
'अगर मैं तुम्हें प्यार नहीं करता तो मारता क्यों?.. और अगर तुम मुझे प्यार नहीं करती तो सहती क्यों?' थाने की कोठरी में हमजा के ये शब्द बदरू के कदम पीछे खींच लेते हैं. मन को मना चुकी है कि अब और बर्दाश्त नहीं करना, चाहे जो हो जाए, लेकिन दिल के कोने से कहीं आवाज आती है कि शायद अब अच्छे दिन आ जाएंगे. रोज की पीड़ा का अंत हो जाएगा जैसा आम महिलाएं सोचती हैं. परिवार बचाने की चिंता, सपनों को पूरा करने की ललक, एक बेहतर जीवन की तमन्ना, एक छोटा सा घर, एक अदद बच्चे की चाह उनके कदम रोक लेती है.
जिसके साथ मिलकर प्यार के घरौंदे बनाए थे अगर उसमें कुछ कमियां भी हैं तो उसे छोड़ देना ही रास्ता है क्या? अगर शरीर में कहीं फोड़ा हो जाए तो उस हिस्से को काट थोड़े दिया जाता है. ठीक करने की कोशिश की जाती है. शायद हर कोई ऐसा करता है, सहता है, निभाता है लेकिन कई लोग टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं और बहुत देर में वो फैसला लेते हैं जो बहुत पहले ले लेना चाहिए था.
प्यार की चाह में बदरू ने अपनी खुशियों की चढ़ाई बलि
कुछ ऐसी ही जिंदगी है 'डॉर्लिंग्स' के हमजा और बदरुनिशा उर्फ बदरू की. दोनों एक ही चॉल में रहते हैं. एक दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन मां को हमजा पसंद नहीं है. मां की पारखी नजरें भांप लेती हैं कि यह मेरी बेटी के काबिल नहीं है. लेकिन हमजा की सरकारी नौकरी लगते ही सब बदल जाता है. इस जमाने में सरकारी नौकरी, इस भ्रम में आकर देश में न जाने कितनी लड़कियों की बलि दी गई है. यहां बदरू खुद बलि चढ़ गई.
कुछ दिनों तक सब ठीक रहता है लेकिन बाद में हमजा के अंदर का शैतान जाग जाता है. क्योंकि उसकी जिंदगी में शराब पहले नंबर पर है, नौकरी दूसरे नंबर पर और आखिर में पत्नी का नंबर आता है. पहले वह शराब पीता है बाद में उसे शराब पीने लगती. बदरू को वह हर रात पीटता है. बेरहमी से पीटता है. सुबह पुचकारता है, दुलारता है, रात के लिए माफी मांगता है और बदरू इसे नियति मानती है. खुद से खुद को छिपाती है. मक्कारी को वह प्यार समझने की भूल किए बैठी है. जलालत भरी जिंदगी को नियति, लेकिन साथ में एक उम्मीद भी कि आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा.
देखने वालों को यह जलालत भरी जिंदगी देखकर गुस्सा आता है. फिल्म की सफलता है कि हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि ये कैसा प्यार है आखिर बदरू बर्दाश्त क्यों कर रही है? रात की पिटी औरत सुबह हसबैंड के लिए टिफिन कैसे तैयार कर सकती है? लेकिन शायद यह बदरू की नहीं भारत की हजारों, लाखों की महिलाओं की बदकिस्मती है, क्योंकि परिवार बचाने की जिम्मेदारी, चलाने की जिम्मेदारी उनकी है. मर्द तो आजाद है.
डॉर्लिंग्स के हमजा और बदरू एकदम साधारण लोग हैं. बदरू बहुत पढ़ी-लिखी भी नहीं है. उसे अपनी अस्मिता का ज्ञान भले ही न हो लेकिन वह रेसपेक्ट चाहती है, इज्जत चाहती है. प्यार के बदले प्यार चाहती है. वह चाहती है कि जितना वह शौहर का ख्याल रखती है उतना ही ख्याल शौहर भी उसका रखे. उतना ही प्यार करे. उसके सपनों का साथ दे लेकिन हमजा किसी और मिट्टी का बना है. उसकी नीयत में खोट है. मीठी बातों में उलझ जाना बदरू की बदकिस्मती. यहां गुस्सा हमजा पर नहीं बदरू पर आता है. ऐसा क्यों? कब तक? इसके पास दिमाग है भी कि नहीं, ऐसे मोड़ पर आप फिल्म में रम जाते हैं. इस बहाने उन औरतों के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं जो हर रोज घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं. शायद उनके पास भी सहने के सिवा कोई चारा नहीं होता होगा.
बदरू अपनी लगती है. अपने गली मुहल्ले की, अपने किसी रिश्तेदार किसी मित्र की पत्नी जो ऐसे हालातों से गुजरती है. जाने-आनजाने में वह देश की हर उस महिला का प्रतिनिधित्व करने लगती है जो घरेलू हिंसा का शिकार हैं. हमें याद आने लगते हैं शोषण के तरीके जो अलग-अलग हैं. खाना बनाना तुम्हारी जिम्मेदारी, वह ठीक बने इससे भी बड़ी जिम्मेदारी, कमाकर नहीं लाती हो तो सहना तो पड़ेगा, किसी का शोषण दिखाई देता है किसी का नहीं. बदरू तो बेरोजगार है हमजा पर आश्रित है. अमूमन मायके के लोग सिखाते रहते हैं कि बेटा तुम्हारा परिवार है तुम्हें ही संभालना है लेकिन यहां तो मां ज्यादा बोल्ड है. वह पहले यह सब झेल चुकी है, अपने दम पर ऐसे हालात से निकल चुकी है, इसलिए बेटी को पिसता देख उसे दुख होता है. यहां उसका कैरेक्टर आम मां से अलग हो जाता है. वह सीख दे जाती है कि जहां बेटी की डोली गई वहीं से अर्थी निकले यह जरूरी नहीं, सहने की सीमा होती है, और हर हिंसा का प्रतिरोध किया जाना चाहिए. 'तू पिटती है इसलिए वह पीटता है'. नए जमाने की मां है जो सीख देती है कि छोड़ दे उसे, मार दे उसे'
मां की सुनाई मेढक और बिच्छू की कहानी यादगार बन जाती है. बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना, वह तो मारेगा ही. यह बात बदरू को तब समझ में आती है जब हमजा की पिटाई से उसका बच्चा नहीं रहता. हमजा केवल इसलिए शांत है कि वह जानना चाहता है कि थाने में उसके खिलाफ शिकायत किसने दी. शराब छोड़ने के बाद भी उसका शैतान जगा रहता है. शक के घेरे में जुल्फी है, बदरू ने सब बर्दाश्त कर लिया है लेकिन चरित्र हनन उसे बर्दाश्त नहीं है. वह ठान लेती है कि हमजा से उसको बदला लेना है. उसी तरह उसे प्रताड़ित करना है, जिस तरह से उसने उसे पीटा है. मां और जुल्फी उसके साथ हैं, हमजा की पिटाई से संतोष मिलता है. लेकिन ऐसा भी लगता है कि यह सब क्यों?
अगर परिवार का पहिया नहीं चल पा रहा है तो रास्ते अलग-अलग क्यों नहीं. बदरू को रेस्पेक्ट चाहिए लेकिन क्या पीटकर रेसपेक्ट हासिल की जा सकती है. यही बात बाद में बदरू को समझ में आती है. दिल से उतरे हुए लोगों से शिकायत कैसी.
जुल्फी, बदरू और खाला मिलकर ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं कि कई जगहों पर हंसी की फुहारें फूट पड़ती हैं. कुछ बातें अविश्वसनीय लगती हैं लेकिन फिल्म कहीं बोर नहीं करती है. सोचने पर विवश करती है कि ऐसा नहीं, अगर ऐसा होता तो. प्यार का फंडा भी क्लियर करती है. किसी के प्यार में इस तरह क्या बिछ जाना कि अपना खुद का वजूद ही खो जाए. प्रेम तो तब है जब दोनों का वजूद न रहे, दोनों की खुशियां और दोनों के गम दोनों की महत्वाकांक्षा एक हो जाएं. यह प्यार हो ही नहीं हो सकता जिसमें सामने वाले की कोई अहमियत ही न हो. अस्तित्व ही न हो. डॉर्लिंग्स शिद्दत के साथ यह अहसास भी कराती है कि केवल कहने से कुछ नहीं होता, बातों से कुछ नहीं होता, उन्हें धरातल पर उतारने से होता है.
डार्लिंग्स की जान हैं आलिया भट्ट
आलिया भट्ट ने बदरू के किरदार में बेहतरीन काम किया है. ‘उड़ता पंजाब’, ‘राजी’ के बाद एक और एक यादगार रोल जिसके लिए उन्हें याद रखा जाएगा. गंगूबाई काठियावाड़ी में वो कहीं न कहीं बनावटी लग रही थीं. बॉडी लैंग्वेज के हिसाब से भी वह उस रोल में फिट होने में उन्हें मुश्किल हो रही थी. बातों में दबंग दिख रही थीं लेकिन इकहरा बदन उससे तालमेल नहीं बिठा पा रहा था. लेकिन डॉर्लिंग्स में ऐसा नहीं, उनके अभिनय में स्वाभाविकता है. प्यार और उससे उपजी हुई मजबूरी आंखों में झलकती है. कई जगह बातों की जगह केवल आंखों ने कह दिया है. अब तक जितनी भी फिल्में उन्होंने की हैं उसमें सबसे यादगार रोल रहा है.
खाला (शेफाली शाह) और जुल्फी (रोशन मैथ्यू) ने भी काबिले तारीफ काम किया है, खाला एक ऐसी मां के रूप में नजर आई हैं जो बेटी के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं. वह बेटी को हालातों पर छोड़ने के खिलाफ हैं. वह रास्ता बताने को तैयार हैं. रास्ता दिखाने को तैयार हैं. वह बोल्ड निर्णय लेना चाहती हैं. उनका अपना दर्द है अपनी कहानी है. बदरू को उन्होंने कैसे-कैसे पाला है यह उन दोनों के सिवा कोई नहीं जानता. यह अहसास दिलाने में दोनों सफल रहती हैं.
'जुल्फी' एक पागल दीवाना लगता है. हमजा से बहुत बेहतरीन, बेहद जिम्मेदार इंसान, ऐसा लगता है कि वह बदरू को चाहता है लेकिन उसका क्रश तो कोई और है, प्यार को उम्र में नहीं बांधता, जिसे चाहता है उसके हर बुरे-अच्छे में उसके साथ चलने में यकीन रखता है. कासिम कसाई (राजेश शर्मा) एक खामोश किरदार है. मांस बेचता है लेकिन हर गलत सही में बदरू और खाला के साथ खड़ा है, इस फिल्म में राजेश का संवाद कम है लेकिन वो आंखों से ही बहुत कुछ कह जाते हैं. वैसे भी किरदार में ढल जाना उनकी फितरत में है. किरदार छोटा हो या बड़ा लेकिन फिल्म में अगर वो हैं तो आप उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते.
विजय वर्मा ने हमजा के रोल में जान डाल दी है. अगर फिल्म देखते-देखते और पात्र से प्यार और घृणा हो जाए तो यह उसकी सफलता कही जाती है. हमजा के प्रति घृणा उपजती है. ऐसे भी लोग होते हैं. ऐसा कैसे कर सकते हैं. आदमी इतना कुटिल, इतना जाहिल, इतना फरेबी कैसे हो सकता है. प्यार की छौंक में कोई सामने वाले को कितना बेवकूफ बना सकता है. यह विजय वर्मा ने अपने अभिनय से साबित कर दिया है.
कुल मिलाकर 'डॉर्लिंग्स' घरेलू हिंसा के खिलाफ एक संदेश देने में कामयाब रहती है. बदरू और हमजा के माध्यम से घर-घर की कहानी को सामने रखती है. सोचने पर मजबूर करती है. लेकिन रास्ता नहीं दिखा पाती. जिन पटरियों पर परिणाम दिखाने की कोशिश की गई है वह सबको हजम नहीं हो सकता. रास्ते और भी हैं. कानून ने, संविधान ने, समाज ने जो रास्ता बताए हैं वो किताबी भले ही लगें लेकिन उससे एकदम अलग हटकर दिखना, चलना स्वीकार्य नहीं हो पाता. यही वजह है कि इंटरवल तक फिल्म जितनी मजबूत दिखती है, उसके बाद अंत तक थोड़ी थोड़ी कमजोर ही होती जाती है. डल होती जाती है. ऐसा लगता है कि कोई और रास्ता तय किया गया था लेकिन कहानी पर बस नहीं रहा और कथ्य हाथ से निकल गया.