूर्व योगदान दे दिया. आज बात उन्हीं वीर सपूतों की, उन महान क्रांतिकारियों की......
इंद्रमणि बडोनी
ये वो शख्सियत हैं जिन्हें पूरा देश उत्तराखंड के 'गांधी' के नाम से जानता है. उन्हीं की महत्वकांक्षा और संघर्षों ने उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए आंदोलन की शुरुआत की थी. इंद्रमणि बडोनी का जन्म 24 दिसंबर, 1925 को तिहरी जिले के अखोड़ी गांव में हुआ था. वे काफी गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे. संसाधन कभी इतने रहे नहीं कि बाहर जाकर शिक्षा भी ग्रहण कर सकें. ऐसे में उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा गांव में रहकर ही पूरी की. लेकिन बाद में अपनी लगन के दम पर स्नातक की उपाधि भी हासिल की. उनकी बचपन से ही एक खासियत रही जो उन्हें दूसरों से अलग बनाती थी. वे बेहतरीन वक्ता थे, ऐसा बोलते कि सुनने को भीड़ भी तुरंत जुट जाती और उनकी बातें हमेशा तथ्य पर आधारित और वजनदार रहतीं.
इसी वजह से इंद्रमणि बडोनी ने साल 1980 में उत्तराखंड क्रांति दल की सदस्यता ग्रहण कर लीं. ये वो समय था जब उत्तराखंड आंदोलन ज्यादा सक्रिय नहीं हुआ था लेकिन इसको धार देने का काम शुरू हो गया था. आठ साल तक लगातार इंद्रमणि बडोनी अपने क्षेत्र में इस अलग राज्य की मांग को उठाते रहे, समय-समय पर छोटे प्रदर्शन भी किए. लेकिन फिर साल 1988 में एक बड़ा मोड़ आया जिसने इंद्रमणि बडोनी की विश्वनीयता और नीयत को कई गुना बढ़ा दिया. उस साल इंद्रमणि बडोनी ने तवाघाट से देहरादून तक 5 दिनों की पैदल जन संपर्क यात्रा निकाली. उस यात्रा के दौरान उन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों के विभिन्न मुद्दों को उठाया, कई मौकों पर अपनी अलग राज्य की मांग को सही बताया और उन्हें इस सब का फल मिलना भी शुरू हुआ.
उस पैदल यात्रा के बाद लोग इंद्रमणि बडोनी को 'गांधी' के तौर पर जानने लगे, उनकी पहचान एक जनआंदोलनकारी के रूप में स्थापित हो गई. फिर 1994 में इंद्रमणि बडोनी ने उत्तराखंड आंदोलन को नई धार देने का काम किया. 72 साल की उम्र में वे अलग राज्य के आंदोलन के सूत्रधार बन गए और 7 अगस्त 1994 को आमरण अनशन पर बैठ गए. उनके उस एक अनशन ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया, राजनीतिक गलियारों में चर्चा का दौर शुरू हो गया और देखते ही देखते उत्तराखंड आंदोलन व्यापक हो चला. लेकिन उस आंदोलन की सक्रियता और इंद्रमणि बडोनी की लोकप्रियता से प्रशासन सहम उठा. फिर सात अगस्त को उस अनशन को खत्म करवाने के लिए इंद्रमणि को जबरदस्ती मेरठ अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया. कहा जाता है कि 30 दिनों तक उन पर दवाब बनाया गया, पूरी कोशिश हुई कि वे अपना आमरण अनशन समाप्त कर दें. अब वो अनशन तीस दिनों बाद खत्म जरूर हुआ, लेकिन इंद्रमणि बडोनी की शर्तों पर, उन्होंने ना अपनी अलग राज्य की मांग को छोड़ा और ना ही प्रशासन के खिलाफ अपने विरोध प्रदर्शन को.
(खटीमा गोलीकांड)
अब अपने कड़े परिश्रम से इंद्रमणि बडोनी ने ऐसा जनसमर्थन हासिल कर लिया था कि प्रशासन की नजरों में सिर्फ वे नहीं खटकते थे, बल्कि उनके कई दूसरे समर्थक भी हमेशा निशाने पर रहते. ऐसा ही कुछ एक सितंबर 1994 को खटीमा और फिर 2 सितंबर को मसूरी में देखने को मिला. प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारियों पर खूब जुल्म किया गया, उन्हें प्रताड़ित किया गया. ऐसे में 72 साल की उम्र में भी इंद्रमणि बडोनी ने खुद जमीन पर पुलिस के खिलाफ आवाज बुलंद करने का फैसला किया. उन्होंने मसूरी कूच का ऐलान कर दिया और फिर एक बड़े प्रदर्शन की शुरुआत की. लेकिन इस बार पुलिस ने इंद्रमणि बडोनी को प्रदर्शन स्थल पर पहुंचने ही नहीं दिया और वे जोगीवाला चौक से ही गिरफ्तार कर लिए गए.
इसके बाद 1994 से 1999 तक भी बडोनी ने उत्तराखंड राज्य के अपने आंदोलन को जारी रखा, लेकिन उम्र का ऐसा तकाजा रहा कि वे ज्यादा सक्रिय नहीं हो पाए. वे किडनी के रोग से भी ग्रसित हो लिए, ऐसे में ज्यादा समय अस्पताल में बीतने लगा. लेकिन उनके करीबी बताते हैं कि उत्तराखंड का सपना इंद्रमणि बडोनी ने कभी नहीं छोड़ा. मृत्यु शैया पर आने के बावजूद भी उनकी आंखों में अलग राज्य का सपना जीवित रहा, इसी वजह से 18 अगस्त, 1999 को उनका निधन तो हुआ लेकिन उत्तराखंड राज्य वाला आंदोलन और तेज हो गया और फिर 9 नवबंर 2000 को यूपी से अलग होकर 'उत्तरांचल' का जन्म हुआ.
रन्जीत सिंह वर्मा
उत्तराखंड आंदोलन की जब भी बात की जाती है, देहरादून क्षेत्र की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. उस क्षेत्र से रंजीत सिंह वर्मा ने आंदोलन का ऐसा बिगुल फूंका था जो उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के बाद ही शांत हुआ. जब इंद्रमणि बडोनी ने 1994 में उत्तराखंड आंदोलन के लिए निर्णायक लड़ाई शुरू की थी, तब देहरादून से उस संघर्ष को रंजीत सिंह वर्मा ने आगे बढ़ाया था. वे एक बेदाग छवि वाली शख्सियत थे. उनका सभी से ऐसा बेहतरीन तालमेल रहता था कि क्या नेता, क्या आंदोलनकारी और क्या आम आदमी, वे सभी से संपर्क साध लेते थे और एक गहरा रिश्ता बन जाता.
लेकिन क्योंकि रंजीत सिंह वर्मा ने भी आंदोलन करने का फैसला किया, ऐसे में पुलिस अत्याचार का उन्हें कई मौकों पर सामना करना पड़ा. फिर चाहे उन्हें रामपुर तिराहा कांड के दौरान चोटें आई हों या फिर मुजफ्फरनगर कांड के दौरान पुलिस अत्याचार सहन करना पड़ा हो. लेकिन क्योंकि रंजीत सिंह वर्मा ने हमेशा अपने हौंसले बुलंद रखे, ऐसे में उन्हें उनकी मेहनत का फल भी मिला. वे उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति देहराजून जनपद का अध्यक्ष बनाए गए थे. उनका उसूल स्पष्ट था-कुछ भी हासिल करने के लिए आंदोलन करना जरूरी है, लेकिन हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया जाएगा.
फिर भी इस आंदोलन में उनकी सक्रियता ऐसी रही कि सबसे पहले इस मुद्दे पर सरकार से बातचीत करने का मौका उन्हें मिला. जब देश के प्रधानमंत्री देवगौड़ा थे, तब उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति को बातचीत के लिए बुलाया गया था. उस समय इस बात पर सहमति बनी थी कि अभी के लिए उत्तराखंड को एक केंद्र शासित राज्य बनाया जा सकता है. अगर वो कदम उस समय उठा लिया जाता तो शायद उत्तराखंड आंदोलन ज्यादा लंबा नहीं चलता. लेकिन आंदोलनकारियों की किस्मत ऐसी रही कि उस सहमति के बाद केंद्र में देवगौड़ा की सरकार गिर गई और उनका संघर्ष और लंबा खिचता चला गया.
वैसे रंजीत सिंह वर्मा को लेकर ये भी कहा जाता है कि वे अपने उसूलों के काफी पक्के रहे. 1991 से पहले तक वे राजनीति में खासा सक्रिय थे. जिस मसूरी विधानसभा का वे पहले प्रतिनिधित्व करते थे, 1991 के बाद से उन्होंने राजनीति से ही संन्यास लेने का ऐलान कर दिया. उनका उदेश्य सिर्फ उत्तरांखड को अलग राज्य बनाना रह गया था. ऐसे में 9 नवंबर, 2000 तक वे उस आंदोलन का नेतृत्व करते रहे और उनकी आंखों के सामने ही उत्तराखंड राज्य का जन्म हुआ. लेकिन वे अपने वादे के ऐसे पक्के रहे कि उन्होंने उत्तराखंड बन जाने के बाद भी कभी चुनाव नहीं लड़ा और खुद को सामाजिक कार्यों में व्यस्त रखा. 2019 में 84 साल की उम्र में उत्तराखंड आंदोलन का ये क्रांतिकारी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गया.
हंसा धनाई
उत्तराखंड राज्य के लिए जो आंदोलन चलाया गया था, उसे सिर्फ एक समाज, एक जाति या फिर एक लिंग से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. अगर उस आंदोलन में पुरुषों ने पुलिस की यातनाएं झेली थीं तो महिलाओं ने भी गोलियां खाई थीं. ऐसी ही एक महान शख्सियत थीं हंसा धनाई जिन्होंने ना सिर्फ उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने का सपना देखा, बल्कि आने वाली पीढ़ी के सुनहने भविष्य का भी पूरा ख्याल रखा. उन्होंने अपने साथ कई और महिलाओं को जोड़ रखा था और सभी ने 1994 के आंदोलन में एक सक्रिय भूमिका निभाई. लेकिन 2 सितंबर 1994 को जो हुआ उसने ना सिर्फ उत्तराखंड का इतिहास बदलकर रख दिया बल्कि तब की यूपी सरकार और पुलिस पर भी कलंक लगा दिया.
2 सितंबर 1994 को मसूरीकांड हुआ था जिसमें 6 आंदोलनकारियों को पुलिस ने जान से मार दिया था. एक पुलिस अधिकारी की भी गोली लगने से मौत हुई थी. ना कोई चेतावनी थी, ना कोई आदेश था, सिर्फ आंदोलनकारियों को खत्म करने का उदेश्य था. उन्हीं 6 आंदोलनकारी में हंसा धनाई भी शामिल थीं. वे मसूरी के कुलडी बाजार में अपने तीने बेटों और 12 साल की बेटी के साथ रहती थीं. उनके पति भगवान धनाई उत्तराखंड आंदोलन में बड़ी भूमिका निभा रहे थे. मसूरीकांड से एक दिन पहले पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया था. उनके जैसे और भी कई आंदोलनकारी उस दिन गिरफ्तार हुए थे. तब पुलिस की तरफ से खटीमा में भी आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाई गई थीं. ऐसे में उस कार्रवाई का विरोध करने के लिए अगले दिन प्रदर्शन किया जाना था. सबकुछ शांति से हो रह था, कही कोई हिंसा नहीं थी. लेकिन पुलिस ने अचानक आकर अंधाधुन फायरिंग कर दी और 6 आंदोलनकारियों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया.
उस घटना को याद कर हंसा धनई की बेटी बताती हैं कि पुलिस कार्रवाई की वजह से बच्चों को जुलूस में शामिल नहीं किया गया था. उनकी मां दूसरी कुछ महिलाओं के साथ उस प्रदर्शन में गई थीं. अब उस प्रदर्शऩ के दौरान जब उनकी शहीद मां के शव को घर लाया गया, तब उनकी बेटी को इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि उनकी मां इस दुनिया में नहीं रही हैं. वे मानती हैं कि उनकी मां हंसा धनाई ने उत्तराखंड के बच्चों के भविष्य के लिए अपनी कुर्बानी दी थी. वे हमेशा मानती थीं कि उत्तराखंड को इतना समृद्ध बनाना होगा कि वहां से किसी बच्चे को कभी पलायन ना करना पड़े. अब उत्तराखंड राज्य काफी विकसित तो हो गया है लेकिन वो विकास देखने के लिए हंसा धनाई हमारे बीच नहीं हैं.
(मसूरी गोलीकांड)
विवेकानंद खंडूडी
उत्तराखंड आंदोलन को लेकर ये कहा जाता है कि इसमें भारतीय जनता पार्टी की सक्रियता ज्यादा रही थी. कांग्रेस की तरफ से इस आंदोलन का ज्यादा स्वागत कभी नहीं किया गया. लेकिन जब भी इस आंदोलन को याद किया जाता है तो एक कांग्रेसी की भूमिका को कभी नहीं भुलाया जा सकता- विवेकानंद खंडूडी. बेबाक अंदाज, हर मुद्दे पर खुलकर बोलना, उत्तराखंड आंदोलन के दौरान खंडूडी ने अपनी एक अलग पहचान बनाई थी. उस आंदोलन की वजह से खंडूडी ने पूरा एक महीना बरेली सेंट्रल जेल में बिताया था. उनकी आंदोलन में ऐसी सक्रियता रही कि वे हमेशा पुलिस के रडार पर रहते थे. तब ऐसी खबरें थीं कि पुलिस विवेकानंद खंडूडी को जान से भी मार सकती है. ऐसे में जब आंदोलन अपने चरम पर था, तब 6 महीने के लिए खंडूडी अंडरग्राउंड हो गए थे. लेकिन अलग राज्य की मांग और पहाड़ी क्षेत्र के मुद्दों को उठाना कभी नहीं छोड़ा गया. उस लड़ाई में उनकी पत्नी पुष्पा खंडूडी ने भी उनका पूरा साथ दिया था. ऐसे में विवेकानंद खंडूडी ने पार्टी विचारधारा से ऊपर उठकर एक अलग मुहिम के लिए अपना खून-पसीना एक किया था.
महावीर शर्मा
सिर्फ गोली खाना, पुलिस की लाठियों को सहन करना या कह लीजिए धरना देना ही आंदोलन नहीं होता है. उत्तराखंड आंदोलन के दौरान महावीर शर्मा ने ये सिद्ध कर दिखाया था. इतिहास के पन्ने खंगालेंगे तो उनके बारे ज्यादा कुछ सामने नहीं आएगा. उन्होंने ना कोई अनशन किया था ना ही कोई जोरदार नारा दिया था. लेकिन फिर भी उस आंदोलन से जुड़े लोग बताते हैं कि अगर महावीर शर्मा नहीं होते तो शायद कई लोगों पर झूठे मुकदमे दर्ज हो जाते, कई लोग जेल में ही अपनी जिंदगी व्यतीत करते रह जाते. अब वो ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि महावीर शर्मा की एक गवाई ने उत्तराखंड आंदोलनकारियों के हौसलों को बुलंद करने का काम किया था.
ये घटना 2 अक्टूबर 1994 की है जब कई आंदोलनकारी देहरादून से दिल्ली कूच कर रहे थे. उनका उदेश्य वहीं था- उत्तराखंड को अलग राज्य बनाना. लेकिन तब की यूपी में मुलायम सिंह सरकार ने पुलिस को निर्देश दे दिए कि उन आंदोलनकारियों को दिल्ली ना जाने दिया जाए. ऐसे में जब आंदोलनकारियों की बस राम तिराहा चौराहे पर पहुंची, पुलिस की तरफ से अंधाधुन फायरिंग हुई. लाठचार्ज हुआ और देखते ही देखते 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए. अब उस पूरी घटना के चश्मदीद गवाह थे महावीर शर्मा. इस मामले की जब सीबीआई जांच हुई, कई गवाह अपने बयान से पलट गए. पुलिस और राजनीतिक दलों का ऐसा दवाब रहा कि कई गवाह सच बोलने से बच गए. लेकिन जब सीबीआई और फिर कोर्ट ने महावीर शर्मा से पूछा- क्या बस में हथियार थे? उन्होंने हर बार सिर्फ एक जवाब दिया- नहीं, बस में कोई हथियार नहीं था, पुलिस को कुछ नहीं मिला था. बेकसूरों पर गोली चलाई गई थी.
इस दौरान कई बार उन पर दवाब बनाया गया था, कई तरह के प्रयास हुए कि वे अपने बयान से पलट जाएं, लेकिन महावीर शर्मा की सच्चाई ऐसी थी कि वे किसी के सामने नहीं झुके. उन्होंने अपने आंदोलनकारी दोस्तों को बचाने का पूरा प्रयास किया. वे सीबीआई के एक लौते वो गवाह थे जो अंत तक अपने बयान पर कायम रहे. उन्होंने ही पूरी दुनिया को 2 अक्टूबर की उस काली घटना के बारे में बताया था जिस वजह से उत्तराखंड राज्य वाला आंदोलन और तेज हुआ और उनका समर्थन भी बढ़ता चला गया.