गंगूबाई आ गई है. सिनेमा के पर्दे पर जिस गंगूबाई को देखने के लिए लोग इंतजार कर रहे थे, वो भंसाली के विशाल और क्लासिक सेटों में संवारी हुई अब दर्शकों के देखने के लिए उपलब्ध है. हालांकि भंसाली से लोगों को जितनी उम्मीदें थी, फिल्म शायद उसपर पूरी तरह से खरी न उतर पाए. आलिया की मेहनत और दमदार एक्टिंग के बावजूद गंगूबाई एक बड़े निर्देशक की औसत फिल्म साबित हो सकती है.
हुसैन जैदी और जेन बॉर्जेस की किताब माफिया क्वींस ऑफ मुंबई पर आधारित फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी का ट्रेलर रिलीज होते ही गंगूबाई के अडॉप्टेड परिवार वालों ने आपत्ति जताई कि उनकी मां को वेश्या के रूप में दिखाया गया है जबकि उनकी मां सोशल वर्कर थीं. रिलीज से पहले ही फिल्म को लेकर यह विवाद अदालत तक पहुंचा. लेकिन क्या यह विवाद लोगों को सिनेमाघरों तक खींच सकेगा, यह भी देखना बाकी है.
फिल्म की कहानी में काफी पोटेंशियल है. एक 14 साल की गंगा के गंगूबाई बनने का सफर है यह फिल्म. इसके पीछे उस इंसान का हाथ है, जिसपर वो अंधा विश्वास करती है, लेकिन वही उसके भरोसे और सपने को हजार रुपये में कोठे पर नीलाम कर आता है. इसके बाद गंगा हालात से मजबूर होकर घुटने टेकती है या फिर हालात को ही बदलती है, इस पर फिल्म का ताना-बाना पिरोया गया है. इस सफर में उसके साथ और खिलाफ में शीला मौसी(सीमा पाहवा), रहीम लाला(अजय देवगन), कमली(इंद्रा तिवारी), अफसान(शांतनु महेश्वरी), रजिया बेगम (विजय राज) हैं.
फिल्म की स्क्रिप्ट उस स्तर की नहीं है जिस कद के भंसाली खुद हैं और आलिया की अदाकारी है. कुछ एक सीन अच्छे बन पड़े हैं. जैसे आलिया कार में पैर पर पैर चढ़ाए बैठी हैं, सफेद साड़ी में उनकी एंट्री भी कमाल करती है. आलिया कहीं कहीं पर रूतबे वाली और दबंग नज़र आती हैं. गंगा का तैयार होकर सूनी आंखों से दरवाजे के पास आकर ग्राहक को बुलाना, रहीम लाला का कार के बोनट पर एक विलेन को मारना और ऐसे कई सीन हैं जो आपको झकझोर सकते हैं. फिल्म में उसूलों का पक्का रहीम अपने ही आदमी को बेरहमी से मार उसे सबक सिखाता है. यहीं से रहीम और गंगूबाई की अनोखी बॉन्डिंग शुरू होती है. रहीम के रूप में भाई का सपोर्ट मिलने के बाद गंगूबाई की हिम्मत बढ़ती है. आगे किस तरह गंगूबाई कमाठीपुरा में रहने वाली चार हजार औरतों के हक में लड़ती हैं. इस बीच कमाठीपुरा की प्रेसिडेंट के लिए (रजिया)विजय राज से छिड़ी जंग, प्रधानमंत्री नेहरू से मुलाकात, अफसान के प्यार में पड़ने की जर्नी गंगूबाई कैसे तय करती है इसके लिए फिल्म देखनी पड़ेगी.
आलिया की आउटस्टेंडिंग परफार्मेंस है गंगूबाई
भंसाली इस फिल्म में भी अपने पुराने अंदाज में नजर आए हैं. भव्य सेट, डार्क स्क्रीन से भंसाली थोड़े अछूते नजर आए हैं. 1945-1970 टाइम के बीच ट्रैवल करती कहानी में कई लूप होल्स हैं. डायलॉग के बीच आलिया का प्लीज कहना हजम नहीं होता है. दरअसल, भंसाली ने गंगूबाई को निखारने के लिए फिल्म में काफी मेहनत की है. आलिया भट्ट को फिल्म के केंंद्र में रखा है. सारी चीज़ें उनके इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती हैं. लेकिन फिल्म का फर्स्ट हाफ बिखरा हुआ सा लगता है. फिर सेकंड हाफ में फिल्म थोड़ा संभलती है. उसमें कसावट भी आती है और इमोशन का एक अच्छा ट्रैप भी जिसमें दर्शक बंधता दिखाई देता है. हालांकि सेकेंड हाफ के डायलॉग्स कई बार आपको तालियां बजाने पर मजबूर कर देंगे.
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आलिया ने गंगूबाई की नब्ज को बखूबी पकड़ा है. गुजराती डायलेक्ट की बात हो या फिर एक्टिंग, आलिया ही आलिया नजर आती हैं. सीमा पाहवा ने शीला के किरदार को जिया है. फर्स्ट हाफ में आलिया और सीमा पाहवा की एक्टिंग की दमदार जुगलबंदी रही है. लेकिन विजय राज ने रजिया के किरदार में निराश किया है. ट्रांसजेंडर के किरदार में विजय के लुक की काफी चर्चा रही थी लेकिन स्क्रीन स्पेस ज्यादा न मिल पाने की वजह से विजय इसे खेल नहीं पाते हैं. वहीं शांतनु महेश्वरी अपनी कॉन्फिडेंट एक्टिंग से सरप्राइज करते हैं. अजय देवगन रहीम लाला के किरदार में जंचे हैं. जिम श्राभ जर्नलिस्ट के किरदार में फनी लगते हैं. सपोर्टिव वेश्या कमली के किरदार में इंद्रा तिवारी ने किरदार को जस्टिफाई करती हैं.
म्यूजिक और डांस के मामले में भी फिल्म में भंसाली का सिग्नेचर अंदाज देखने को मिलता है. लेकिन इसमें कुछ अलग व नयापन नहीं देखने को मिलेगा. कई जगह आपको दोहराव नजर आता है. गानें भी जुबान पर चढ़ने वाले नहीं हो पाए हैं. सुदीप चटर्जी भंसाली की फिल्मों में लगातार बतौर डीओपी रहे हैं. यहां भी उनके काम में क्वालिटी नजर आती है. अमित रे और सुभ्रता चटर्जी का प्रोडक्शन डिजाइन भी अच्छा है.
ओवरऑल फिल्म एंटरटेनिंग है. कुछ डायलॉग्स व सीन्स आपको इमोशनल जरूर करेंगे लेकिन फिल्म के इंगेजिंग होने की उम्मीद थी, वहां थोड़ी कसर है. यकीनन ये आलिया के करियर का बेस्ट परफॉर्मेंस है, उनके फैंस के लिए यह ट्रीट है.