उत्तराखंड में राजनीतिक उठापटक और राजनीतिक खींचतान के साथ, नाराजगी अक्सर देखने को मिलती है. राज्य बनने के बाद से ये सिलसिला जारी है. प्रदेश को बने अभी मात्र 21 साल हुए हैं और प्रदेश को अब तक इसे 13 मुख्यमंत्री मिल चुके हैं. 2022 में 14वें मुख्यमंत्री शपथ लेने वाले हैं. 21 साल में 13 मुख्यमंत्रियों के होने से साफ है कि प्रदेश में राजनीतिक खींचतान कितने चरम पर रहती है.
क्या रही अब तक उत्तराखंड की राजनीति
उत्तराखंड प्रदेश 2000 में बना, तब से लेकर अब तक केवल नारायण दत्त तिवारी ही ऐसे मुख्यमंत्री रहे जो पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाए. पर तिवारी सरकार के पांच साल में भी राजनीतिक उथल पुथल कम नहीं थी. वर्तमान में कांग्रेस पर ही अनदेखी का आरोप लगाने वाले हरीश रावत उन दिनों युवा नेता हुआ करते थे. उस दौरान भी अक्सर खटपट की खबरें सामने आती थीं, जब हरीश रावत भी कई बार तिवारी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया करते थे. इस दौरान कई बार ये नाराजगी इतनी बढ़ जाती थी कि हाईकमान भी असहज हो जाता था. कुल मिलाकर हरीश रावत ने भी तिवारी सरकार को उन पांच साल में कभी चैन की नींद नहीं सोने दिया था.
एक वक्त वह भी था जब कई मौके ऐसे आए कि पार्टी को दोनों दिग्गजों के बीच बैलेंस बैठाना तक नामुमकिन था. उस समय प्रदेश की राजनीति में मजबूती के साथ जो दो गुट भिड़ते दिखते थे, वह एनडी तिवारी और हरीश रावत का ही खेमा था.
हर बार हरीश पर भारी पड़े थे एनडी
अपने लंबे राजनैतिक कद और गांधी परिवार से नजदीकियों के चलते, तिवारी ने हर बार हरीश रावत को पीछे छोड़ा. हरीश रावत 2002 में ही प्रदेश के सीएम हो गए होते, लेकिन बतौर अध्यक्ष नए प्रदेश में जिस तरह हरीश ने जमीन तैयार कर फसल खड़ी की थी, उसे एनडी ने काट लिया. उस समय रावत के पास समर्थक विधायकों की लंबी सूची होने के बावजूद आलाकमान की मुहर तिवारी के नाम पर लगी. 80 के दशक में रावत के तीन बार सांसद बनने के बाद भी तिवारी समर्थक सांसद ब्रह्मदत्त को ही केंद्र में आगे बढ़ने का मौका मिला.
हालांकि, यूपी में सफल सीएम के तौर पर चार बार राजपाट चलाने वाले एनडी के पैर उत्तराखंड में कई बार डगमगाए. उस दौरान हरीश खेमे का वजूद था और उनके बयानों के तीर तिवारी की मुश्किलें बढ़ाते रहे थे. उस वक्त तिवारी अपनी मुश्किलें कम करने के लिए ही प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर यशपाल आर्य को लेकर आए थे.
भाजपा में रही कांग्रेस से ज्यादा कलह
तिवारी के जाने के बाद अगले चुनाव में बीजेपी ने राज्य में 35 सीट जीतकर निर्दलियों की मदद से सरकार बनाई और बीसी खंडूरी मुख्यमंत्री बने. लेकिन दो ही साल बाद, उन्हें हटाकर रमेश पोखरियाल निशंक को कमान सौंपी गई. लेकिन वो भी करीब दो ही साल गद्दी पर रह सके और चुनाव से ठीक पहले खंडूरी को एक बार फिर मुख्यमंत्री बना दिया गया.
फिर चुनाव हुआ और कोई भी पार्टी बहुमत का आंकड़ा छू ना सकी. कांग्रेस ने छोटे दलों की मदद से सरकार बनाई और विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने. सरकार भले ही बदल गई, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी रहा. ऐसे में हरीश रावत को मौका दिया गया, लेकिन केंद्र में बीजेपी के मजबूत होने के साथ साथ उनकी सरकार के करीब दस विधायकों ने बीजेपी का दामन थाम लिया. राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा तो हरदा ने कोर्ट की शरण ली. कोर्ट ने बहुमत साबित करने का मौका दिया जिसमें हरदा की जीत हो गयी.
2017 का विधानसभा चुनाव आते-आते, कांग्रेस बेहद कमजोर हो चुकी थी. इसका परिणाम चुनाव नतीजों में भी देखने को मिला. बीजेपी ने अब तक की सबसे बड़ी जीत राज्य में हासिल की, तब उसके 57 विधायक जीत कर सदन में पहुंचे थे. ऐसा लगा कि इस बार बहुत मजबूत सरकार आई है, तो मजबूती से चलेगी भी. लेकिन पुरानी कहावत है कि चरित्र बदलना आसान नहीं होता. राजनीतिक अस्थिरता का चरित्र बना रहा और चार साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत को अपना पद छोड़ना पड़ा. फिर तीरथ सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया पर अंदरूनी कलह और अपने विवादों की वजह से उनको तीन महीने में इस्तीफा देना पडा, और तब से अब तक युवा चेहरे पुष्कर सिंह धामी कमान संभाले हुए हैं.
चुनाव नजदीक आते-आते, कांग्रेस की सभाओं में बढ़ती भीड़ से कांग्रेस गदगद थी और सत्ता वापिसी की आशा बढ़ती दिखाई दे रही थी. लेकिन हरीश रावत के लगातार होते ट्वीट से कांग्रेस की आपसी कलह फिर सामने आ गयी है, जो उसके लिए एक अच्छा संकेत नही है.