एक्टर नवाजुद्दीन सिद्दीकी फिल्म जोगीरा सारा रा में एक रोमांटिक लड़के का किरदार निभाते नजर आने वाले हैं. इस मुलाकात में नवाज हमसे अपनी फिल्मों के किरदार और उनका निजी जिंदगी पर पड़ते प्रभाव पर बात करते हैं.
नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने अगर कोई फिल्म साइन की है, तो जाहिर है दर्शकों की उम्मीदें बढ़ जाती हैं. 'जोगीरा सारा रा' में ऐसी क्या खासियत थी?
-इसमें स्ट्रेट ह्यूमर है. जैसे 'मोतीचूर' में मेरा किरदार थोड़ा छुपा हुआ, इनडायरेक्ट सा था. यहां किरदार में कोई लेयर नहीं है.
क्या 'मोतीचूर', 'जोगीरा' जैसी फिल्में आप इसलिए करते हैं, ताकि जटिल किरदारों के बीच इसे बैलेंस हो सके?
-हां बिलकुल, मेरी यह बैलेंसिंग वाली कोशिश हमेशा से रही है. अगर फिल्मों में मैं थोड़ा इंटेंस हो जाता हूं, तो कोशिश यही होती है कि थोड़ी लाइट फिल्में कर लूं. मसलन 'ठाकरे' के वक्त मैंने 'फोटोग्राफ' फिल्म कर ली थी. हालांकि फिल्मों की रिलीज के सीक्वेंस पर मेरा कोई कंट्रोल नहीं होता है. कई बार यह होता है कि एक के बाद एक इंटेंस फिल्में ही रिलीज होती जाती हैं. मेरी कोशिश तो पूरी तरह से बैलेंस करने पर है.
लेकिन फिर भी आपकी इमेज एक इंटेंस एक्टर के रूप में ही स्टैबलिश हो चुकी है?
-नहीं, ऐसा नहीं है. मैं तो बल्कि इंडस्ट्री का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि जो भी फिल्म ऑफर होते हैं, वो मुझे अलग-अलग किरदारों के साथ ऑफर किए जाते हैं. मेरे पास नरेशन से पहले यही मेसेज होता है कि 'नवाज इस तरह का किरदार आपने पहले कभी नहीं किया होगा'. मेरी फिल्मोग्राफी देखो न, मैं अगर 'ठाकरे' कर रहा था, तो 'मंटो' भी रिलीज हुई थी. 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के दौरान मैं 'कहानी' फिल्म में कॉप बना बैठा था. अभी देखें, तो जितनी फिल्में पूरी की हैं, वो एक दूसरे से मुख्तलिफ किरदार रही हैं. 'हीरोपंती' कर रहा हूं, तो 'सीक्रेट गेम्स' भी हो रहा है.
एक्टर के तौर पर आपकी क्या ख्वाहिश या तलाश है?
- वो क्या है न, हमें खुद की सच्चाई से भी डर लगने लगता है. मैं न अपने किरदारों में हिपोक्रेसी नहीं रखना चाहता. नॉर्मली जिंदगी में यही होता है कि आपने एक झूठ को सच मान लिया है. आप जानते हैं कि यह झूठ है लेकिन आप पूरी जिंदगी उसी के साथ रहते हैं. अब मैं स्टार हो गया, मैं कभी भी नॉर्मल आदमी होने की कोशिश ही नहीं करुंगा. मैं तो स्टार हूं भई, उसी की तरह बात करूंगा और पूरी जिंदगी ऐसी ही गुजरेगी. जबकि यह सच्चाई तो नहीं है, असल में तो आप इंसान ही हो. यह स्टारडम तो पब्लिक का दिया हुआ है, जो आपको अपनी काम की वजह से मिला है. दिक्कत यही है न कि हम पब्लिक के बनाए परसेप्शन पर ही रहने लगते हैं. मैं तुमसे बातें कर रहा हूं, तो एक स्टार की तरह बात कर रहा हूं, इसकी क्या जरूरता है? मैं क्यों नवाज बनकर बात नहीं कर सकता? दरअसल हम उसी इमेज के नौकर बन जाते हैं. मेरी यही कोशिश होती है कि मैं जो भी किरदार करूं उसके प्रति मेरा अप्रोच स्टार वाला होने के बजाए नवाज का हो. स्टार की तरह अगर सोच कर काम करूंगा, तो खुद को लिमिट कर लूंगा.
आप जिस इल्यूशन की बात कर रहे हैं. क्या कभी उसमें खुद को ट्रैप महसूस किया है? मतलब स्टारडम में आप खुद बंधा हुआ पाते हैं?
-हां, ये तो होता ही न. दर्शक आपका बेस्ट परफॉर्मेंस देखकर ही उसमें बांध देते हैं. वो चाहते हैं कि आपका पॉप्युलर किरदार बार-बार रिपीट हो. लेकिन मेरी भी यह जिद्द होती है कि मैं कोई दोहराव न करूं. मैं यही कोशिश करता हूं कि अलग-अलग किरदार करता जाऊं. ऐसे किरदार जो मुझे हैरान कर दें. अब इस जर्नी में होता क्या है कि जो हीरो या स्टारडम है, वो मारा जाता है. देखो न, हमारे यहां के जो सुपरस्टार हैं, वो पूरी जिंदगी एक तरह के ही रोल्स करते हैं. जो पुराने सुपरस्टार रहे होंगे, हम उनके बारे में बात कहां करते हैं. बेशक वो हीरो था, लेकिन उसने अपनी जिदंगी में केवल एक तरह का ही किरदार किया है.
दरअसल उनकी सेल्फलाइफ होती है, उन्हें मिला प्यार भी वक्ती तौर पर ही होता है. हम उस प्यार में उन्हें देखने जाते हैं. जो काफी समय तक नहीं रह पाता है. आज मैं बलराज साहनी, गुरूदत्त या संजीव कुमार की बातें करता हूं, ये आज भी तरोताजा हैं. इन्होंने उस दौर में स्टार बनने के बजाए खुद को एक्टर बनाना पसंद किया था. जबकि उन्हीं के दौर के सुपरस्टार के बारे में उतनी बात नहीं होती है. मेरी एक जर्नी है, मैं चाहता हूं कि सुपरस्टार बनने पर फोकस करने के बजाए मैं जहीन एक्टर के रूप में पहचाना जाऊं. पता नहीं ये होगा या नहीं.. लेकिन मेरी यह पर्सनल जर्नी है, जिसे मुझे तय करना है.
तो आप दर्शकों को संतुष्ट करने के बजाए खुद के एक्टर की भूख मिटाने की तलाश में हैं?
-अगर मैं संतुष्ट और अपने किरदारों से ऑनेस्ट रहूंगा, तो जाहिर है दर्शकों का भी प्यार मिलेगा. उन्हें यह पता तो होगी न कि भई यह एक्टर ऑनेस्ट है. इसकी रिस्पेक्ट तो वो करेंगे, भले इसमें उन्हें वक्त लग जाए.
किरदारों की बात को हटा दें, तो असल जिंदगी में भी एक पब्लिक पर्सनैलिटी होने का भार झेलना ही पड़ता है?
-वही तो चीज है, बाकि के जो लिमिटेशंस हैं, वो दूसरे लोगों के साथ जुड़े हुए हैं. आपको एक सीमित स्टैंडर्ड में ही परफॉर्म करना है. हमने तो उस स्टैंडर्ड को ब्रेक किया है न. स्टार जहां अपने लिमिटेशन और स्टैंडर्ड में बंधा होता है, वहीं एक्टर उसे हमेशा से तोड़ता रहा है. कमर्शल फिल्मों में मजबूरी यही है कि एक फॉर्म्यूला के तहत ही आपको एक्ट व रिएक्ट करना है. यह दुर्भाग्य है उनका. वो बेचारे कुछ एक्सपेरिमेंट करना भी चाहें, तो लोग उन्हें सिरे से नकार देता हैं. दर्शक उन्हें इसलिए भी प्यार करते हैं क्योंकि वो उस स्टैंडर्ड में बंधा हुआ है. कमर्शल फिल्मों के स्टार से जाकर पूछो कि 'मंटो' कर लो, उसे डर लगने लगेगा. वो भली भांती जानता है कि लोग उसे उस रूप में देखने तो नहीं आएंगे. इसलिए वो बेचारे उसी में फंसकर रह जाते हैं. वो मोनोटोनी, तो एक्टर ही तोड़ता है.
एक जो रैट रेस चलती रही है. उसमें अपने चॉइसेस की वजह से इनसिक्यॉरिटी नहीं आती है?
- मैं नहीं कर पाता हूं... दरअसल हो ही नहीं पाता है. मैं जब देखता हूं कि भीड़ वहां भाग रही है, तो मैं उससे विपरीत भागने की कोशिश करता हूं. भले मैं इसमें सक्सेसफुल होऊं या नहीं, लेकिम मैं भीड़ की तरफ नहीं जा सकता.
शायद यही जिद्द की वजह है कि आप जिस फिल्म में होते हैं, सारा फोकस आप पर शिफ्ट हो जाता है?
-हां, शायद.. क्योंकि लगातार लोग आपको और आपकी मेहनत को देखते हैं, तो उनका विश्वास एक्टर के प्रति जगता है.
आपने इतने विविधरंगी किरदार किया है. कोई ऐसा किरदार जिससे पीछा छुड़वाना मुश्किल रहा हो?
-हां, 'रमन राघव', 'फोटोग्राफ', ये मेरी टफ फिल्मों में से एक रही हैं. इनका जो प्रॉसेस था, वो पागल कर देने वाला था. मैंने जब 'रमन राघव' की तैयारी की थी, मेरा खुद पर काबू नहीं था. शूटिंग के एक हफ्ते पहले तक मैं लोनावला के किसी इंटीरियर में चला गया था. एक छोटी सी जगह पर रह रहा था. शाम होती थी, तो मैं खुद से डर जाता था. आईना देखकर मैं सहम जाता था.
फिर कैसे उससे खुद को निकाला...
-आपके अंदर एक तीसरी आंख होती है. वो शायद जगी थी. मैं इतना परेशान था, कि डरता था कहीं खुद को ही न मार लूं. इस बीच खुद को समझाता भी था कि ऐसा नहीं हो सकता है, मुझे खुद से नहीं डरना है. मैं खुद को नहीं मार सकता हूं. मैं मुंबई पहुंचा और इसकी शूटिंग शुरू कर दी थी. मुझे याद है वो पहला सीन, जहां मैं इंट्रोगेशन में बैठा हूं, सिगरेट पी रहा हूं और मुझसे सवाल होते हैं. उस दौरान जो मेरे जस्टिफिकेशन में अब्सर्डिटी थी, वो नॉर्मल तो कहीं से नहीं थी. उस दौरान मुझे एहसास हुआ कि अब्सर्डिटी ही सबसे बड़ी रिएलिटी है. लोग सैडिस्ट होते हैं, बस कोई अपने काम के जरिए निकाल देता है और कोई उसे अपने अंदर ही छिपा लेता है.
अनुराग कश्यप कहते हैं न, मैं अपनी फिल्मों के जरिए सारा जहर निकाल बाहर कर देता हूं. अब मेरे जैसा आर्टिस्ट क्या करे, जिसके अंदर वो सारा जहर भरा पड़ा है. 'रमन राघव' से निकलने में वक्त लगा, कई साइकॉलजिस्ट का सहारा लेना पड़ा था. मुझे फीवर हो गया था, कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहा. मैं गांव में दोस्तों के साथ रहा. वहां लोग मेरे साथ ऐसा ही बर्ताव करते हैं, जैसा मैं पहले था. गांव की खासियत होती है कि अगर वहां जाकर कहो कि मुझे डिप्रेशन हो रहा है, लोग थप्पड़ मारते हैं. ये डिप्रेशन, एंजॉइटी, शहरों के दिए टर्म हैं. यहां अपने इमोशंस को ग्लोरीफाई किया जाता है. आज छोटी सी बच्ची कहती है कि मेरा डिप्रेशन फेज चल रहा है. सुनकर अजीब लगता है. ऊपरवाले ने तो सबकुछ दिया है, तब भी डिप्रेशन की बात कर रहे हैं, एक थप्पड़ लगेगा मुंह पर सब ठीक हो जाएगा. आज तो बच्चे को यह भी पता होता है कि एक बच्चे को अगर आपने मार दिया, तो वो फौरन पुलिस को कॉल कर आपके अगेंस्ट कंपलेन कर सकता है.