
कोविड लॉकडाउन के बीच फंसे लगभग दो साल का वक्त दिमागी कैलेंडर से इस कदर गायब हुआ है कि इसकी वजह से अक्सर बीते सालों का हिसाब गड़बड़ लगने लगता है. जैसे आज फवाद खान, आलिया भट्ट और सिद्धार्थ मल्होत्रा की फिल्म 'कपूर एंड सन्स' को रिलीज हुए 9 साल पूरे हो चुके हैं. क्या आप इस बात पर यकीन कर सकते हैं?
ऐसा लगता है जैसे अभी कुछ ही दिन पहले तो 'कर गयी चुल' पर डांस करते आलिया, फवाद और सिद्धार्थ को स्क्रीन पर देखा था. या फिर ऋषि कपूर को दादा जी के अवतार में देखकर थिएटर्स में अभी कुछ ही दिन पहले तो हंसी आई थी. एक और यकीन ना करने लायक फैक्ट ये भी है कि ऋषि साहब को हमारे बीच से गए भी 5 साल बीत चुके हैं.
भले ही 'कपूर एंड सन्स' को रिलीज हुए इतना लंबा अरसा बीत चुका हो, लेकिन शकुन बत्रा की ये फिल्म आज भी उतनी ही फ्रेश लगती है जितनी थिएटर्स में पहले दिन लग रही थी. आलिया भट्ट के चुलबुलेपन, सिद्धार्थ मल्होत्रा के कन्फ्यूज छोटे भाई वाले कैरेक्टर और खट्टी-मीठी पारिवारिक नोंकझोंक से हटकर 'कपूर एंड सन्स' एक और मामले में बहुत खास थी. फिल्म में फवाद खान ने एक गे किरदार निभाया था. मगर जिस तरह उन्होंने ये किरदार निभाया था, उसने अपने आप में बॉलीवुड में एक बड़ी चीज बदली थी.
कैसे अलग था फवाद खान का गे किरदार?
'कपूर एंड सन्स' वो पहली फिल्म बॉलीवुड फिल्म नहीं थी जिसमें गे किरदार नजर आया था. मगर इस मामले में ये फिल्म यकीनन पहली पॉपुलर मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म बनी, जिसने स्क्रीन पर गे किरदारों को दिखाने का नजरिया बदल दिया.
इससे पहले बॉलीवुड की पॉपुलर फिल्मों में गे किरदारों को हमेशा एक ऐसी नजर से दिखाया जाता था, जिसका उद्देश्य पर्दे पर हंसी या शॉक क्रिएट करना होता था. जैसे 'दोस्ताना' (2008) में अभिषेक बच्चन का किरदार जिस तरह गे होने की एक्टिंग करता है, वो गे किरदारों को दिखाने के लिए बॉलीवुड की एक तयशुदा स्क्रीन लैंग्वेज बन चुका था.
90s और शुरूआती 2000s से ही कई फिल्मों में आपको पॉपुलर बॉलीवुड फिल्मों में इस तरह के किरदार मिल जाएंगे जिन्हें कहानी में गे बताया गया था. मगर इनकी बॉडी लैंग्वेज में हाथों, चेहरे और कमर के ऐसे जेस्चर शामिल थे जिन्हें सिनेमा की भाषा में महिलाओं के साथ ही जोड़कर दिखाया जाता था. जबकि इस तरह के जेस्चर किसी भी पैमाने पर खुद महिलाओं के लिए भी सम्मानजनक नहीं थे. शायद उस वक्त फिल्ममेकर्स की जेंडर की समझ ही यही थी कि उनके हिसाब से किसी व्यक्ति की सेक्सुअल इंटरेस्ट या उसकी सेक्सुअलिटी, उसके शारीरिक स्ट्रक्चर और बॉडी लैंग्वेज को ही बदल देती है.
2016 में 'कपूर एंड सन्स' से ठीक एक महीने पहले डायरेक्टर हंसल मेहता की फिल्म 'अलीगढ़' भी रिलीज हुई थी, जिसमें मनोज बाजपेयी ने एक गे प्रोफेसर का किरदार निभाया था. इस फिल्म को तारीफें तो जमकर मिलीं मगर उस वक्त 'अलीगढ़' पॉपुलर सिनेमा के स्पेस में उस तरह जगह नहीं बना पाई थी, जैसी 'कपूर एंड सन्स' की थी.
शकुन बत्रा की फिल्म में एक खास बात ये भी थी कि ये फिल्म एक फैमिली ड्रामा थी जिसमें लाइट मोमेंट्स और सिचुएशन से निकलने वाली नेचुरल कॉमेडी की भरमार थी. इसमें फवाद खान के किरदार के गे होने की बात पर उसके परिवार का रिएक्शन हाईलाइट था. 'कपूर एंड सन्स' इस किरदार के प्राइवेट मोमेंट्स पर फोकस नहीं कर रही थी. इस किरदार का गे होना कहानी में बस एक फैक्ट की तरह था. जैसे किसी भी आम आदमी की सेक्सुअल चॉइस होती है.
फवाद खान 2014 में 'खूबसूरत' से बॉलीवुड डेब्यू कर चुके थे और उस वक्त लड़कियों में उनका क्रेज ही अलग था (बल्कि आजतक है). फवाद लड़कियों की कल्पनाओं में आने वाले पुरुष थे और ऐसे में उन्हें एक गे किरदार में कास्ट करना 'कपूर एंड सन्स' के लिए एक मास्टरस्ट्रोक भी था. क्योंकि फवाद का चेहरा देखकर कोई दर्शक कहानी में इस तरह के ट्विस्ट की उम्मीद भी नहीं कर रहा था. ऊपर से फवाद ने जिस सहजता से गे किरदार निभाया, उसमें बॉलीवुड के पिछले गे किरदारों की तरह कोई एलियन बर्ताव नहीं था. इस किरदार में कुछ भी ऐसा अलग नहीं था जो बताए कि उसका सेक्सुअल इंटरेस्ट अलग है. और ऐसा करके 'कपूर एंड सन्स' ने गे किरदार को उतना ही सहज बना दिया था, जितना सिद्धार्थ मल्होत्रा का किरदार था.
फवाद से पहले कई एक्टर्स ने रिजेक्ट किया था किरदार
पुरानी रिपोर्ट्स बताती हैं कि 'कपूर एंड सन्स' में फवाद खान का किरदार पहले अक्षय कुमार को भी ऑफर किया गया था. लेकिन उन्हें ये किरदार समझ कुछ जमा नहीं. इसके बाद सैफ अली खान को भी ये किरदार ऑफर किया गया लेकिन तब वो बिजी थे. एक वक्त पर शाहिद कपूर को भी ये किरदार ऑफर करने की रिपोर्ट्स आई थीं.
फवाद खान ने जब फाइनली 'कपूर एंड सन्स' में गे किरदार निभाया तो इसकी तारीफ फिल्म के लगभग हर रिव्यू में थी. फिल्म की रिलीज के दौरान जब एक इंटरव्यू में फवाद से कहा गया कि उन्हें ऐसा किरदार निभाने से इंडस्ट्री में साइडलाइन होने का डर नहीं लगा? तो उन्होंने कहा था, 'अगर कोई ऐसा किरदार निभाता है तो ऐसा करने से उन्हें साइडलाइन क्यों किया जाएगा? कुछ साल रुकिए, चीजें नॉर्मल हो जाएंगी. भविष्य में जो लोग इन चीजों (होमोसेक्सुअलिटी) को लेकर परेशान होते हैं, वो इन्हें स्वीकार करना सीख जाएंगे.'
फवाद ने सही कहा था, 'कपूर एंड सन्स' में उनके किरदार के बाद से बॉलीवुड में भी चीजें नॉर्मल हुईं और होमोसेक्सुअल या गे किरदारों को दिखाने का तरीका बदलता चला गया. 'कपूर एंड सन्स' के बाद वाले सालों में बॉलीवुड ने 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा', 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' और 'बधाई दो' जैसी फिल्मों में होमोसेक्सुअल किरदारों को उसी बॉडी लैंग्वेज के साथ दिखाया जो किसी भी पुरुष या स्त्री की होती है.